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महाराणा प्रताप-सा ही दृढ़प्रतिज्ञ बनने की आवश्यकता

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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‘महाराणा प्रताप और शौर्य’ स्पर्धा विशेष……….

अभी `कोरोना` महामारी से बचने के लिए चौथी `तालाबन्दी` अवधि चल रही है,पर कोरोना का भय लोगों का पीछा नहीं छोड़ रहा है। एक नया नारा लोगों के सामने आया है कि ‘कोरोना संग जीना सीखो!’ शरू-शुरू में जानकारी की कमी से मन में भय अधिक व्याप्त रह रहा था पर,अब जानकारी बढ़ जाने से यह एक सामान्य बात लगने लगी हैl कहा भी गया है:

‘तावद्भयस्य भेतव्यं यावतद्भयमनागतम्।
आगतन्तु भयं वीक्ष्य नर: कुर्य्यात् यथोचितम्ll’
हितोपदेशे मित्रलाभ:ll५७
अत: जब कोरोना आ ही गया है,तो उससे लड़ने-भिड़ने के लिए,बचने के लिए यथोचित कार्य(उपाय)करना ही चाहिएl आज जानलेवा बीमारी की गिनती में तपेदिक, मलेरिया,कैंसर आदि को हम गिनते हैं,तो उससे बचने के लिए,जान छुड़ाने के लिए गहन चिकित्सा तो कराते ही हैं,और बहुत हद तक बच भी जाते हैं;उसी तरह जब कोरोना का सामना हो ही गया तो जो भी लक्षण के अनुसार चिकित्सा या उससे बचाव का सुझाव है,उसे निर्भय होकर अपनाना चाहिएl तब मन में भय समाने का एक कारण यह भी है कि,इसकी कोई खास चिकित्सा नहीं है और लक्षण के अनुसार चिकित्सा का ही अभी विधान है, पर इससे भी मृत्यु तो होती ही है,लेकिन इसकी दर अभी कम है। आज की ही स्थिति लें तो विश्व के पैमाने पर यह ६.५२ प्रतिशत है तो भारत में ३.१३l बिहार में तो मात्र ०.६५ प्रतिशत हैl

मृत्यु तो हर समय होती रहती है,लेकिन कोरोना से हुई मृत्यु की भयावहता सबको अंदर से हिला देती है,क्योंकि इसका टीका-इलाज अभी नहींं निकला है. जो भी इलाज है,वह लक्षणों को नियंत्रित करने का है और शरीर की रोग निरोधक क्षमता को बढ़ाने का है;इसीलिए अधिक उम्र के लोग कभी-कभी इससे पार नहीं पा सकते हैंl आज `कोरोना` जैसी महामारी से लड़ने के लिए महाराणा प्रताप-सा ही योद्धा और दृढ़प्रतिज्ञ बनने की आवश्यकता है,ताकि हम उस पर विजय पा सकेंl बचपन में भी महाराणा प्रताप का का नाम सुनकर बचपन से ही सर ऊंचा हो जाता था। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ़ प्रतिज्ञा के लिए अमर है। उनके शौर्य की कहानियां विस्मयकारी हैं। ५० वर्षोँ का उनका जीवन संघर्ष का रहा और उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं,एवं मुगलों को कई बार युद्ध में हराया भी। सुंगा पहाड़ पर बावड़ी का निर्माण कराया और सुंदर बगीचा लगवाया। अंतिम बारह वर्षों में सुशासन स्थापित करते हुए प्रजा को उन्नत जीवन दिया। अपने राज्य की स्वतंत्रता,कुल-समाज की मर्यादा के मामले में हथियार नहीं डाला! उनका जीवन ही हमें सिखाता है कि हर हाल में मुसीबत का सामना करो और जीवन में प्रगति लाने के लिए तत्संबंधी विकास कार्य भी करते रहोl इसीलिए,अब हमें अपनी मनमर्जी संग जीना नहीं,वरन्,लड़ते हुए `कोरोना संग जीना होगाl`

`सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्!`
अर्थात्-
‘सभी सुखी हों,सभी रोगमुक्त रहें,सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें,किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।’

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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