डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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वर्तमान काल में मनुष्य बहुत अशांत है। उसका मन मस्तिष्क स्थिर नहीं रहता है। मन १ मिनिट में ५५ विचारों का सामना करता है। हमारी सबसे अधिक ऊर्जा नेत्रों के अलावा मन की क्रियायों या सोच-विचार से नष्ट होती हैं। इसलिए जब हम शांत होकर शयन या आँख बंद कर आराम करते हैं तो उसके बाद तरोताज़ा महसूस करते हैं। इस समस्या का निदान हमारे पास है। हम कोलाहल को बंद नहीं कर सकते। कोलाहल बाह्य हैं,पर आंतरिक कोलाहल जिसे हम अशांति कहते हैं उससे कैसे मुक्ति पा सकते हैं। मौन का अर्थ चुप रहना नहीं,बल्कि मन,वचन और कार्य में भी एकाग्रता होना है। मुनि का अर्थ है मौन धारण करना। मन की हलन चलन को केन्द्रित करना,जिस प्रकार गहरी नदी ऊपर से शांत,पर अंदर से गतिमान रहती है। हमें बाह्य और आंतरिक शांति स्थापित करना है। इसके लिए मौन और ध्यान बहुत सीमा तक अपने लक्ष्य को पहुंचाने में मदद करते हैं।
मौन का अर्थ अन्दर और बाहर से चुप रहना है। आमतौर पर ‘मौन’ का अर्थ होंठों का ना चलना माना जाता है। यह बड़ा सीमित अर्थ है। कबीर ने कहा है-
‘कबीरा यह गत अटपटी,चटपट लखि न जाए। जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराय।’
अधर मतलब होंठ,होंठ वास्तव में तभी ठहरेंगें,तभी शान्त होंगे,जब मन की खटपट मिट जाएगी। हमारे होंठ भी ज्यादा इसीलिए चलते हैं,क्योंकि मन अशान्त है, और जब तक मन अशान्त है,तब तक होंठ चलें या न चलें,कोई अन्तर नहीं क्योंकि मूल बात तो मन की अशान्ति है। वो बनी हुई है तो किसी को शब्दहीन देखकर ये मत समझ लेना कि वो मौन हो गया है। वो बहुत ज़ोर से चिल्ला रहा है,शब्दहीन होकर चिल्ला रहा है। वो बोल रहा है,बस आवाज़ नहीं आ रही। शब्दहीनता को,ध्वनिहीनता को मौन मत समझ लेना।
मौन है-मन का शान्त हो जाना अर्थात कल्पनाओं की व्यर्थ उड़ान न भरे। आन्तरिक मौन में लगातार शब्द मौजूद भी रहें तो भी,मौन बना ही रहता है।
मौन से संकल्प शक्ति की वृद्धि तथा वाणी के आवेगों पर नियंत्रण होता है। मौन आन्तरिक तप है,इसलिए यह आन्तरिक गहराइयों तक ले जाता है। मौन के क्षणों में आन्तरिक जगत के नवीन रहस्य उद्घाटित होते हैं। वाणी का अपव्यय रोक कर मानसिक संकल्प द्वारा आन्तरिक शक्तियों के क्षय को रोकना परम् मौन को उपलब्ध होना है। मौन से सत्य की सुरक्षा एवं वाणी पर नियंत्रण होता है। मौन के क्षणों में प्रकृति के नवीन रहस्यों के साथ परमात्मा से प्रेरणा मिल सकती है।
मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत,संयम व्रत,अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं,परंतु मौनव्रत अपने-आपमें अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन,तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंध कर किया जा सकता है।
शरीर में ४ वाणी हैं। जैसे कि-परावाणी नाभि (टुन्डी) में,पश्यन्तिवाणी छाती में,मध्यमावाणी कण्ठ (गले में) और वैखरी वाणी मुँह में है। शब्द की उत्पत्ति परावाणी में होती है,परन्तु जब शब्द स्थूल रूप धारण करता है,तब मुँह में रही हुई वैखरी वाणी द्वारा बाहर निकलता है।
देखा जाए तो हम सब ध्यानी हैं। कारण हम जो भी कार्य करते हैं,वह ध्यान पूर्वक करते हैं। कार ध्यान से चलाते हैं, व्यापारी अपने ग्राहक के लिए ध्यान देता है। ध्यान वैसे शुभ और अशुभ होते हैं। जैन दर्शन में ४ प्रकार के ध्यान-आर्त्त ध्यान,रौद्र ध्यान,धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान और उनके भी ४-४ प्रकार बताए गए हैं।
ध्यान एक विश्राम है। यह किसी वस्तु पर अपने विचारों का केन्द्रीकरण या एकाग्रता नहीं है,अपितु यह अपने-आपमें विश्राम पाने की प्रक्रिया है। ध्यान करने से हम अपने किसी भी कार्य को एकाग्रता पूर्ण सकते हैं।
ध्यान के ५ लाभ हैं-शांत चित्त,अच्छी एकाग्रता, बेहतर स्पष्टता,बेहतर संवाद, मस्तिष्क एवं शरीर का कायाकल्प व विश्राम है। ऐसे ही ध्यान के कारण शरीर की आतंरिक क्रियाओं में विशेष परिवर्तन होते हैं और शरीर की प्रत्येक कोशिका प्राणतत्व (ऊर्जा) से भर जाती है,जिससे प्रसन्नता,शांति और उत्साह का संचार भी बढ़ जाता है।
ध्यान से प्रतिरक्षा तंत्र में सुधार आता है।
ऊर्जा के आतंरिक स्रोत में उन्नति के कारण ऊर्जा-स्तर में वृद्धि होती है। ऐसे ही ध्यान के कई मानसिक लाभ हैं-मस्तिष्क की तरंगों के स्वरुप को अल्फा स्तर पर ले आता है,जिससे चिकित्सा की गति बढ़ जाती है। मस्तिष्क पहले से अधिक सुन्दर, नवीन और कोमल हो जाता है। जब भी आप व्यग्र, अस्थिर और भावनात्मक रूप से परेशान होते हैं, तब ध्यान आपको शांत करता है।
ध्यान मस्तिष्क को केन्द्रित करते हुए कुशाग्र बनाता है तथा विश्राम प्रदान करते हुए विस्तारित करता है। बिना विस्तारित हुए एक कुशाग्र बुद्धि क्रोध,तनाव व निराशा का कारण बनती है। ध्यान आपको जागृत करता है कि आतंरिक मनोवृत्ति ही प्रसन्नता का निर्धारण करती है।
ध्यान का कोई धर्म नहीं है और किसी भी विचारधारा को मानने वाले इसका अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान आपमें सत्यतापूर्वक वैयक्तिक परिवर्तन ला सकता है। आप अपने बारे में जितना ज्यादा जानते जाएंगे,प्राकृतिक रूप से आप स्वयं को ज्यादा खोज पाएंगे।
ध्यान के लाभों को महसूस करने के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है। दिनचर्या में एक बार आत्मसात कर लेने पर ध्यान दिन का सर्वश्रेष्ठ अंश बन जाता है। ध्यान एक बीज की तरह है। जब आप बीज को प्यार से विकसित करते हैं तो वह उतना ही खिलता जाता है।
इस प्रकार मौन और ध्यान एक दूसरे के पूरक हैं। बिना मौन के ध्यान नहीं हो सकता है,और ध्यान के लिए मौन आवश्यक है। इनसे हमारा शारीरिक और मानसिक विकास होता है। इनका प्रयोग हमें अपने जीवन में यथाशक्ति करना चाहिए।
परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।