नरेंद्र श्रीवास्तव
गाडरवारा( मध्यप्रदेश)
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सदी बीस के जाते ही ये,
दुनिया कितनी बदल रही है।
कहीं सख्त लोहे के जैसी,
कहीं मोम-सी पिघल रही हैll
सूख गईं कलकल नदियां तो,
गिट्टी,मिट्टी,रेत उठा ली।
कोमल दिल वालों की नियत,
हाय! कितनी बदल रही हैll
साड़ी का पहनावा छूटा,
माथे की बिंदिया भी छूटी।
जींस और टॉप पहनकर,
फैशन कितनी उछल रही हैll
कदम-कदम पर लूटामारी,
छीना-झपटी,छल पसरा है।
नेक दिलों के अन्तस्तल में,
पीड़ा कितनी उबल रही हैll
महंगाई के इस दौर में,
सस्ते बस हुए हैं हम ही।
पुल,पुलिया या सड़क,इमारत,
भ्रष्टाचार से खिसल रही हैंll
सड़कों पर चलना है मुश्किल,
दुर्घटना पर दुर्घटनाएं।
बिन नम्बर के वाहन दौड़ें,
सारी हेकड़ी निकल रही हैll
कहीं बड़ी कॉलोनी बन गईं,
कहीं मिलें तैयार खड़ी हैं।
हाल हुआ बेहाल खेत का,
जिसमें अच्छी फसल रही हैll
अपराधों का फैला जाल है,
अपराधी बेखौफ़ घूमते।
कड़ा नहीं,कानून नरम है,
आँगन सजा टहल रही हैll
नवयुवकों का नवयुग आया,
बात कहीं छोटी दिखती है।
खुशहाली भी रहे वहाँ पर,
जहाँ सयानों की पहल रही हैll
अजब-गजब ये जुबां दिखाए,
जिस दल में तारीफें उसकी।
पर दूजे दल के विरोध में,
आग भयंकर उगल रही हैll
गंगा,यमुना,नर्मदा का जल,
हो रहा है बहुत प्रदूषित।
ये माँ हैं,इनकी आँखों से,
अश्रु धारा निकल रही हैll
ऑफिस की गरिमा छूटी,
ठेके पर सब काम शुरू हैं।
खुलेआम कमीशन खोरी,
गुणवत्ता को निगल रही हैll
देश हमारा जान से प्यारा,
आपस में हम भाई-भाई।
पर,रहने देते नहीं प्रेम से,
राजनीति की दखल रही हैll
खूब बहा है खून जमीं पर,
अब हिंसा की राहें छोड़ो।
आओ मिल-जुलकर के बैठें,
अपनी तबीयत मचल रही हैll