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दिशाहीन हो रहा हमारा लोकतंत्र

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
दिल्ली

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लोकतंत्र को विश्व में मानव और मानवता की सुरक्षा का एक सशक्त माध्यम माना जाता है। देश की प्रगति के लिए यह एक मानवीय,सुसंस्कृत और गरिमामय प्रणाली है। विचार और निर्णय पर इसका अंकुश तो नहीं होता,लेकिन यह किसी की विचारधारा को स्वतंत्र और सुरक्षित रूप में प्रस्तुत करने के लिए अवसर प्रदान करता है। लोकतंत्र में कोई भेदभाव नहीं होता,वह हर मनुष्य का सम्मान करता है तथा उसको समान दृष्टि से देखता है। देश में जनता को जो अधिकार मिले होते हैं,वह स्त्री हो या पुरुष सभी को एक समान दिलाता है। वह जातिवादी,नस्लवादी और धर्मवादी भेदभाव पर विश्वास नहीं करता। वस्तुत:,लोकतंत्र दलित मानव को आज़ादी और मानव गरिमा को पहचान दिलाता है। आज़ादी के बाद भारत में आर्थिक प्रगति और सामाजिक-संस्कृतिक उत्थान के लिए लोकतंत्र की स्थापना हुई। ब्रिटेन में संसदीय लोकतंत्र है,संयुक्त राज्य अमेरिका में गणतंत्रीय लोकतंत्र है,तो भारत में संसदीय तो है ही,साथ में अमेरिकन गणतंत्रीय की भी झलक मिलती है। इस प्रकार भारत संसदीय लोकतंत्र के साथ-साथ गणतंत्र भी है।

लोकतंत्र के संदर्भ में अंग्रेज़ी के महान लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के एक नाटक `द एपल कॉट` को याद करना उचित होगा। यह नाटक एक अनुभवजन्य कृति है,जिसे बर्नार्ड शॉ ने तटस्थता और तार्किकता से लेखनीबद्ध किया है। यह नाटक सन् १९२९ में लिखा गया था जब भारत स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था। शॉ ने तत्कालीन ब्रिटेन की राजनीति को ध्यान में रख कर यह नाटक लिखा था। शॉ ने इस नाटक में राजतंत्र,लोकतंत्र और धनिकतंत्र(उद्योगपति एवं पूँजीपति) के बीच संघर्ष दिखाते हुए लोकतंत्र की जो तस्वीर पेश की है,वह वास्तव में न केवल ब्रिटेन की थी,बल्कि अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी दिखाई देती है। इस नाटक की विस्तृत प्रस्तावना में शॉ कहते हैं कि,कुछ लोग इस नाटक में लोकतंत्र और राजतंत्र का संघर्ष मानते हैं,किंतु ऐसा है नहीं। वस्तुतः यह संघर्ष लोकतंत्र, राजतंत्र और धनिकतंत्र के बीच है। धनी लोग पहले तो लोकतंत्र का बहाना ले कर राजा की शक्ति समाप्त करते हैं,और बाद में लोकतंत्र को खरीद कर उसे अपने अधीन कर लेते हैं। धनी लोग पैसे के बल पर लोकतंत्र को शक्तिहीन बना देते हैं। पैसे से जैसा चाहें भाषण दिलवा दें,समाचार पत्रों में जैसी सामग्री चाहें छपवा दें,जैसा चाहें प्रसारण करा दें और मीडिया से जो चाहें करवा दें। मंत्री हो या विपक्षी दल का नेता,प्रायः सभी को पैसे का हुकुम बजाना पड़ता है। इस प्रकार लोकतंत्र को केवल खरीदा ही नहीं जाता,बल्कि उसे ठगा और लूटा जाता है। अधिकतर मंत्री और तथाकथित जन प्रतिनिधि धनी वर्ग के इशारों पर नाचते हैं। सरकार पर भी धनी वर्ग हावी रहता है। इस प्रकार इस नाटक में शॉ का लोकतंत्र के प्रति विश्वास तो है,लेकिन उन्हें इस बात का दु:ख है कि आज का लोकतंत्र सामान्य व्यक्ति के लोकतंत्र से काफी अलग होता जा रहा है और स्वार्थी तत्व इसे हथिया रहे हैं।

इक्कीसवीं शताब्दी में भारत की राजनीति एक अलग मोड़ पर आ रही है,जो अत्यधिक जटिल और विकृत हो गई है। आज भारत में लोकतंत्र दिशाविहीन हो गया है और इसी लिए राजनीति का स्तर बहुत गिर गया है। यहाँ धन बल,सत्ता बल और महा बल का अधिकाधिक ज़ोर चलता है,अर्थात पैसे की लूट-खसोट,सत्ता की ताकत और माफियों के भय का प्रयोग आज की राजनीति है। आज सिद्धांत की अपेक्षा सौदेबाजी अधिक है। वस्तुतः,आज की राजनीति कार्पोरेट जगत का एक धंधा बन गई है। इस कार्पोरेट जगत में भ्रष्टाचार और राजनीति का चोली-दामन का साथ हो गया है। जनता को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। `मत` प्राप्त करने के लिए झूठ तथा आरोप-प्रत्यारोप पर आधारित राजनीति का बोलबाला है। सत्तारूढ़ दल और विपक्षी दल दोनों एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हैं,और यहाँ तक कि एक-दूसरे के प्रति झूठे आरोप लगाने में भी नहीं चूकते। आज तो स्थिति यह हो गई है कि राजनीति में बयानों अथवा वक्तव्यों का स्तर बहुत ही नीचे गिर गया है। यह लगता ही नहीं कि हम संसदीय लोकतंत्र में जी रहे हैं। ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग हो रहा है जो सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। राजनीति में मतभेद होना और एक-दूसरे की आलोचना करना स्वाभाविक है,किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि विरोधी आलोचना करते हुए अपनी शब्दावली और भाषा में संयम,शालीनता और शिष्टता न बरते। लोकतंत्र के अंतर्गत स्पर्धा की अपेक्षा की जाती है,न कि दुश्मनी या घृणा या ईर्ष्या।

लोकतंत्र का अर्थ परिचर्चा,संवाद और सहमति द्वारा चलाई जाने वाली जनता की सरकार माना गया है(डेमोक्रेसी मीन्स अ गवर्नमेंट रन बाय द पीपल,बाय डिस्कशन, रिस्पोंस एन्ड कांसेन्ट)। आज के लोकतंत्र में सत्तारूढ़ दल किसी राजनीतिक,प्रशासनिक, वित्तीय आदि संदर्भों में विपक्षी दल या अन्य किसी एजेंसी से परिचर्चा करने से प्रायः कतराता है। किसी भी मामले में उनका संवाद जनता,विरोधियों,विशेषज्ञों अथवा यूनियनों आदि से बहुत ही कम हो पाता है। इसी कारण कई मामलों में जनता के साथ आपसी सहमति नहीं बन पाती और सत्तारूढ़ दल अपनी मनमानी चलाता है। यदि सत्तारूढ़ दल चुनाव में अच्छा बहुमत प्राप्त कर लेता है और विपक्ष दल कमजोर हो जाता है,तो सत्तारूढ़ दल कई बार निरंकुश हो जाता है और विरोधी दल को खत्म करने की या उसे और अधिक शक्तिहीन अथवा कमजोर करने की कोशिश करता है।

लोकतंत्र के बारे में अमेरिका के १६वें लोकप्रिय राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने सन् १८६३ में एक काव्यमय परिभाषा दी थी-“जनता की,जनता के लिए और जनता के द्वारा चलाई जाने वाली सरकार ही लोकतंत्र है।” इस परिभाषा की व्याख्या करते हुए बर्नार्ड शॉ ने परिभाषा के पहले भाग जनता की सरकार का समर्थन किया और कहा कि मानव समुदाय के लिए सरकार उसी प्रकार आवश्यक एवं अनिवार्य है,जिस प्रकार मनुष्य श्वांस-प्रक्रिया और रक्त संचालन पर नियंत्रण के बिना जीवित नहीं रह सकता। दूसरा भाग ‘जनता के लिए’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहाँ शॉ एक विद्वान डीन इंज(१८६०-१९५४)के मत का समर्थन करते हुए कहते हैं कि,लोकतंत्र समाज का वह रूप है जिसमें सबका समान रूप से ख्याल रखा जाता है,अर्थात सभी के जीवन-स्तर के एक-जैसा होने की अपेक्षा की जाती है,लेकिन शॉ तीसरे भाग ‘जनता के द्वारा’ का विरोध करते हुए कहते हैं कि सभी लोग शासन नहीं कर सकते। एक देश में सभी व्यक्ति उसी प्रकार प्रधानमंत्री या तानाशाह नहीं हो सकते,जिस प्रकार युद्ध में लड़ने वाला हर व्यक्ति फील्ड मार्शल नहीं हो सकता। वास्तव में जनता के द्वारा सरकार की अवधारणा न तो सत्य है,और न ही असत्य,बल्कि यह तो एक मिथ्या है। यह तो राजनेताओं का वह नाटक है,जिसके माध्यम से वे जनता को मूर्ख बना कर मत प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि अगर हम अपने ऊपर शासन नहीं कर सकते और अगर शासक वर्ग बेईमानी और भ्रष्टाचार के कारण हम पर अत्याचार करने लगता है,तो अपने को बचाने के लिए हम लोग जन-आन्दोलन चलाते हैं। यहाँ यह भी सही है कि बहुत-से आन्दोलनों के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी होती है कि यह आन्दोलन क्यों हो रहा है ? ज्यादातर लोग इन आन्दोलनों में मात्र भीड़ बन कर जुड़ जाते हैं। सरकार की मनमानी को रोकने के लिए हम भीड़ की हिंसा या जन-आन्दोलनों पर निर्भर नहीं रह सकते,हालांकि जनता कभी-कभी इसमें सफल भी हो जाती है। इस प्रकार लोकतंत्र में जनता के द्वारा शासन हो ही नहीं सकता। धनबल और बाहुबल से जुड़े पूँजीपति,उद्योगपति,माफिया आदि अलग-अलग हथकंडों से ही शासन चलाते हैं। वस्तुतः,भारत में वर्तमान राजनीति पूँजी,अपराध और जातिवाद से जुड़ी हुई है। आम जनता इन सभी चीजों से दूर ही रहना चाहती है। राज्य करने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है। वह तो बस अपने जीवन की सुरक्षा के साथ-साथ अन्य जीवनोपयोगी सुविधाएँ चाहती है। जनता की सरकार तभी सार्थक होती है,अगर कोई आम आदमी बिना किसी भय और बाधा के मुक्त और स्वच्छ चुनाव में भाग ले सके और जाति,धर्म,शिक्षा,लिंग, भाषा आदि के कुचक्र में न पड़ कर स्वछंद रूप से अपना मत डाल सके। जनता के लिए सरकार से अभिप्राय जनता के न केवल किसी विशेष वर्ग की बेहतरी और हित के लिए काम करना है,बल्कि सभी वर्गों के लिए काम करना है। जनता द्वारा सरकार की व्याख्या करना कठिन है,जैसे शॉ ने भी संकेत दिया है। सामान्य जनता तो शासन नहीं कर सकती, लेकिन जो भी व्यक्ति निर्वाचित हो जाता है,वह अपने निर्वाचन-क्षेत्र की सुध नहीं लेता और अपने परिवार और अपने समर्थकों को ही लाभ पहुँचाता रहता है। इसी संदर्भ में मेरे एक मित्र डॉ. महेंद्र कुमार ने अब्राहम लिंकन द्वारा दी गई लोकतंत्र की परिभाषा को अंग्रेजी में इस प्रकार रूपांतरित किया है,जो आज के संदर्भ में सही लगती है-`डेमोक्रेसी मीन्स गवर्नमेंट ऑफ़ द पीपल,फार द पीपल एन्ड ब्यू द पीपल।` वास्तव में भारत चाहे विश्व में बहुत बड़ा लोकतांत्रिक देश कहलाता है,किंतु उसमें लोकतंत्र मृतप्राय है। आज के लोकतंत्र में सांसद या विधायक चुने जाने के बाद जनता के साथ जुड़ने से परहेज करते हैं, उससे दूर रहने का प्रयास करते हैं,लेकिन चुनाव के समय जनता के आगे हाथ जोड़ कर खड़े होते हैं और यहाँ तक जनता को खरीदने में झिझकते भी नहीं। बाह्य रूप से हर दल अपने को लोकतांत्रिक मानता है,लेकिन भीतर से कोई भी दल लोकतंत्र के सिद्धांतों, अपेक्षाओं और मर्यादाओं को बिलकुल स्वीकार नहीं करता। राजवंश और सामंतवाद का लोकतंत्र के साथ कोई संबंध नहीं है,फिर भी आज की राजनीति में एक बार निर्वाचित होने पर विधायक या सांसद वह ‘अति महत्वपूर्ण व्यक्ति’ (वीआईपी या वीवी आईपी)बन जाता है और जनता से संपर्क रखना अपनी तौहीन समझता है। मंत्रीगण बड़े-बड़े बंगलों में ऐश्वर्यपूर्ण सामंती या राजशाहों की भाँति जीवन व्यतीत करते हैं,जबकि लोकतंत्र में निर्वाचित सदस्य या आम आदमी में समानता की अपेक्षा रहती है। इसके अतिरिक्त भारतीय राजनीति सामाजिक न्याय से अलग हो कर परिवारवाद,वंशवाद,सत्ता लोलुपता में सिमट गई है। कई बार सत्ता के लिए जनमत अथवा जनादेश का न केवल अपहरण किया जाता है,बल्कि उसका गला भी घोंट दिया जाता है। यदि केन्द्र में किसी सत्तारूढ़ दल को देश के किसी राज्य में पूरा जनादेश नहीं मिलता और वह पराजित हो जाता है,तो वह छल-कपट से किसी-न-किसी प्रकार से वहाँ अपनी सरकार बना लेता है और बहुसंख्यक सदस्य प्राप्त दल ताकत रह जाता है। इसी कारण भारत में लोकतंत्र की यह परिभाषा असफल हो गई है।

यह भी उल्लेखनीय है कि,भारत की कुल जनसंख्या में से मात्र १५-२० प्रतिशत अर्थात् पाँचवें भाग से भी कम लोग लाभ उठा पा रहे हैं और उनमें भी विशेष वर्ग। शेष अत्यधिक भाग लोकतंत्र के लाभ से वंचित रह जाता है। अमीर और गरीब में असमानता और विषमता की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है।

शॉ लोकतंत्र की उपमा गैस के गुब्बारे से करते हुए भी कहते हैं कि जिस प्रकार गुबारे में कोई तत्व नहीं है,उसी प्रकार आज के लोकतंत्र में भी कोई तत्व नहीं होता। इस गुब्बारे को हवा में उड़ा दिया जाता है। इस गुब्बारे रूपी लोकतंत्र के नाम पर लोगों की जेबें काटी जाती हैं,उन्हें बहका कर लूटा जाता है। पाँच वर्ष के बाद अर्थात चुनाव के समय गुब्बारा जमीन पर लाया जाता है। अगर उस समय किसी में हिम्मत होती है तो वह उस गुब्बारे में बैठे लोगों में से किसी को हटा कर स्वयं बैठ सकता है अर्थात संसद या विधानसभा में पहुँच जाता है। शॉ संसद की तुलना गुब्बारे से करते हुए कहते हैं कि गुबारा फिर पाँच साल के लिए ऊपर उड़ जाता है और स्थिति जस की तस बनी रहती है,क्योंकि अधिकतर लोगों के पास न तो पैसा होता है,न ही समय और न ही कोई शक्ति,इस लिए ऐसे लोग वंचित रह जाते हैं।

यहाँ यह भी बताना असमीचीन न होगा कि लोकतंत्रीय चुनाव में योग्य व्यक्ति नहीं चुने जाते और उस सरकार से जनता को कोई लाभ नहीं होता,क्योंकि अधिकतर उम्मीदवार योग्यता के आधार पर नहीं चुने जाते,बल्कि जाति,धर्म आदि के साथ-साथ पैसा, भ्रष्टाचार जैसे अन्य आधारों पर भी चुने जाते हैं। चुनाव में मज़हब या धर्म के आधार पर हिन्दू मत,मुस्लिम मत, ईसाई मत आदि और जाति के आधार पर ब्राह्मण, राजपूत,बनिया,जाट,कुर्मी,यादव, लिंगायत,पाटीदार मत आदि अनेक मतों में विभाजित होते हैं। साथ ही दलित,पिछड़ा वर्ग,अल्पसंख्यक वर्ग,अनुसूचित जाति और स्वर्ण जाति में मत की राजनीति चलती है। इस प्रकार भारत में लोकतंत्र धर्म और जाति के बीच फंसा हुआ है। जाति-आधारित राजनीति में आरक्षण भी एक मुद्दा है जो अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग आदि के लिए रखा गया है। चुनाव के दौरान इन वर्गों को खूब सब्जबाग दिखाए जाते हैं। सभी दल अपने-आप को गरीबों,दलितों और किसानों का मसीहा बताते हैं,लेकिन चुनाव जीतने के बाद उनके हित में कोई भी दल कोई कारगर कदम उठाने का प्रयास नहीं करता। एक और रोचक बात-राजनेता जनता के सामने बड़े-बड़े जुमलेदार भाषण करते हुए कहते हैं कि जनता हमारी मालिक है। हम उनके सेवक हैं,लेकिन चुनाव जीतने के बाद ये राजनेता स्वयं मालिक हो जाते हैं और जनता को सेवक बना देते हैं। लोकतंत्र में,विशेषकर भारतीय लोकतंत्र में सामंतवाद जोर-शोर से पनप रहा है।

इधर कुछ वर्षों से दलितों के प्रति हर राजनीतिक दल की अधिक सहानुभूति जाग गई है। उनके जीवन-स्तर को सुधारने के लिए उनसे बड़े-बड़े वायदे किए जाते हैं,किंतु चुनाव के बाद सब नदारद। मत की इस राजनीति ने लोकतंत्र का गला घोंट रखा है। रिश्वतखोरी,मत खरीदना,दल-बदलू प्रणाली आदि चुनाव जीतने के बड़े-बड़े हथकंडे हैं। लोकतंत्र का दम भरने वाले आज के राजनी तिक दल चुनाव जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। भारत के निर्वाचन आयोग के एक आयुक्त ने तो यहाँ तक कह दिया कि किसी भी कीमत पर जीतना ही राजनीतिक नैतिकता बनती जा रही है। बर्नार्ड शॉ के काल में कम-से-कम ब्रिटेन में, शायद आज भी यह स्थिति नहीं है। भारत में तो लोकतंत्र की स्थिति और भी बदतर और विकट हो रही है।

भारत के संविधान के अनुच्छेदों,प्रावधानों और निर्देशों का धड़ल्ले से उल्लंघन हो रहा है। संविधान के अनुच्छेद १९ के अंतर्गत अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार माना गया है, लेकिन आज की सरकारें अपनी नीतियों एवं कार्यों की आलोचना अथवा विरोध करना राजद्रोह या देशद्रोह मानती हैं। राजद्रोह तो देश की सुरक्षा और संप्रभुता के लिए खतरा पैदा करना है। लोकतंत्र में विरोधियों की आवाज दबाना अभिव्यक्ति की आजादी पर प्रहार है। साथ ही संविधान में धर्म या पंथ निरपेक्षता पर बल दिया गया है,किंतु फिर भी सांप्रदायिकता का जोर है। चुनाव से पहले सांप्रदायिक दंगे होते हैं और राजनीतिक दल इन दंगों से अपनी-अपनी रोटी सेंकते हैं औरकिसी-न-किसी धर्म या पंथ के अलंबरदार बन जाते हैं। इसके अलावा भारत के संविधान की उद्देशिका के अनुसार भारत को एक संपूर्ण प्रभुता संपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष,लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने की अवधारणा रखी गई है,किंतु आज पूँजीवाद,उपभोक्तावाद और बाज़ारवाद ने इसे अपना निवाला बना लिया है और ऊपर से भ्रष्टाचार के तंत्र ने लोकतंत्र को और जर्जर बना दिया है। वस्तुतः लोकतंत्र अपने-आपमें शुद्ध, स्वच्छ,पवित्र और निष्कपट सिद्धान्त एवं प्रक्रिया है लेकिन आज के लोभी राजनेता इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। सत्तारूढ़ दल अपनी सुविधा के अनुसार संविधान का प्रयोग तोड़-मरोड़ कर करता हैं। संविधान तो लोकतंत्र का आधार है। संविधान की जब हत्या की जाती है तो लोकतंत्र की हत्या अपने-आप हो जाती है। वस्तुतः,विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद राजनीति के रूप में भारत में परिपक्वता तो आ नहीं पाई है लेकिन गिरावट अवश्य आ गई है।

आज के लोकतंत्र में धनपतियों,उद्योगपतियों और पूँजीपतियों की चाँदी है। इस लोकतंत्र को न केवल धनी वर्ग खरीदता है बल्कि उसे धोखे से लूटता भी है। मंत्रीगण पूँजीपतियों और उद्योगपतियों के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं और उन्हीं की जीहज़ूरी में जनता के हितों की ओर ध्यान नहीं देते। भारत में आज भी हमारे राजनेता उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के चंगुल में हैं। वे जनता के हित में और उसे लाभ या सुविधा देने की अपेक्षा उद्योगपतियों और पूँजीपतियों के हित में और उन्हें अधिकाधिक लाभ पहुँचाने में लगे रहते हैं। अजीब बात यह कि सभी दल एक-दूसरे पर लांछन लगाते हैं कि अमुक दल किसी-न-किसी उद्योगपति की मुट्ठी में है,जबकि वे स्वयं भी उनकी गिरफ्त में होते हैं।

लोकतंत्र का चैथा स्तंभ माना जाता है ‘मीडिया’,अर्थात जन संचार। यह जनसाधारण और सरकार के बीच माध्यम का काम करता है। यह बहुत ही सशक्त उपकरण है जो जनता की राय को बनाता और बिगाड़ता है। वह जनता के दिलो-दिमाग़ पर राज करता है। इसे एक स्वतंत्र,निष्पक्ष और निडर समाज का निर्माता माना जाता है। वास्तव में लोकतंत्र में मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका होती है,लेकिन आज मीडिया भी तटस्थ नहीं रहा। इधर वह कई वर्षों से सतारूढ़ दल की गोद में जाने लगा है और बहुत-से मीडिया चेनल सरकार के दरबारी बन गए हैं। वे सत्तारूढ़ दल का स्तुतिगान करते हैं,विपक्षी दल की कमियों का बखान चटकारे ले कर करते हैं और जन-साधारण की आवाज को प्रायः अनसुना कर देते हैं। वास्तव में आज-कल मीडिया का एक वर्ग सफल व्यापारी के रूप में काम कर रहा है और लोकतंत्र के बाजार में अपनी प्रायोजित सूचनाओं को जनता तक पहुँचाता है। वह आज ‘मिशन’ नहीं,बिकाऊ मीडिया अधिक बन गया है,क्योंकि इनके मालिक अधिकतर उद्योगपति हैं। उद्योगपतियों के ये मीडिया सरकार में अपनी साख बनाए रखने के लिए और अधिकाधिक विज्ञापन पाने के लोभ से सरकार के सुर में सुर मिलाते हैं। इस प्रकार मीडिया से तटस्थता की जो अपेक्षा होती है,वह आज नदारद है। स्वास्थ्य, शिक्षा,रोजगार और भ्रष्टाचार के प्रति सरकारों और राजनेताओं की जो उदासीनता एवं उपेक्षा मिलती है,उससे लोकतंत्र तो कमजोर हुआ ही है,साथ ही मीडिया भी उसे और कमजोर करता जा रहा है। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय बात और भी है,सत्ता और किसी विशेष विचारधारा के विरुद्ध बोलने वाले ईमानदार मीडियाकर्मी को तो अपनी जान की बाजी भी लगानी पड़ती है। यह लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है।

इस प्रकार लोकतंत्र का संस्थागत ढांचा चरमर्रा रहा है। क्रूर बहुमत के बल पर शासन चलाने की व्यवस्था अब एक राजनीतिक धर्म का रूप ले रही है। संसद और विधानमंडल अपनी साख और प्रतिष्ठा तीव्रता से खोती जा रही है और लोकतंत्र के मूल्य दिन प्रति-दिन ह्रास की ओर जा रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा लोकतांत्रिक वैचारिकता भी लुप्त होती जा रही है। यह अब मत तक ही सीमित हो गया। यदि कोई नेता विपक्ष में है तो उस पर कोई-न-कोई अपराध मढ़ कर जेल में डाल दिया जाता है या उस पर मुकदमा चला दिया जाता है। यदि वही अपराधी व्यक्ति दल-बदल कर सत्तारूढ़ दल में शामिल हो जाता है तो वह ईमानदार और साफ-सुथरा राजनेता हो जाता है। यह है हमारा लोकतंत्र। इसी लिए तनातनी का माहौल बन रहा है,जो लोकतंत्र के लिए चिंताजनक और खतरनाक है।

 

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