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विश्व शांति की स्थापना में चरित्र निर्माण की महती भूमिका

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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विश्व शांति दिवस स्पर्धा विशेष……

       कोलकाता की पावन भूमि पर जन्मे बांग्ला भाषा के विश्वविख्यात कवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक ऐसे विश्व की कल्पना की थी,जहाँ मनुष्य का मस्तिष्क भयमुक्त हो और सर सदैव ऊँचा रहे। उनकी सुप्रसिद्ध पुस्तक `गीतांजलि` की यह प्रथम रचना है, वे लिखते हैं-`व्हेयर द माइंड इज विदाउट फेयर एण्ड द हेड इज हेल्ड हाईl`

          विश्ववंद्य बापू ने भी विश्व को सत्य-अहिंसा-सत्याग्रह के मार्ग पर चलने की सीख दी थी,जिसका अभिप्राय `विश्व शांति` स्थापित करना ही था। ऐसे न जाने कितने महापुरुषों ने विश्व शांति की स्थापना के लिए सक्रिय प्रयास किएl आज भी समूचे विश्व की मानव संस्कृति एक मानव विधान को लेकर चलने की ओर अग्रसर है। सभी देश चाहते हैं कि हम शांतिपूर्ण और सुरक्षित जीवन यापन करें। इसी लिए सभी देश कंधे से कंधा मिला कर विश्व की समस्याएँ सुलझाने के प्रयास में लगे हुए हैं। सभी एक-दूसरे की आवश्यकताएँ पूरी कर रहे हैं। तकनीकी संसाधनों ने हमारे बीच की दूरियाँ प्राय: समाप्त कर दी हैं और हम सभी क्षेत्रों में मिलकर कदम बढ़ा रहे हैं।

        प्रकृति स्वयं हमें एकता का पाठ पढ़ा रही है। सूर्य का प्रकाश हमारे बीच कोई भेद नहीं करता। धरती हमारे भरण-पोषण में कोई पक्षपात नहीं करती,तो वायु सम्पूर्ण विश्व को श्वांसों की ऊर्जा दे रही है। मेघ विभिन्न स्त्रोतों से हमें जल प्रदान कर हमारा जीवन सुलभ बनाते हैं। फिर भी विश्व में शांति दिखाई नहीं देती। यही चिन्तनीय है।

       यूँ तो शांति और आतंक प्रारम्भ से ही मानव प्रकृति के दो अभिन्न पहलू हैं। सृष्टि के प्रारम्भ से ही शांति और अशांति हिंसा और अहिंसा,जैसे विपरीत तत्वों का खेल होता आया है,परन्तु चुनौतियों को स्वीकार करना भी मानव की एक पृथक प्रवृत्ति है। वह कभी हार नहीं मानता और आज पूरे मनोयोग से विश्व में शांति स्थापित करने के प्रयास में लगा है।

        दूसरी ओर आज पूरे विश्व के देशों में बच्चों से वृद्धों तक सभी के मस्तिष्क भयाक्रांत हैं। कब-क्या हो जाए,का भय सभी को जीवन की अनिश्चितता का आभास कराता रहता है। कुछ अनैतिक और अमानवीय शक्तियाँ विश्व शांति को भंग करना ही अपना लक्ष्य मानती हैं। इनके दुस्साहसिक कृत्यों की त्रासदी संपूर्ण विश्व झेल रहा है। आज ऐसा लगता है जैसे हम एक आतंकवादी युग में जी रहे हैं। आए-दिन आतंकवादी खून और आग का दरिया बहा रहे हैं। समाज का कोई भी कोना आतंकवाद से अछूता नहीं है। हर जगह इस विष-वृक्ष की काली छाया दृष्टव्य है। भय और त्रास का घिनौना खेल सम्पूर्ण विश्व को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। वस्तुत: आतंकवाद लोकतांत्रिक देशों को निरंकुश राज्य शासन की ओर धकेल रहा है। आतंकवादी शक्तियों का मुख्य उद्देश्य शासन और सत्ता को आतंकी गतिविधियों द्वारा अस्थिर बना कर जनता में ऐसा भय उत्पन्न करना है कि,सरकार उनकी मांगों को मानने के लिए विवश हो जाए।

      जातिय विस्फोट एवं धार्मिक वैमनस्य, बढ़ती हुई आबादी,आर्थिक अस्थिरता एवं बेरोजगारी,शिक्षा का गिरता स्तर,राजनीतिक दलगत कट्टरता,लचर प्रशासनिक नीतियाँ, देशभक्ति का अभाव एवं अराष्ट्रीयता के प्रकोप ने आतंकवाद में जबरदस्त इजाफा किया है।

         आतंक और पूंजीवाद का अन्योनाश्रय सम्बन्ध है। आतंकवाद की आग में पूंजी घी का काम करती है। कभी-कभी तो पूंजी अथवा सत्ता के लालच में आतंक जन्म ले लेता है। धन की आवश्यकता भी कभी-कभी निर्दोष और सीधे-सादे अबोध व्यक्तियों को आतंक की राह पर धकेल देती है। पूंजीवादी लोग ऐसे व्यक्तियों को पूंजी देने का वादा करके या उनकी आवश्यकता की पूर्ति का आश्वासन देकर उन्हें आतंकी बना लेते हैं।

         ये आतंकवाद अनेक रूपों में देखने को मिलता है। प्रथम तो यह बालरूप में देखा जा सकता है। अच्छे संस्कारों की कमी, उद्दंडतापूर्ण वातावरण,विद्यालयों में प्रतिस्पर्धा,झूठी बहादुरी का दिखावा और साहसिक फिल्में देख कर उनकी नकल करना आदि। ऐसे बच्चों की यदि बचपन से रोकथाम न की गई तो भविष्य में ये आतंकवादी का रूप ले लेते हैं। ये दंड के पात्र नहीं,सहानुभूति पूर्ण मानसिक उपचार के पात्र होते हैं। इन्हें प्रेमपूर्ण व्यवहार की आवश्यककता होती है। युवा रूप में-ये बाल आतंक का ही विकसित रूप कहा जा सकता है। महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में अपने वर्चस्व के लिए संघर्षरत छात्रों के बीच प्रतिस्पर्धा के रूप में पनपता है। ऐसे छात्र संघर्ष करते हैं और गुमराह होकर आतंकी बन जाते हैं। नारी समाज के साथ बढ़ते हुए दुराचारों की घटनाएँ ऐसी ही आतंकी घटनाएँ हैं। संगठन और गिरोह के रूप में भारत में ऐसे संगठनों की लम्बी कतार रही है। पंजाब में भिंडरवाले समूह,आल इंडिया सिक्ख फेडरेशन,बब्बर खालसा आदि इसी प्रकार के आतंकी गढ़ हैं,जो अपनी अतिवादी नीतियों एवं अनुचित मांगों को मनवाने के लिये आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर कुछ देशों में आतंकी गतिविधियों के संचालन के लिए न सिर्फ योजनाएँ बनाई  जाती हैं,बल्कि आतंकवादियों को विधिवत प्रशिक्षण,शरण एवं धन भी दिया जाता है। आतंकवाद का वृहद्तम रूप बने अलकायदा और जैश-ए-मोहम्मद आदि आतंकी सरगना विश्व की शांति पर बार-बार ग्रहण लगाते आए हैं।

        हमें विश्व को इस आतंकवाद से मुक्ति दिलाना है तो इस विष-वृक्ष की जड़ को उखाड़ फेंकना होगा और इस तक जाने के लिए इसके छोटे से छोटे बिंदु पर विचार करना होगा। थोड़े से आतंकवादियों या कुछ आतंकी सरगनों का खात्मा कर देने मात्र से शांति स्थापित नहीं हो सकती। हमें कारणों पर जाना होगा और उनकी समाप्ति करना होगी।

                संगठन के रूप में आतंकवाद के बड़े-बड़े गढ़ों को ध्वस्त करने के लिए सभी देशों की प्रशासनिक नीतियों की सराहना की जा सकती है। इन्हें जड़ से समाप्त करने के लिए नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे तक प्रयास होने चाहिएl

         मेरा अभिप्राय है कि,हमें अपनी शिक्षा पद्धति में परिवर्तन लाना ही होगा। समूचे विश्व की शिक्षा व्यवस्था में विश्व शांति की स्थापना हेतु चरित्र निर्माण का विशेष पाठ्यक्रम होना चाहिए और इसकी लिखित एवं प्रायोगिक परीक्षाएँ आयोजित की जाना चाहिए। `आतंकवाद:कारण,प्रभाव और निराकरण` विषय पर शोध छात्र शोध करें और विश्व शांति को एक अनिवार्य विषय के रूप में पाठ्यक्रम में शामिल कराएं।

         ऐसी शिक्षा बच्चों और युवाओं के चरित्र को बनाएगी,उनके मस्तिष्क के भटकाव को दूर करेगी। उन्हें स्वचिन्तन की क्षमता प्रदान करेगी और विश्व शांति के लिए वातावरण तैयार करेगी। तभी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना साकार होगाl सींचना शुरू कर दीजिए,वक्त आने पर फसल उगेगी।

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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