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दूरदर्शिता

रश्मि लहर
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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पितृपक्ष शुरू हो गए थे। विजय ने भारी मन से अपने स्वर्गीय माता-पिता को जल अर्पित किया। मात्र ४० वर्ष की आयु में उसे यह कार्य करना पड़ रहा था, पर आज, पहली बार उसको अपने पुरखों के प्रति एक अलग तरह की भावना महसूस हुई थी। मम्मी-पापा के रहते वह इधर-उधर के कार्यों में लगा रहता था पर, ‘कोरोना’ के बाद बीमार हुए माता-पिता का एक हफ्ते के भीतर ही देहांत हो जाने के कारण उस पर जैसे गाज गिरी।
इकलौता बेटा एकदम से मात्र ‘पापा’ बनकर रह गया था। परिवार के नाम पर उसके चाचा-चाची, जिनके कोई औलाद नहीं थी, उसकी भोली-सी बच्ची तथा उसकी सुशील एवं सुंदर पत्नी ही बची थी।
अभी वे लोग दान-पुण्य की तिथि की चर्चा कर ही रहे थे कि, दिल्ली से चाची की कॉल आई, जिसे सुनते ही वे तीनों दिल्ली के लिए निकल गए।
चाची ने फ़ोन पर बताया था-
“बेटा! पड़ोसियों ने चाचा को ‘मैक्स’ अस्पताल में एडमिट करवा दिया है। तुम लोग जल्दी आ जाओ, मैं बहुत डर रही हूॅं।”
वहाॅं पहुॅंचकर विजय ने सारा काम सॅंभाल लिया था। चाचा को हार्ट-अटैक आया था। पूरे १५ दिनों तक वे लोग वहीं रहे। उन लोगों की सेवा से जब चाचा एकदम ठीक हो गए, तब उसकी पत्नी ने चाची से धीरे से पूछा-
“छोटी मम्मी! यह पूरे नियम से पितरों को जल नहीं दे पाए थे, हम लोगों को पाप तो नहीं पड़ेगा ?”
चाची ने उसको गले लगाते हुए कहा-
“तुम दोनों की सेवा ने अपने बुज़ुर्ग चाचा का जीवन बचा लिया है बेटा! नहीं तो आज..।” कहते-कहते चाची की ऑंखें छलक पड़ीं।
“पुरखों का आशीर्वाद ही तो है, जो मेरा छोटा-सा परिवार आज भी संस्कारों से जुड़ा है!” आगे बोलते हुए चाची की आवाज़ थरथरा पड़ी।
“आपने मेरे मन की दुविधा समाप्त कर दी, छोटी मम्मी!” कहते हुए बहू उनके गले लग गई।