कुल पृष्ठ दर्शन : 214

हिंदी:अंग्रेजी भाषा का नहीं-वर्चस्व का विरोध जरुरी

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
**************************************************************

आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। द्रमुक की नेता कनिमोझी ने मांग की है कि,सरकार उन्हें तुरंत मुअत्तिल करे,क्योंकि उन्होंने कहा था कि जो उनका भाषण हिंदी में नहीं सुनना चाहे,वह बाहर चला जाए। वे देश के आयुर्वेदिक वैद्यों और प्राकृतिक चिकित्सकों को संबोधित कर रहे थे। इस सरकारी कार्यक्रम में विभिन्न राज्यों के ३०० लोग भाग ले रहे थे। उनमें ४० तमिलनाडु से थे। जाहिर है कि तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी आंदोलन इतने लंबे अर्से से चला आ रहा है कि तमिल लोग दूसरे प्रांतों के लोगों के मुकाबले हिंदी कम समझते हैं। यदि वे समझते हैं तो भी वे नहीं समझने का दिखावा करते हैं। ऐसे में क्या करना चाहिए ? कोटेचा को चाहिए था कि वे वहां किसी अनुवादक को अपने पास बिठा लेते। वह तमिल में अनुवाद करता चलता,जैसा संसद में होता है। दूसरा रास्ता यह था कि वे संक्षेप में अपनी बात अंग्रेजी में भी कह देते,लेकिन उनका यह कहना कि जो उनका हिंदी भाषण नहीं सुनना चाहे,वह बाहर चला जाए,उचित नहीं है। यह सरकारी नीति के तो विरुद्ध है ही,मानवीय दृष्टि से भी ठीक नहीं है। महात्मा गांधी और डाॅ. राम मनोहर लोहिया अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के प्रणेता थे,लेकिन गांधी जी और लोहिया जी क्रमशः ‘यंग इंडिया’ और ‘मेनकांइड’ पत्रिका अंग्रेजी में निकालते थे। उनके बाद इस आंदोलन को देश में मैंने चलाया,लेकिन जवाहरलाल नेहरु विवि और दिल्ली में विवि में जब व्याख्यान देता था तो मेरे कई विदेशी और तमिल छात्रों के लिए मुझे अंग्रेजी ही नहीं,रुसी और फारसी भाषा में भी बोलना पड़ता था। हमें अंग्रेजी भाषा का नहीं,उसके वर्चस्व का विरोध करना है। राजेश कोटेचा का हिंदी में बोलना इसलिए ठीक मालूम पड़ता है कि,देश के ज्यादातर वैद्य हिंदी और संस्कृत भाषा समझते हैं लेकिन तमिल भाषियों के प्रति उनका रवैया थोड़ा व्यावहारिक होता तो बेहतर रहता। उनका यह कहना भी सही हो सकता है कि कुछ हुड़दंगियों ने फिजूल ही माहौल बिगाड़ने का काम किया,लेकिन सरकारी अफसरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपनी मर्यादा का ध्यान रखें। यों भी कनिमोझी और तमिल वैद्यों को यह तो पता होगा कि कोटेचा हिंदीभाषी नहीं हैं। उन्हीं की तरह वे अहिंदीभाषी गुजराती हैं। उनको मुअत्तिल करने की मांग बिल्कुल बेतुकी है। यदि उनकी इस मांग को मान लिया जाए,तो देश में पता नहीं किस-किस को मुअत्तिल होना पड़ेगा। कोटेचा ने कहा था कि मैं अंग्रेजी बढ़िया नहीं बोल पाता हूँ, इसलिए मैं हिंदी में बोलूंगा। जब तक देश में अंग्रेजी की गुलामी जारी रहेगी,मुट्ठीभर भद्रलोक भारतीय भाषा-भाषियों को इसी तरह तंग करते रहेंगे। कनिमोझी जैसी महिला नेताओं को चाहिए कि वे रामास्वामी नाइकर,अन्नादुराई और करुणानिधि से थोड़ा आगे का रास्ता पकड़ें। तमिल को जरुर आगे बढ़ाएं,लेकिन अंग्रेजी के माया-मोह से मुक्त हो जाएं।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

Leave a Reply