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फ्रांसीसी इस्लाम ने मचाया हड़कम्प

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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फ्रांस की संसद ने ऐसा कानून पारित कर दिया है, जिसे लेकर इस्लामी जगत में खलबली मच गई है। कई मुस्लिम राष्ट्रों के राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री तथा मुल्ला-मौलवी उसके खिलाफ अभियान चलाने लगे हैं। उन्होंने फ्रांस के विरुद्ध तरह-तरह के प्रतिबंधों की घोषणा कर दी है। सबसे पहले यह जानें कि यह कानून क्या है और इसे क्यों लगाया गया है ?
इस सख्त कानून को लाने का उद्दीपक कारण वह घटना है,जो पिछले साल अक्टूबर में फ्रांस में घटी थी। सेमुअल पेटी नामक फ्रांसीसी अध्यापक की हत्या अब्दुल्ला अजारोव ने इसलिए कर दी थी कि उसने अपनी कक्षा में पैगंबर मुहम्मद के कार्टून दिखा दिए थे। वह छात्रों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पाठ पढ़ा रहा था। फ्रांसीसी पुलिस ने अब्दुल्ला की भी हत्या कर दी थी। अब्दुल्ला के माता-पिता रूस के मुस्लिम-बहुल प्रांत चेचन्या से आकर फ्रांस में बसे थे। इस घटना ने पूरे यूरोप को प्रकंपित और क्रोधित कर दिया था। इसके पहले २०१५ में ‘चार्ली हेब्दो’ नामक पत्रिका पर इस्लामी आतंकवादियों ने हमला बोलकर १२ फ्रांसीसी पत्रकारों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसी खूनी घटनाओं के पक्ष-विपक्ष में होनेवाले कई प्रदर्शनों में दर्जनों लोग मारे गए और भारी तोड़-फोड़ भी हुई। इसी कारण फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मेक्रों यह सख्त कानून लाने के लिए मजबूर हुए। राष्ट्रपति मेक्रों ने सारे यूरोप के क्रोध को अब कानूनी रूप दे दिया है और फ्रांसीसी संसद के निम्न सदन ने स्पष्ट बहुमत से उस पर मुहर लगा दी है।
इस कानून में कहीं भी इस्लाम शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। कानून को ‘अलगाववाद-विरोधी कानून’ नाम दिया गया है। इसमें सिर्फ धार्मिक या मजहबी कट्टरवाद की भर्त्सना है,किसी इस्लाम या ईसाइयत की नहीं। कानून में फ्रांसीसी ‘लायसीती’ याने पंथ-निरपेक्षता के सिद्धांत पर जोर दिया गया है। यह सिद्धांत १९०५ में कानून के रूप में इसलिए स्वीकार किया गया था कि सरकार को चर्च के ईसाई कट्टरवाद और दादागीरी को खत्म करना था। इसी कानून के चलते सरकारी विद्यालयों में किसी छात्र-छात्रा और अध्यापक को ईसाइयों का क्रॉस, यहूदियों का यामुका (टोपी) या इस्लामी हिजाब आदि पहनने पर पाबंदी लगा दी गई थी। मजहबी छुट्टियां भी रद्द कर दी गई थीं।
वर्तमान कानून लंबी बहस और सैकड़ों संशोधनों के बाद पारित हुआ है। यह नए फ्रांसीसी इस्लाम की स्थापना कर रहा है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य फ्रांस के मुसलमानों को यह समझाना है कि तुम सबसे पहले फ्रांस के नागरिक हो। अफ्रीकी,अरब, तुर्क,ईरानी या मुसलमान बाद में। यदि तुम्हें फ्रांस का नागरिक बनकर रहना है तो पहले तुम अलगाववाद छोड़ो और पहले फ्रांसीसी बनो। ७ करोड़ के फ्रांस में इस समय लगभग ६० लाख मुसलमान हैं,जो अफ्रीका और एशिया के मुस्लिम देशों से आकर वहां बस गए हैं। उनमें से ज्यादातर फ्रांसीसी रीति-रिवाजों को भरसक आत्मसात कर चुके हैं,लेकिन ज्यादातर मुस्लिम नौजवान वर्तमान कानून के भी कट्टर विरोधी हैं।
इस कानून में कहीं भी इस्लाम के मूल सिद्धांतों की आलोचना नहीं की गई है,लेकिन कई अरबी रीति-रिवाजों का विरोध किया गया है। जैसे कोई भी औरत हिजाब या नक़ाब आदि पहनकर सावर्जनिक स्थानों पर नहीं जा सकती है। क्राॅस,यामुका और हिजाब सरकारी दफ्तरों और विश्वविद्यालयों में भी नहीं पहने जा सकते हैं। पहले उन पर सिर्फ शालाओं में प्रतिबंध था। मुसलमान लड़कियों को शादी के पहले अक्षतयोनि होने का जो
चिकित्सकीय प्रमाण-पत्र देना होता था,वह नहीं देना पड़ेगा। एक से ज्यादा औरतों से शादी करने पर १३ लाख रू जुर्माना होगा। यदि कोई व्यक्ति किसी को मजहब के नाम पर डराता है या धमकी देता है तो उसे ६५ लाख रु. का जुर्माना देना होगा। किसी भी सरकारी कर्मचारी या सांसद के विरूद्ध किसी को यदि कोई मजहबी आधार पर भड़काता है तो उसे सख्त सजा मिलेगी। इस्लामी मदरसों में बच्चों को क्या पढ़ाया जाता है,सरकार इस पर भी नजर रखेगी। ३ साल की उम्र के बाद बच्चों को शालाओं में दाखिल दिलाना जरूरी होगा। मस्जिदों को मिलनेवाले विदेशी पैसों पर सरकार कड़ी नजर रखेगी। खेल-कूद के क्षेत्र,जैसे-स्विमिंग पूल वगैरह आदमी और औरतों के लिए अलग-अलग नहीं होंगे। इस तरह के कई प्रावधान इस कानून में हैं, जो फ्रांस के सभी नागरिकों पर एक समान लागू होंगे,वे चाहें मुसलमान हों,ईसाई हों,यहूदी हों या हिंदू हों।
फ्रांस और यूरोप के कई गोरे संगठन और राजनेता भी इस कानून के इन प्रावधानों को बेहद नरम और निरर्थक मानते हैं। वे मुसलमानों को रोजगार देने और मदरसों के चलते रहने के विरोधी हैं। वे मस्जिदों पर ताले ठुकवाना चाहते हैं। वे धर्म-परिवर्तन के खिलाफ हैं। वे इस्लाम,कुरान और पैगंबर मुहम्मद की वैसी ही कड़ी आलोचना करते हैं,जैसे वे ईसा,मूसा तथा बाइबिल की करते हैं, लेकिन यूरोपीय लोग यह ध्यान क्यों न रखें कि वे जिन बातों को पसंद नहीं करते हैं,उन्हें न करें,पर व्यर्थ कटु निंदा करके वे दूसरों का दिल क्यों दुखाएं ? इसी तरह दुनिया के मुसलमानों को भी सोचना चाहिए कि इस्लाम क्या छुई-मुई का पौधा है,जो किसी का चित्र छाप देने या किसी पर व्यंग्य कस देने से मुरझा जाएगा ? वे इस्लाम की उस क्रांतिकारी भूमिका पर गर्व करें,जिसने अरबों की जहालत को मिटाने में अदभुत योगदान किया है।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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