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राम की कीर्ति वनवास में!

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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राम जन्मभूमि मंदिर के लिए यह संयोग ही है कि भूमिपूजन उस ५ अगस्त को हुआ,जिस ५ को गत वर्ष जम्मू-कश्मीर राज्य से संविधान की ३७० ए धारा उठा ली गई और जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख को केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया। इसकी प्रतिक्रिया में पाकिस्तान में खलबली मची हुई है और चीन के साथ तो विवाद बना हुआ है ही! फिर भी इस खलबली की परवाह न करते हुए अयोध्या में राम जन्म भूमि मंदिर का भूमिपूजन तो होगा ही,क्योंकि पाकिस्तान का चिल्ल-पों करना आधारहीन है।
अब प्रश्न यह है कि,श्रीराम अपने १४ वर्ष के वनवास में प्रमुख रूप से जिन १७ जगह रुके ,वे कौन-कौन से हैं ?
प्रभु श्रीराम को वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की,तपस्या की और भारत के आदिवासी,वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा,लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा,जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।
रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ,तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा,उनमें से २०० से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है। जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे २०० से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है,जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं,जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। आइए,जानते हैं कुछ प्रमुख स्थानों को-

तमसा नदी-अयोध्या से २० किमी दूर है तमसा नदी। यहां पर उन्होंने नाव से नदी पार की।

श्रृंगवेरपुर तीर्थ-प्रयागराज से वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे,जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। श्रृंगवेरपुर को वर्तमान में सिंगरौर कहा जाता है।

#कुरई गाँव-सिंगरौर में गंगा पार कर श्रीराम कुरई में रुके थे।

प्रयाग-कुरई से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे।

चित्रकूट-प्रभु श्रीराम ने प्रयाग संगम के समीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। चित्रकूट वह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं। तब,जब दशरथ का देहांत हो जाता है। #सतना-चित्रकूट के पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। सतना में ‘रामवन’ नामक स्थान पर भी श्रीराम रुके थे,जहां ऋषि अत्रि का एक ओर आश्रम था।

दंडकारण्य-चित्रकूट से निकलकर श्रीराम घने वन में पहुंच गए। असल में यहीं था उनका वनवास। इस वन को उस काल में दंडकारण्य कहा जाता था। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों को मिलाकर दंडकाराण्य था। दरअसल,उड़ीसा की महानदी के इस पास से गोदावरी तक दंडकारण्य का क्षेत्र फैला हुआ था। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीय मान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआ था। ऐसा माना जाता है कि दुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है।

ऋष्यमूक पर्वत-मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहां उन्होंने हनुमान और सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा और श्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूक पर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी(जिला बेल्लारी) में स्थित है। पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसी पर्वत पर मतंग ऋषि का आश्रम था जो हनुमानजी के गुरु थे। हनुमान जब सीता की खोज में लंका जा पाने का बल नहीं जुटा पा रहे थे,तो जामवंत ने उनके बल की किष्किन्धाकाण्ड में उन्हें याद दिलाई-

‘कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेहु बलवानाll
पवन तनय बल पवन समाना।
बुध,बिबेक बिग्यान निधानाll`
इसी तरह की बात श्रीमद्बाल्मुकीय रामायण के किष्किंधा काण्ड में ही कही गयी है- ‘उत्तिष्ठ हरिशार्दूल लङ्घस्व महार्णवम्।
परा हि सर्वभूतानां हनुमन् या गतिस्त॥

अर्थात्,वानरश्रेष्ठ! उठो और इस महासागर को लाँघ जाओ;क्योंकि तुम्हारी गति सभी प्राणियों से बढ़कर है।

#कोडीकरई-हनुमान और सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने वानर सेना का गठन किया और लंका की ओर चल पड़े। तमिलनाडु की एक लंबी तटरेखा है। कोडीकरई समुद्र तट वेलांकनी के दक्षिण में स्थित है। यहां श्रीराम की सेना ने पड़ाव डाला और श्रीराम ने अपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित कर विचार विमर्श किया,लेकिन राम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र को पार नहीं किया जा सकता और यह स्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है,तब रामेश्वरम की ओर कूच किया।#रामेश्‍वरम-रामेश्‍वरम समुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सूर्य स्नान के लिए आदर्श है। महाकाव्‍य रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवान शिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंग है।

धनुषकोडी-वाल्मीकि के अनुसार ३ दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्र में वह स्थान ढूंढ़ निकाला,जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो। उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करने का फैसला लिया। धनुषकोडी भारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणी किनारे पर स्थित गाँव हैl इसका नाम धनुषकोडी इसलिए है कि,यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से जो पुल (रामसेतु) बनाया था,उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है।

‘नुवारा एलिया’ पर्वत श्रृंखला- वाल्मीकिय रामायण अनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवारा एलिया’ पहाड़ियों से लगभग ९० किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों के बीचों-बीच सुरंगों तथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। श्रीलंका में नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण प्रपात,रावण गुफाएं,अशोक वाटिका, खंडहर हो चुके विभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनके रामायण काल के होने की पुष्टि होती है।

✴पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित,फिर लिखित रूप-
श्रीवाल्मीकि ने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष ५०७५ ईपू के आसपास की होगी। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम से पीढ़ी-दर- पीढ़ी परिचलित रहने के बाद इसको लिखित रूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं।
हिन्दू संस्कृति में राम द्वारा किया गया आदर्श शासन रामराज्य नाम से प्रसिद्ध है। वर्तमान समय में रामराज्य का प्रयोग सर्वोत्कृष्ट शासन या आदर्श शासन के रूपक (प्रतीक) के रामराज्य,लोकतन्त्र का परिमार्जित रूप माना जा सकता है। वैश्विक स्तर पर रामराज्य की स्थापना गांधी जी की चाह थी।गांधी जी ने भारत में अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद ग्राम स्वराज के रूप में रामराज्य की कल्पना की थी।
✴हिन्दू ग्रन्थों में रामराज्य-
रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने रामराज्य पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के सिंहासन पर आसीन होते ही सर्वत्र हर्ष व्याप्त हो गया,सारे भय-शोक दूर हो गए एवं दैहिक,दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिल गई। कोई भी अल्पमृत्यु, रोग-पीड़ा से ग्रस्त नहीं था,सभी स्वस्थ,बुद्धिमान,साक्षर,गुणज्ञ,ज्ञानी तथा कृतज्ञ थे-
राम राज बैठे त्रैलोका।

हरषित भए गए सब सोकाll

बयरु न कर काहू सन कोई।

राम प्रताप विषमता खोईll

दैहिक दैविक भौतिक तापा।

राम राज नहिं काहुहि ब्यापाll

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा।

सब सुंदर सब बिरुज सरीराll

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।

नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीनाll

सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी।

सब कृतग्य नहिं कपट सयानीll

राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं।

काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख काहुहि नाहिंll(राचमा)
✳यश का अर्जन-
रामराज्य की स्थापना एक सामान्य प्रक्रिया है,जहाँ सभी सुखी हैं और आनन्द से रह रहे हैं;वहीं वनवास के समय में राम को परीक्षा-ही-परीक्षा देनी होती है और सबमें वे सफल होते हैं। श्री राम ने अपने वनवास काल में समाज के दलितों,पिछड़े वर्ग को ही गले लगाया और शक्तिशाली रावण को भी हराया। इस तरह वे यश का अर्जन करते हैं,जबकि रामराज्य के समय गर्भवती महारानी सीता को वनवास देकर,शुद्र तपस्वी शम्बूक का बिना अपराध के वध कर आलोचना के पात्र बन जाते हैं,जिसका लवकुश ने भी वर्णन किया है। अत: निर्विवाद रूप से श्रीराम का रामराज्यकाल से उनका वनवासकाल ही श्रेष्ठता की गिनती में आता है।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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