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‘गुलाबो-सिताबो’ हल्की-फुल्की मनोरंजक फ़िल्म

इदरीस खत्री
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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निर्देशक-सुजीत सरकार की इस फिल्म में अदाकार-अमिताभ बच्चन,आयुष्मान खुराना, विजय राज,बृजेन्द्र काले हैं। संगीत-शांतनु मोइत्रा का एवं फिल्म की अवधि १२४ मिनट है।
दोस्तों, ‘तालाबंदी’ के चलते फिल्मों के प्रदर्शन पर रोक लगी हुई है,सिनेमा घर बन्द पड़े हैं,तो फ़िल्म ‘गुलाबो सिताबो’ इंटरनेट इस्ट्रिमिंग मीडिया प्लेटफार्म पर प्रदर्शित हुई,जिसके अधिकार एमेजन ने ६५ करोड़ में खरीदे हैं। यह पहली बड़ी फिल्म है,जो इस प्लेटफार्म पर प्रदर्शित हुई है।

पहले एक चर्चा-

कठपुतलियों के खेल में झगड़ा दो कठपुतलियों का होता है,लेकिन मनोरंजन दर्शकों का होता है। मकान मालिक और किराएदार के रिश्तों में कभी खटास तो कभी मिठास चलती ही रहती है,लेकिन जब बुराई की दीवार खड़ी होती है तो खटास ही खटास बाहर आती है। बेहद मार्मिक विषय है
‘विनाश काले विपरीत बुद्धि।’

अब फ़िल्म की बात-

अब फिल्म पर आते हैं तो शुरूआत दो कठपुतलियों के लड़ाई-झगड़े से शुरू होती है। यानी सुजीत ने पहले दृश्य में ही सांकेतिक रूप में यह बता दिया कि आगे क्या देखने वाले हैं। लखनऊ में कहीं पर एक पुरानी खंडहरनुमा हवेली है फातिमा महल, जिसकी मालकिन मिर्ज़ा की बेगम (फारूक जाफर) है। जिसे यह हवेली पैतृक प्राप्त हुई थी,उनके शौहर उनसे १७ साल छोटे मिर्ज़ा (अमिताभ)हैं। मिर्ज़ा उमरदराज हो चले हैं। अब यहां हवेली में कुछ किराएदार भी हैं,जो नाममात्र का किराया चुका कर जमे हुए हैं, बस इसी वजह से इन किराएदारों और मिर्ज़ा में नोंक-झोंक चलती रहती है। किराएदारों में एक बाँके शुक्ला(आयुषमान) भी अपनी बहनों के साथ रहते हैं,बस यही महीन पंक्ति फ़िल्म की कहानी है। मिर्ज़ा और बाँके की नोंक-झोंक चला करती है। मिर्ज़ा बेहद कंजूस शख्स है,वह अपनी हवेली में कोई खर्च नहीं करते हैं। पुरातत्व विभाग के अफसर ज्ञानेश शुक्ला(विजयराज) इस हवेली को पुरातत्व विभाग के लिए चाहते हैं, इधर बाँके ये समझते हैं कि शुक्ला जी किराएदारों की मदद करेंगे हवेली की मरम्मत में। फिर मिर्ज़ा हवेली अपने नाम करवाने के लिए एक वकील क्रिस्टोफर (बृजेंद्र काला) से मिलते हैं। मिर्ज़ा हवेली बेचना चाहते हैं,उधर शुक्ला चाहते हैं कि उन्हें कोई बेहतर जगह रहने के लिए मिले।
बाँके की प्रेमिका फौजिया(पूर्णिमा शर्मा)भी आती है,लेकिन उसका आना-जाना कब खत्म हो जाता है,पता ही नही पड़ता।
मिर्जा हवेली बेच पाते हैं,या किराएदार नई जगह बस पाते हैं,या हवेली की मरम्मत हो पाती है ?? यह पता करने के लिए फ़िल्म देखी जा सकती है। हल्के-फुल्के नोंक-झोंक वाले दृश्य कई बार मज़ेदार के साथ मनोरंजक भी बन गए हैं। सृष्टि श्रीवास्तव, पूर्णिमा शर्मा ने छोटे-छोटे किरदारों को जीवंत बनाया है।

कहानी के चयन में चूक-

निर्देशक सुजीत सरकार ने ‘विकी डोनर’, ‘पीकू’ बनाई है,जो उम्दा फिल्में थी,लेकिन इस बार वह कहानी के चयन में चूक कर गए हैं। कहानी महज़ दो पंक्ति में खत्म हो जाती।

पटकथा,पकड़ नहीं-

जूही चतुर्वेदी ने कहानी,पटकथा,संवाद लिखे हैं। यह परिस्थितिजन्य है लेकिन जब कहानी सुस्त हो तो पटकथा उसे बांधने में असफल-सी लगती है। कुछ-कुछ संवाद गुदगुदाते भी हैं,पर फ़िल्म पकड़ नहीं बना पाती है। फ़िल्म की कहानी महीन डोर से बंधी है और फ़िल्म हल्का-फुल्का मनोरंजन ज़रूर करती है, लेकिन सुस्त रफ्तार से। आखरी ३० मिनट फ़िल्म रफ्तार भी पकड़ती है,पर दर्शक की पकड़ तब तक छूट चुकी होती है।

अदाकारी-

अमिताभ बच्चन जो करते हैं,लाजवाब करते हैं। इस किरदार से भी पूरा न्याय किया है। आंगिक-वाचिक अभिनय पर अमिताभ को पूरे अंक जाएंगे,लेकिन इस बार यह गच्चा खा गए हैं। आयुष्मान ने भी पिछले २ साल में ४ फिल्में १०० करोड़ क्लब में दी है,पर इस बार वह भी चूक गए हैं। विजय राज हमेशा की तरह सदाबहार अभिनेता हैं,उन्हें जब देखो वह नए लगते हैं। बृजेन्द्र काला भी चरित्र अभिनेताओं में किरदार के साथ न्याय करते हैं। फारूक जाफर ने भी किरदार को ईमानदारी से निभाया है।

सजावट-

अमिताभ का रुप(सजावट) प्रिय कार्नेलिया ने शानदार दिया है।

गीत-संगीत-

महज़ एक गाना है,जो बेक ग्राउंड में अलग-अलह स्थिति पर आता रहता है। पार्श्व संगीत उतना ही है,जितना जरूरी होना चाहिए। फ़िल्म में ३ संगीतकार- शांतनु मोइत्रा,अभिषेक,अनुज हैं,तो गाना भी ३ लोगों ने लिखा है-पुनीत शर्मा,दिनेश पंत,विनोद दुबे।

छायांकन सुंदर-

अविक मखोपाध्याय ने लखनऊ का चित्रण सुंदर ठंग से किया है। कहानी के हिसाब से उन्हें ज्यादा रचनात्मकता का अवसर फ़िल्म नहीं देती,फिर भी उन्होंने काम सुंदर किया है। ऐसे ही प्रदीप जाधव का कला निर्देशन भी सटीक है।

अंत में-

फ़िल्म मनोरंजक तो नहीं,लेकिन हल्की-फुल्की साधारण बन गई है। एक बात और फ़िल्म पारिवारिक है,पूरे परिवार के साथ देखी जा सकती है। इसे ३ सितारे देना तर्कसंगत रहेगा।

परिचय : इंदौर शहर के अभिनय जगत में १९९३ से सतत रंगकर्म में इदरीस खत्री सक्रिय हैं,इसलिए किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। परिचय यही है कि,इन्होंने लगभग १३० नाटक और १००० से ज्यादा शो में काम किया है। देअविवि के नाट्य दल को बतौर निर्देशक ११ बार राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व नाट्य निर्देशक के रूप में देने के साथ ही लगभग ३५ कार्यशालाएं,१० लघु फिल्म और ३ हिन्दी फीचर फिल्म भी इनके खाते में है। आपने एलएलएम सहित एमबीए भी किया है। आप इसी शहर में ही रहकर अभिनय अकादमी संचालित करते हैं,जहाँ प्रशिक्षण देते हैं। करीब दस साल से एक नाट्य समूह में मुम्बई,गोवा और इंदौर में अभिनय अकादमी में लगातार अभिनय प्रशिक्षण दे रहे श्री खत्री धारावाहिकों और फिल्म लेखन में सतत कार्यरत हैं। फिलहाल श्री खत्री मुम्बई के एक प्रोडक्शन हाउस में अभिनय प्रशिक्षक हैंl आप टीवी धारावाहिकों तथा फ़िल्म लेखन में सक्रिय हैंl १९ लघु फिल्मों में अभिनय कर चुके श्री खत्री का निवास इसी शहर में हैl आप वर्तमान में एक दैनिक समाचार-पत्र एवं पोर्टल में फ़िल्म सम्पादक के रूप में कार्यरत हैंl

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