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मैं धीरज की धरती हूँ

नमिता घोष
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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महिला दिवस स्पर्धा विशेष……

मैं धीरज की धरती हूँ,
लाख-लाख लाल अंकुरों की माता हूँ
मैं आकाश से उतरे हजार-हजार,
सुर्ख पक्षियों की कोख हूँ।

‘तुम केन्द्र,मैं धुरी हूँ’,
मैं वे सब मिन्नतें हूँ जिसको मांगते-मांगते,
उम्र के जलते पत्थरों पर पैर रखे,
पर देवता थे कि नहीं उठे।

मैं धूल-सी धरती पर जमते जाती हूँ,
मैं धरती नहीं,पूरी धरती समाए रहती है मुझमें
पर,यह नहीं होती मेरे लिए,
पत्थर बनने तक कोई तो मौसम इसे किसी सूरत में बदले।

कोई टाँके तो नहीं सिलाई के,
जिन्हें उधेड़ डालूँ,
रिश्ते सिए तो नहीं जाते कपड़ों से,
जिन्हें फाड़ डालूँ…
जिन्दगी धागों के आगे भी है-सिलाई जिनकी नहीं होती
रिश्तों के आगे भी होते है संबंध,
बुनाई जिनकी नहीं होती।

फिर भी सब कुछ होता है,
धरती की धुरी पर रह कर
इस छोर से उस छोर तक मैं दौड़ रही हूँ।
मेरी शताब्दी व्यापी मुट्ठी भर सवाल लिए-
अपना वजूद अपना अस्तित्त्व,
अपने प्रश्नों का जवाब…॥

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