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हिन्दी वालों की हिन्दी वालों से हिन्दी के लिए लड़ाई

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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पूजनीय बड़े पिता जी और माता जी,आप लोग मुझे माफ कर देना। मैं आपका अच्छा बेटा नहीं बन पाया...मैं जा रहा हूँ। मैं जिन्दगी से परेशान हो गया हूँ। आप लोग मुझे माफ करना। राजीव के सुसाइड नोट का यह एक अंश है। ११ सितंबर २०२० को यूपीपीसीएससी का रिजल्ट आया। मेधावी छात्र राजीव पटेल को इस बार पूरी उम्मीद थी,किन्तु चयन नहीं हुआ। वह दिनभर परेशान था और १२ की रात को उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
कहा जा सकता है कि असफल होने पर विद्यार्थियों द्वारा इस तरह की आत्महत्याएं अब आम हो चुकी हैं,किन्तु राजीव की आत्महत्या इससे अलग थी। वह प्रतिभाशाली भी था और परिश्रमी भी।आत्महत्या के पीछे का कारण यह था कि उसने हिन्दी माध्यम से परीक्षा दी थी और आयोग द्वारा परीक्षा प्रणाली में किए गए बदलाव के कारण हिन्दी माध्यम इस वर्ष परीक्षार्थियों पर आफत का पहाड़ बनकर टूट पड़ा। यूपीपीएससी में जहाँ पहले अंग्रेजी माध्यम से परीक्षा देने वाले १०-१५ प्रतिशत प्रतिभागी सफल होते थे,वहां इस वर्ष नियमों में ऐसा परिवर्तन कर दिया गया कि चयनित अभ्यर्थियों में अंग्रेजी माध्यम वालों की संख्या लगभग दो तिहाई हो गई। ग्रामीण परिवेश के हिन्दी माध्यम वाले अभ्यर्थी औंधे मुँह गिर पड़े। कभी आईएएस-पीसीएस का हब कहे जाने वाले इलाहाबाद से अब इन सेवाओं में सफल होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या नगण्य होती है। हिन्दी माध्यम वालों को दिए जाने वाले प्रश्न-पत्र भी आमतौर पर अस्पष्ट तथा विवादों के घेरे में रहते हैं, क्योंकि वे मूलत: अंग्रेजी में तैयार किए गए प्रश्नों के अनुवाद होते हैं।
राजीव की आत्महत्या के बाद से हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाले अभ्यर्थी प्रयागराज की सड़कों पर हैं। वे अहिंसात्मक तरीके से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं,जुलूस निकाल रहे हैं,ताकि यूपीपीएससी के अध्यक्ष के दिल में हिन्दी के प्रति थोड़ी हमदर्दी पैदा हो सके,किन्तुअध्यक्ष पीड़ित छात्रों के दु:ख-दर्द को सुनने के लिए समय नहीं निकाल सके।
दरअसल,आज अंग्रेजी का जो वर्चस्व कायम है उसके लिए रास्ता साफ किया कांग्रेस सरकार ने। वैश्वीकरण के बाद १९९५ में होने वाले ‘गैट’ समझौते से अंग्रेजी का तेजी से बढ़ता हुआ दबाव महसूस किया गया। जब पश्चिम का माल आने लगा,पश्चिम की संस्कृति आने लगी तो पश्चिम की भाषा को भला कैसे रोका जा सकता था ? २००५ में मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने जो संस्तुति की,उससे अंग्रेजी के मार्ग का बचा-खुचा अवरोध भी हट गया। ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने ४० लाख नए अंग्रेजी शिक्षकों को नियुक्त करने और तत्कालीन मौजूद शिक्षकों को अंग्रेजी में प्रशिक्षित करने की सलाह दे डाली। ऐसा तो गुलामी के दौर में मैकाले भी नहीं कर सका था।
इन्हीं परिस्थितियों में भाजपा की राष्ट्रवादी सरकार ‘स्वदेशी’ का नारा देती हुई सत्ता में आई। इस सरकार से उम्मीद थी कि वह अंग्रेजी की आँधी को रोकेगी और भारतीय संस्कृति की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मानजनक स्थान बहाल करने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी,किन्तु इस सरकार ने जो किया वह सबसे बढ़कर था। इसने शिक्षा को पूरी तरह व्यापारियों के हवाले कर दिया और पिछली सरकारों ने जहाँ एक विषय के रूप में अंग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया था,इस सरकार ने अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम ही बना दिया।
मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ जी ने २०१७ में प्रदेश के ५ हजार प्राथमिक विद्यालयों को अंग्रेजी माध्यम में बदल दिया। निजी क्षेत्र के विद्यालय तो अंग्रेजी माध्यम के होते ही हैं,जो बचे-खुचे सरकारी विद्यालय हैं उनको भी अंग्रेजी माध्यम में बदल देने के पीछे का तर्क मेरी समझ में आज तक नहीं आया। जनता ने इसकी मांग की हो,इसके लिए कोई आन्दोलन किया हो,ऐसा भी सुनने में नहीं आया था। इतना बड़ा निर्णय लेने के पहले योगी आदित्यनाथ ने विशेषज्ञों की समिति बनाकर उनसे कोई सुझाव लेना या पूर्व में गठित आयोगों की सिफारिशों को देखना भी जरूरी नहीं समझा।
मुंशी प्रेमचंद द्वारा कहा गया एक प्रसंग याद आ रहा है-उन्होंने एक बार जौनपुर के एक मुस्लिम परिवार के बच्चों को थोड़ी अंग्रेजी पढ़ लेने की सलाह दी थी तो उस परिवार के मुखिया ने अंग्रेजी को ‘टर्र-टर्र की भाषा’ कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई थी और कहा था कि फारसी पढ़कर उनके घर के ३ लोग मुंसिफ हैं और आराम से बैठे- बैठे फैसले सुनाते हैं,फिर वे टर्र-टर्र की भाषा (अंग्रेजी के बहुत से शब्दों के साथ ‘टर’ जुड़ा है जैसे कलेक्टर,बैरिस्टर आदि) पढ़ने की जहमत क्यों उठाएं ? बचपन में भोजपुरी की एक कहावत भी सुनी थी-‘पढ़ें फारसी बेचें तेल,यह देखो किस्मत का खेल।’ यानी,उस जमाने में फारसी पढ़ने वाले को तेल बेचने की नौबत नहीं आ सकती थी। फारसी उन दिनों कचहरियों तथा सरकारी काम-काज की भाषा थी और उसका बहुत सम्मान था। उन दिनों जनतंत्र तो था नहीं,जनता के ऊपर फारसी लाद दी गई और पूरे ६०० साल तक फारसी हमारे देश पर शासन करती रही। ठीक वही स्थिति आज अंग्रेजी की है,यद्यपि आज हम एक जनतंत्र में रह रहे हैं।
आज यदि अभिभावक अंग्रेजी माध्यम की मांग कर भी रहे हैं तो उसका कारण स्पष्ट है। अंग्रेजी पढ़ने से नौकरियां मिलती हैं। जब चपरासी तक की नौकरियों में भी सरकार अंग्रेजी अनिवार्य करेगी तो अंग्रेजी की मांग बढ़ेगी ही। यह एक ऐसा मुल्क बन चुका है जहां का नागरिक चाहे देश की सभी भाषाओं में निष्णात हो,किन्तु एक विदेशी भाषा अंग्रेजी न जानता हो तो उसे इस देश में कोई नौकरी नहीं मिल सकती और चाहे वह इस देश की कोई भी भाषा न जानता हो और सिर्फ एक विदेशी भाषा अंग्रेजी जानता हो तो उसे इस देश की छोटी से लेकर बड़ी तक सभी नौकरियाँ मिल जाएंगी। छोटे पदों से लेकर यूपीएससी तक की सभी भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी का दबदबा है। वन सेवा,चिकित्सा सेवा,इंजीनियरिंग सेवा,रक्षा सेवा आदि में तो केवल अंग्रेजी में ही लिखने की अनिवार्यता है।
उच्चतम न्यायालय से लेकर देश के २५ में से २१ उच्च न्यायालयों में किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता है। यह ऐसा तथाकथित आजाद मुल्क है जहां के नागरिक को अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी वकील को पैसे देने पड़ते हैं। ऐसे माहौल में कोई अपने बच्चे को अंग्रेजी न पढ़ाने की भूल कैसे कर सकता है ?
दरअसल,अंग्रेजी इस देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। सुदूर गाँवों में दबी प्रतिभाओं(जिनमें ज्यादातर दलित और आदिवासी) को मुख्य धारा में शामिल होने से रोकने में अंग्रेजी सबसे बड़ा अवरोध बनकर खड़ी है। हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘द इंग्लिश मीडियम मिथ’ में संक्रान्त सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब, २०-२० देशों की सूची दी है। सबसे अमीर देशों के नाम हैं-स्विट्जरलैंड,डेनमार्क, जापान,अमेरिका और स्वीडेन आदि। इन सभी देशों में उन देशों की जनभाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है,और शिक्षा के माध्यम की भी। दुनिया के सबसे गरीब २० देशों में शामिल हैं-कांगो, इथियोपिया,बुरुंडी,सीरा लियोन,मालावी, निगेर व रवान्डा आदि। इनमें से सिर्फ एक देश नेपाल है जहां जनभाषा,शिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली। बाकी देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है। इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि अंग्रेजी माध्यम हमारे देश के विकास में कितनी बड़ी बाधा है।
वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले,किन्तु वह सोचता अपनी भाषा में ही है। हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनुदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में अनुवाद करना पड़ता है। इस तरह बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है,इसीलिए मौलिक चिन्तन नहीं हो पाता। मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है,पराई भाषा में हम सिर्फ नकलची पैदा कर सकते हैं। अंग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची पैदा कर रही है।
जब अंग्रेज नहीं आए थे और हम अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते थे तब हमने दुनिया को बुद्ध और महावीर दिए,वेद और उपनिषद दिए,दुनिया का सबसे पहला गणतंत्र दिया,पतंजलि जैसा योगाचार्य और कौटिल्य जैसा अर्थशास्त्री दिया,तानसेन जैसा संगीतज्ञ,तुलसीदास जैसा कवि और ताजमहल जैसी अजूबा इमारत दी। इस देश को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था,जिसके आकर्षण में ही दुनियाभर के लुटेरे यहां आते रहे। प्रस्तावित नई शिक्षा नीति में भी भारत के अतीत का गौरव-गान किया गया है और विश्व गुरु बनने का सपना देखा गया है,किन्तु इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया है कि भारत की उक्त समस्त उपलब्धियाँ अपनी भाषाओं में अध्ययन का परिणाम थीं। इसी तरह नीति में प्राचीन समृद्ध सभ्यताओं में भारत,मेसोपोटामिया,मिस्र,चीन और ग्रीस तथा आधुनिक सभ्यताओं में संयुक्त राज्य अमेरिका,जर्मनी,इजराइल,दक्षिण कोरिया और जापान को आदर्श के रूप में रेखांकित किया गया है। नीति निर्माताओं से पूछा जाना चाहिए कि क्या उपर्युक्त में से कोई भी देश ने पराई भाषा को अपने विद्यार्थियों की शिक्षा का माध्यम बनाया है ? या राज-काज का काम पराई भाषा में करता है?
हमारे प्रधानमंत्री ने जापान की तकनीक और कर्ज के बल पर जिस बुलेट ट्रेन की नींव रखी है,उस जापान की कुल आबादी सिर्फ १२ करोड़ है। फिर भी वहां सिर्फ भौतिकी में १३ नोबेल पुरस्कार पाने वाले वैज्ञानिक हैं। ऐसा इसलिए है कि वहां शत-प्रतिशत जनता अपनी भाषा ‘जापानी’ में ही शिक्षा ग्रहण करती है। इसी तरह जिस इजराइल के विकास पर वे मुग्ध हैं,उसकी कुल आबादी मात्र ८३ लाख है और वहां ११ नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हैं,क्योंकि वहां भी उनकी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ में शिक्षा दी जाती है।
हमारा पड़ोसी चीन उसी तरह का बहुभाषी विशाल देश है,जिस तरह का भारत,किन्तु उसने भी अपनी भाषा चीनी (मंदारिन) को प्रतिष्ठित किया और उसे वहां पढ़ाई का माध्यम बनाया। चीनी लिपि दुनिया की संभवत: सबसे कठिन लिपियों में से एक है। हमारे देश के अधिकाँश अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में बच्चों को अपने देश की राजभाषा हिन्दी या मातृभाषा बोलने पर दंडित किया जाता है और हमारी सरकारें कुछ नहीं बोलतीं। यह गुलामी नहीं तो क्या है ?
इससे ज्यादा आश्चर्य की बात क्या हो सकती है कि जिस राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० की भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही है,हिन्दी-हितैषी सरकार की उस नीति में हिन्दी का कहीं जिक्र तक नहीं है। यदि यह शिक्षा नीति लागू हो गई तो हिन्दी सिर्फ जनता के बोलचाल, गीत-गवनई और मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी।
आज जरूरत है सबके लिए समान,पूरी तरह मुफ्त और सबको अपनी मातृभाषाओं में गुणवत्ता युक्त शिक्षा की। संविधान का मूल संकल्प हमें ‘अवसर की समानता’ का अधिकार देता है। संविधान का अनुच्छेद ५१-ए भी देश के प्रत्येक नागरिक और बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देता है।
प्रश्न यह है कि आजादी की तीन चौथाई सदी बीत जाने के बाद भी सबको समान,मुफ्त और उनकी मातृभाषाओं में शिक्षा क्यों उपलब्ध नहीं कराई जा रही है ? यदि सरकार चाहे तो यह सिर्फ ४-५ वर्षों में संभव है। केन्द्रीय विद्यालयों जैसे विद्यालय देश के सभी हिस्सों में आवश्यकतानुसार क्यों नहीं बन सकते ?
आज देश का हर नागरिक अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करता है। यदि सरकार खुद बेहतर और सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराती है तो जनता उसके लिए कुछ अधिक कर देकर भी बहुत अधिक लाभ में रहेगी,क्योंकि शिक्षा के नाम पर निजी शिक्षण संस्थाओं की लूट से वह मुक्त हो जाएगी।
१८ अगस्त २०१५ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले में आदेश दिया था कि राजकीय कोष से वेतन पाने वाले सभी नौकरशाहों,सरकारी कर्मचारियों,जन प्रतिनिधियों आदि के बच्चों कों सरकारी विद्यालयों में ही शिक्षा दी जाए। यदि ऐसा हो सके तो देश की शिक्षा व्यवस्था का काया कल्प होने में समय नहीं लगेगा। कल्पना करें कि जिस प्राथमिक विद्यालय में जिले के जिलाधिकारी का बच्चा पढ़ेगा उसमें क्या संसाधनों का अभाव रह पाएगा ? उक्त फैसला जहां देशभर में लागू होना चाहिए था, वहां अपने प्रदेश में ही उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
अंग्रेजी के महत्व को भला कैसे अस्वीकार किया जा सकता है ?,किन्तु हमें कितनी अंग्रेजी चाहिए ? क्या हमारे दैनिक जीवन का अंग्रेजी में चलना हमारे और देश के हित में है ? एक विषय के रूप में अंग्रेजी की शिक्षा देना बुरा नहीं है,किन्तु बचपन में ही शिक्षा के माध्यम के रूप में बच्चों पर अंग्रेजी थोप देना और उनकी अपनी भाषाएं छीन लेना भीषण क्रूरता और अपराध है। इसके लिए भविष्य हमें कभी माफ नहीं करेगा।
दरअसल स्वदेशी,स्वभाषा,भारतीयता, राष्ट्रवाद आदि अपने सिद्धांतों के विरुद्ध सरकार हमारे बच्चों पर पराई भाषा अंग्रेजी इसलिए थोप रही है क्योंकि आज सरकार ही नहीं,किसी भी बड़े राजनीतिक दल के सामने मुख्य प्रश्न देश के विकास का नहीं है, संस्कृति का भी नहीं है,उनके सामने मुख्य प्रश्न कुर्सी का है और कुर्सी के लिए होने वाले चुनाव में खर्च,चंदा,कमीशन,रिश्वत आदि सब-कुछ तो उद्योगपति ही देते हैं और इसमें सहयोग मिलता है नौकरशाही का। इसीलिए उद्योगपतियों और नौकरशाहों के हित को ध्यान में रखकर ही कायदे-कानून बन रहे हैं। २०११ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में अंग्रेजी भाषियों की संख्या .०२ प्रतिशत है,यानी इस देश पर .०२ प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वाले लोग ९९.०८ प्रतिशत भारतीय भाषाएं बोलने वालों पर अंग्रेजी रूपी विलायती हथियार के बल पर शासन कर रहे हैं।
वैसे भी आज सुसंस्कृत मनुष्य अथवा मौलिक चिन्तन करने वाले विद्वान या वैज्ञानिक तैयार करना अब नेताओं को अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा लग रहा है। अकारण नहीं है कि आज बुद्धिजीवी ही सर्वाधिक निशाने पर हैं|

(सौजन्य:वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)

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