हीरा सिंह चाहिल ‘बिल्ले’
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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हर दौर बदल कर भी जीवन न मिटा पाया।
कोरोना भला कैसे ये ख्वाब सजा लाया।
जीवन का विरोधी बन खुद मिटने चला आया,
कुदरत के करिश्मे ये पहचान नहीं पाया।
हर दौर बदल कर भी…
जीवन तो सभी का इक ख्वाहिश का सिला होता,
हिम्मत है खुदी इसकी जिस पर ये टिका होता।
जीवन पे खुदी का है कुदरत ने किया साया,
कुदरत के करिश्मे ये पहचान नहीं पाया।
हर दौर बदल कर भी…
सुख-दुख तो है परछाई हर एक ही जीवन की,
दस्तूर निभा कर ही कटती है उमर मन की।
मन को ही मिटाने ये कोरोना चला आया,
कुदरत के करिश्मे ये पहचान नहीं पाया।
हर दौर बदल कर भी…
भय हो तो रहा लेकिन विश्वास भी है मन को,
जीवन ही मिटा सकता है सृष्टि से जीवन को।
इक अंग बना कर है इस सृष्टि का भिजवाया,
कुदरत के करिश्मे ये पहचान नहीं पाया।
हर दौर बदल कर भी…॥
परिचय-हीरा सिंह चाहिल का उपनाम ‘बिल्ले’ है। जन्म तारीख-१५ फरवरी १९५५ तथा जन्म स्थान-कोतमा जिला- शहडोल (वर्तमान-अनूपपुर म.प्र.)है। वर्तमान एवं स्थाई पता तिफरा,बिलासपुर (छत्तीसगढ़)है। हिन्दी,अँग्रेजी,पंजाबी और बंगाली भाषा का ज्ञान रखने वाले श्री चाहिल की शिक्षा-हायर सेकंडरी और विद्युत में डिप्लोमा है। आपका कार्यक्षेत्र- छत्तीसगढ़ और म.प्र. है। सामाजिक गतिविधि में व्यावहारिक मेल-जोल को प्रमुखता देने वाले बिल्ले की लेखन विधा-गीत,ग़ज़ल और लेख होने के साथ ही अभ्यासरत हैं। लिखने का उद्देश्य-रुचि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-कवि नीरज हैं। प्रेरणापुंज-धर्मपत्नी श्रीमती शोभा चाहिल हैं। इनकी विशेषज्ञता-खेलकूद (फुटबॉल,वालीबाल,लान टेनिस)में है।