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नई शिक्षा नीति के चक्रव्यूह में हिन्दी

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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चकित हूँ यह देखकर कि,राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० में संघ की राजभाषा या राष्ट्रभाषा का कहीं कोई जिक्र तक नहीं है। पिछली सरकारों द्वारा हिन्दी की लगातार की जा रही उपेक्षा के बावजूद २०११ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश की ५३ करोड़ आबादी हिन्दी भाषी है,दूसरी ओर अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या २.६० यानी मात्र .०२ प्रतिशत है। यानी,देश के ९९.०८ प्रतिशत भारतीय भाषाएं बोलने वालों पर .०२ प्रतिशत लोग शासन कर रहे हैं,और उनमें भी लगभग आधे लोग सिर्फ एक भाषा बोलते हैं जिसे हमारा संविधान राजभाषा कहता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अध्याय ४.११ के अनुसार-“जहाँ तक संभव हो,कम से कम ग्रेड-५ तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड-८ और उससे आगे तक भी हो,शिक्षा का माध्यम,घर की भाषा- मातृभाषा-स्थानीय भाषा-क्षेत्रीय भाषा होगी। इसके बाद घर-स्थानीय भाषा को जहां भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा। सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के विद्यालय इसकी अनुपालना करेंगे।”
यहाँ चिन्ताजनक दो बातें हैं-पहली, ग्रेड-५ या अधिक से अधिक ८ तक शिक्षा के माध्यम के रूप में घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा लागू करने का प्रस्ताव। अब यदि इसी आलोक में हम हिन्दी क्षेत्र के किसी हिस्से को ले लें,मसलन यदि हमें बिहार के छपरा जिले के किसी गाँव में स्थित शाला की शिक्षा के माध्यम-भाषा का चुनाव करना हो तो गंभीर धर्मसंकट खड़ा हो जाएगा। किसी निर्णय पर पहुंचना बहुत कठिन होगा,क्योंकि वहाँ घर की भाषा या मातृभाषा या स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा निर्विवाद रूप से भोजपुरी कही जाएगी। दूसरी ओर इस पूरे क्षेत्र में अब तक प्राथमिक शिक्षा का माध्यम हिन्दी रही है इसलिए बड़ी संख्या में लोग हिन्दी के पक्ष में भी खड़े होंगे। यही स्थिति समूचे हिन्दीभाषी क्षेत्र की होगी। इसका कारण यह है कि पूरा हिन्दी क्षेत्र,जिसे हमारे संविधान ने हिन्दी भाषी क्षेत्र के रूप में रेखांकित करते हुए ‘क’ श्रेणी में रखा है,वहाँ की स्थिति द्विभाषिकता की है। इस क्षेत्र के सभी लोग अपने घरों में भोजपुरी,राजस्थानी आदि जनपदीय भाषाएं बोलते हैं,किन्तु लिखने का सारा औपचारिक काम हिन्दी में करते हैं। इस अर्थ में समस्त हिन्दी भाषी क्षेत्र की स्थिति अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों से भिन्न है। जहाँ राष्ट्र की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए राष्ट्र की राजभाषा हिन्दी को विखंडन से बचाने की दिशा में कुछ प्रभावी कदम उठाने की उम्मीद थी,वहाँ राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने हिन्दी के संबंध में किसी तरह का स्पष्ट निर्देश न देकर,हिन्दी परिवार को विखंडन की आग में झोंकने का काम किया है।
दूसरा मुद्दा त्रिभाषा सूत्र को लेकर है। हमारे संविधान द्वारा प्रस्तावित त्रिभाषा सूत्र एक ऐसा प्रावधान है,जिसके साथ हिन्दी क्षेत्र ने हमेशा से बेईमानी की है। संविधान का संकेत था कि हिन्दी क्षेत्र के लोग हिन्दी व अंग्रेजी के साथ दक्षिण की कोई एक भाषा अपनाएंगे, किन्तु हिन्दी क्षेत्र के लोगों ने हिन्दी और अंग्रेजी के साथ उर्दू या संस्कृत को अपना लिया और खुद दक्षिण वालों से हिन्दी पढ़ने की अपेक्षा करते रहे। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रिभाषा सूत्र की बात तो बार-बार की गई है,किन्तु यहाँ भी त्रिभाषा से क्या तात्पर्य है-इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। यदि गुजरात के लोग गुजराती और अंग्रेजी के साथ हिन्दी न पढ़कर संस्कृत,मराठी,उर्दू या जर्मन पढ़ें तो भी उसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति के त्रिभाषा सूत्र का उल्लंघन नहीं माना जाएगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्पष्ट कहा गया है कि,- “तीन भाषा के इस सूत्र में काफी लचीलापन रखा जाएगा और किसी भी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जाएगी।” उल्लेखनीय है कि थोपी जाने का आरोप हमेशा हिन्दी को लेकर ही लगता रहा है।
इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा या घर की भाषा या स्थानीय भाषा या क्षेत्रीय भाषा से यथासंभव शिक्षा देने का प्रस्ताव है किन्तु, उसके बाद अघोषित रूप से अंग्रेजी माध्यम अपनाने की ओर संकेत है। प्रश्न यह है कि जब अभिभावक यह देख रहा है कि ग्रेड-८ के बाद अंग्रेजी का माध्यम अपनाना ही है,तो पहले से ही अंग्रेजी माध्यम क्यों न अपना लिया जाए ? अभिभावक यह भी देख रहे हैं कि उनके बच्चे चाहे जितनी भी भारतीय भाषाएं सीख लें,किन्तु यदि एक विदेशी भाषा अंग्रेजी नहीं जानते हैं तो उन्हें कोई नौकरी नहीं मिलने वाली है। यूपीएससी से लेकर चपरासी तक की नौकरियों में भी अंग्रेजी का दबदबा है। ऐसी दशा में अपने बच्चों को अंग्रेजी न पढ़ाने की मूर्खता वे कैसे कर सकते है ?
इतना ही नहीं,सरकारी विद्यालयों में तो एक सीमा तक सरकार के सुझाव पर अमल किया भी जा सकता है,किन्तु निजी विद्यालयों में भला कैसे लागू किया जा सकता है ? उनका तो धंधा ही अंग्रेजी के बल पर फल-फूल रहा है,किन्तु हमें याद रखना चाहिए कि मासूम बच्चों से उनकी मातृभाषा छीन लेना भीषण क्रूरता है,जिसके लिए इतिहास हमें कभी माफ नहीं करेगा।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में तक्षशिला,नालंदा, विक्रमशिला आदि प्राचीन संस्थानों के साथ ही चरक,सुश्रुत,आर्यभट्ट,वाराहमिहिर, भास्कराचार्य,ब्रह्मगुप्त,चाणक्य,पाणिनि,
थिरुवल्लुवर आदि का भी गुणगान किया गया है। इसी तरह अनुसंधान के क्षेत्र का जिक्र करते हुए भारत,मेसोपोटामिया,मिस्र आदि से लेकर आधुनिक सभ्यताओं,जैसे-संयुक्त राज्य अमेरिका,जर्मनी,इजराइल, दक्षिण कोरिया और जापान की प्रगति का उल्लेख है,किन्तु इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया है कि ये सारी उपलब्धियाँ चाहे भारतीय हों,या पाश्चात्य,अपनी भाषाओं में पढ़कर अर्जित की गईं हैं। व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएं सीख ले,किन्तु सोचता है अपनी भाषा में। दूसरे की भाषा में कभी कोई मौलिक चिन्तन नहीं हो सकता। आज भी दुनिया के सभी विकसित देश अपनी भाषा में ही पढ़ते हैं,दूसरे की भाषा में पढ़कर सिर्फ नकलची पैदा होते हैं। हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं,उसे सोचने के लिए अपनी भाषा में अनुवाद करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में अनुवाद करना पड़ता है। इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की बात कही गई है। व्यक्ति की प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता उसका बुनियादी लक्ष्य है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसका उल्लेख है।
दरअसल,यह सपना तो भारत के हर नेक नागरिक का होना चाहिए। हमारे देश में पुलिस-थाने और अदालत तो सबके लिए समान रूप से खुले हैं,किन्तु शिक्षण संस्थान क्यों नहीं ? दरअसल पूरी शिक्षा सबके लिए समान और मुफ्त होनी चाहिए,तभी सुदूर गाँवों में दबी हुई प्रतिभाओं को भी खिलने का और मुख्य धारा में शामिल होने का अवसर मिल सकेगा।
हमारे पड़ोस के देश भूटान में भी निजी क्षेत्र के विद्यालय हैं किन्तु उनमें वे ही बच्चे प्रवेश लेते हैं,जिनका प्रवेश सरकारी विद्यालयों में नही हो पाता। इसका कारण सिर्फ यही है कि वहाँ राज परिवार के बच्चे भी सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ते हैं। इसी तरह चीन की यात्रा करके लौटने वाले बताते हैं कि चीन के गाँव में सबसे सुन्दर भवन उस गाँव का विद्यालय होता है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारत में लुप्त हो रही भाषाओं पर चिन्ता व्यक्त की गई है और उन्हें बचाने के लिए ठोस कदम उठाने पर बल दिया गया है। यह स्वागत योग्य कदम है, किन्तु गीता का कथन-‘ जातस्य हि ध्रुवो मृत्युम्।’ सब पर समान रूप से लागू होता है। किसी भी सांसारिक वस्तु या व्यक्ति को मरने से नहीं रोका जा सकता। इस संबंध में महात्मा गांधी का विचार स्मरणीय है- गांधी जी ने कहा है,-“जो वृत्ति इतनी वर्जनशील और संकीर्ण हो कि हर बोली को चिरस्थायी बनाना और विकसित करना चाहती हो,वह राष्ट्र-विरोधी और विश्व-विरोधी है। मेरी विनम्र सम्मति में तमाम अविकसित और अलिखित बोलियों का बलिदान करके उन्हें हिन्दुस्तानी (भाषा) की एक बड़ी धारा में मिला देनी चाहिए। यह आत्मोत्सर्ग के लिए की गई कुर्बानी होगी,आत्महत्या नहीं(यंग इंडिया,२७ अगस्त १९२५)। ऐसी दशा में जिस हिन्दी ने दुर्दिन में भी हमारे देश की एकता और अखंडता को बनाए रखा,जिसके माध्यम से हमने आजादी की लड़ाई लड़ी,जिसे हमारे देश के रहनुमाओं ने ‘राजभाषा’ का दर्जा और ‘राष्ट्रभाषा’ का सम्मान दिया,उसे बचाने के लिए,उसकी समृद्धि के लिए इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जरूर प्रावधान होने चाहिए थे। राष्ट्रभाषा किसी देश की जबान होती है,खेद है कि इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति में ‘राजभाषा’ या ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का उल्लेख तक नहीं है।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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