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माँ-बाप को पशुधन न समझ सम्मान दें

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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अधिक आधुनिक और सम्पन्न होने से हमने अपने परिवार और पशुधन को बहुत अधिक तिलांजलि दी है। आज सम्पन्न और मध्यम आय वर्ग में एकल परिवार पद्धति में अपने परिवार के वृद्ध माँ-बाप जो अनुपयोगी हो जाते हैं, उनको हम भार मानकर तिरस्कृत या उपेक्षा करने लगते हैं,और उन्हें वृद्धाश्रम भेजने या अलग रखने में नहीं हिचकिचाते हैं। इसी प्रकार पशुधन की भी हालत है। जो अनुपयोगी हुए तो उनको आवारा बनाकर बाहर कर देते हैं या वधशाला में भेज देते हैं,जबकि अनुपयोगी पशुओं को यदि पालें तो जिनके पास खेती है,उनको उनके द्वारा खाद की प्राप्ति हो सकती है,पर उनको भार मान कर कसाईघरों को भेजना बहुत नाइंसाफी होती है। इससे जीव दया का भाव भी नहीं मिलता है।
इसी प्रकार अनुपयोगी माँ-बाप के प्रति उनकी संतानों का व्यवहार में परिवर्तन या बदलाव होना में कई पहलू हैं। पहली बात वृद्ध माँ-बाप को कुछ अभावों में रखने की आदत अपने बच्चों में देना चाहिए। शादी के पहले बच्चों को नैतिक,सामाजिक,धार्मिक, पारिवारिक संस्कार और शिक्षा देना चाहिए। यदि माँ-बाप के भी माँ-बाप हों तो उनकी सेवा करनी चाहिए। उनको भी सम्मान देना चाहिए,जिससे वे संस्कार उनके पुत्र-पुत्रियों को मिलें। यदि बच्चे नया घर बनाते हैं तो उसमे माँ-बाप के लिए व्यवस्थित कमरा या स्थान रखना चाहिए। बच्चों को अपने माँ-पिता को भार नहीं समझना चाहिए। जिन्होंने अपना तन-मन-धन भावनाओं को त्याग कर हमारा लालन-पालन किया-उनका उपकार हम अपने जीवन में नहीं उतार सकते हैं।
आजकल नवजवान लड़के-बहू को अपने माँ-बाप के प्रति लगाव नहीं रहता, उसके पीछे कुछ कारण हैं। तालियां दोनों हाथों से बजती हैं। एक तरफ नवदम्पत्ति अपनी स्वतंत्रता चाहते हैं,और मनमानेपन का अवसर नहीं मिलने से कुंठाग्रस्त होने लगते हैं। कभी-कभी आर्थिक तंगी से भी खटास आने लगती हैं। माँ-बाप ने जन्म देकर योग्य बनाया,तो अब उनकी जिम्मेदारी है कि वे अपने पुरुषार्थ से विकास-तरक्की करें। दूसरा पहलू यह भी है कि उन्हें अपने बच्चे-बहू के अनुरूप भी समय-समय स्वभाव में भी परिवर्तन करना चाहिए,जो बहुत अनिवार्य है। जैसे नौन,कौन और मौन का उपयोग, यानी स्वाद के लिए टोका-टाकी ज्यादा मत करो, अधिक हस्तक्षेप न करो,यानी कौन-कहाँ-क्या कर रहा है और कम से कम या अति आवश्यक होने पर ही बात करो।
सबसे महत्वपूर्ण बात,जब तक जिन्दा हैं धन-संपत्ति अपने नाम पर रखो, अन्यथा जरुरत पर आपको उनके मोहताज रहना पड़ेगा,क्योंकि आज जो प्रिय हैं,कल अप्रिय होने लगते हैं।
इस सबमें पैसा,विचारधारा का न मिलना,सबके स्वभाव अलग होने से ताल-मेल की जरुरत है। सबमें नैतिकता,धार्मिक गुणों का आविर्भाव पैदा करना चाहिए। माँ-बाप भोलेपन से अपना बुढ़ापा निकालें, अन्यथा अनुपयोगी होने वाले पशु जैसा व्यवहार का सामना करना पड़ता है। एक बात की जानकारी देना जरुरी है,यदि आपके पास आमदनी का जरिया न हो और आपके पास स्थायी सम्पत्ति है तो उसे सरकार के पास गिरवी रखकर उसके ब्याज से आजीविका चलाएं। गलत व्यवहार यदि बहू और लड़के,माँ-बाप से करते हैं तो स्थानीय शासन आपकी मदद करता है।
लड़के-बहू,माँ-बाप को पशुधन न समझ कर उन्हें सम्मान दें,कारण इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करता है। उनके तिरस्कार करने से आप कभी सुखी नहीं रह सकते।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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