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पितृपक्ष:श्राद्ध-कर्म में स्वकल्याण अवसर

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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पितृपक्ष २ सितम्बर (२०२०) से प्रारंभ हो चुका है। यह महालयारंभ,प्रतिप्रदा श्राद्ध १ तदनुसार भाद्रपद शुक्ल १५ से शुरू हुआ और १७ सितम्बर आश्विन कृष्ण ३०,२०७७ को समाप्त होगा।
पितृ पक्ष या पितरपख,१६ दिन की वह अवधि है,जिसमें हिन्दू लोग अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं और उनके लिए पिण्डदान करते हैं। इसे ‘सोलह श्राद्ध’,’महालय पक्ष’,’अपर पक्ष’ आदि नामों से भी जाना जाता है।
पूर्वज पूजा की प्रथा विश्व के अन्य देशों की भाँति बहुत प्राचीन है।
हिन्दू धर्म में वैदिक परम्परा के अनुसार अनेक रीति-रिवाज़,व्रत-त्यौहार व परम्पराएं मौजूद हैं। हिंदुओं में जातक के गर्भधारण से लेकर मृत्योपरांत तक सोलह प्रकार के संस्कार किए जाते हैं। अंत्येष्टि को अंतिम संस्कार माना जाता है,लेकिन अंत्येष्टि के पश्चात भी कुछ ऐसे कर्म होते हैं जिन्हें मृतक के संबंधी विशेषकर संतान को करना होता है,श्राद्ध कर्म उन्हीं में से एक है।
वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि को श्राद्ध कर्म किया जा सकता है लेकिन भाद्रपद मास की पूर्णिमा से लेकर आश्विन मास की अमावस्या तक पूरा पखवाड़ा श्राद्ध कर्म करने का विधान है। इसलिए,अपने पूर्वज़ों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के इस पर्व को श्राद्ध कहते हैं।
यह धारणा पूर्वजन्म पर आधारित है। पहले विश्वास प्रबल था और तर्क करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती थी,पर आधुनिक विकास के युग में यह तर्क विश्वसनीय लगता है कि जब जातक पिता एवं माता के गुण-धर्म का दिखने को मिलता है तो पिता-माता के शुक्र-रज कण से उत्पन्न पुत्र-पुत्री का पूर्वजन्म पिता-माता में ही निहित हुआ और कालक्रम में गर पुत्र-पुत्री की संतान होगी तो उनमें उनका पुनर्जन्म होगा। यही प्रक्रिया सृष्टिकाल से ही चलती आ रही है और श्राद्ध करने की अवस्था में यह श्राद्ध उनका ही होगा। अत: श्राद्ध भले वे अपने पूर्वजों के निमित्त करते हैं,पर वास्तव में उनके द्वारा किया गया यह कर्म उनके लिए ही हो रहा है।
पौराणिक ग्रंथों में वर्णित किया गया है कि देवपूजा से पहले जातक को अपने पूर्वजों की पूजा करनी चाहिए। पितरों के प्रसन्न होने पर देवता भी प्रसन्न होते हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जीवित रहते हुए घर के बड़े-बुजुर्गों का सम्मान और मृत्योपरांत श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। इसके पीछे यह मान्यता भी है कि यदि विधिनुसार पितरों का तर्पण न किया जाए तो उन्हें मुक्ति नहीं मिलती और उनकी आत्मा मृत्युलोक में भटकती रहती है। पितृ पक्ष को मनाने का ज्योतिषीय कारण भी है।
ज्योतिषशास्त्र में पितृ दोष काफी अहम माना जाता है। जब जातक सफलता के बिल्कुल नज़दीक पंहुचकर भी सफलता से वंचित होता हो,संतान उत्पत्ति में परेशानियां आ रही हों,धन हानि हो रही हों तो ज्योतिषाचार्य पितृदोष से पीड़ित होने की प्रबल संभावनाएं बताते हैं। इसलिए,पितृदोष से मुक्ति के लिए भी पितरों की शांति आवश्यक मानी जाती है।
वैसे तो प्रत्येक मास की अमावस्या को पितरों की शांति के लिये पिंड दान या पितृ पक्ष में श्राद्ध करने का महत्व अधिक माना जाता है। पितृ पक्ष में किस दिन पूर्वज़ों का श्राद्ध करें, इसके लिए शास्त्र सम्मत विचार यह है कि जिस पूर्वज़,पितर या परिवार के मृत सदस्य के परलोक गमन की तिथि याद हो तो पितृपक्ष में पड़ने वाली उक्त तिथि को ही उनका श्राद्ध करना चाहिए। यदि तिथि ज्ञात न हो तो आश्विन अमावस्या को श्राद्ध किया जा सकता है,इसे सर्वपितृ अमावस्या भी इसलिए कहा जाता है। समय से पहले यानि जिन परिजनों की किसी दुर्घटना अथवा आत्महत्या आदि से अकाल मृत्यु हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी को किया जाता है। पिता के लिए अष्टमी तो माता के लिये नवमी की तिथि श्राद्ध के लिए उपयुक्त मानी जाती है। कहना तर्कसंगत होगा कि,श्राद्ध-कर्म में स्वकल्याण ही निहित है।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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