कुल पृष्ठ दर्शन : 6985

You are currently viewing ‘धूमिल’ का काव्य संसार-भाषा और शिल्प की नई जमीन

‘धूमिल’ का काव्य संसार-भाषा और शिल्प की नई जमीन

डॉ. दयानंद तिवारी
मुम्बई (महाराष्ट्र)
************************************

धूमिल ने समाज में स्थित बेकारी,दारिद्र्यता, सामाजिक अनिष्ट रूढ़ियाँ,नारी विषयक दृष्टिकोण, दलितों की स्थिति अनेक समस्याओं से ग्रस्त ग्रामीण जीवन आदि अनेक समस्याओं को अपने काव्य का विषय बनाया और इसमें परिवर्तन लाने के लिए समाज जागृति करने का प्रयास अपनी कविताओं के माध्यम से किया है। धूमिल की कविताओं में देहात और शहर,कविकर्म और राजनीति,सामाजिकता और असामाजिकता, न्याय और अन्याय,अहिंसा और हिंसा,ईमानदारी और बे-ईमानी,जिजीविषा और निराशा आदि प्राय सभी मानव-जीवन के सभ्य और असभ्य अंगों का चित्रण है।
श्रमजीवी और ‘परजीवी’ को आमने-सामने खड़ा करके धूमिल व्यवस्था की उस विसंगति को रेखांकित करना चाहते हैं,जो सही आदमी को असफल और अभावग्रस्त बनाती है और गलत आदमी को सफल और सम्पन्न बनाती है। धूमिल इस विसंगति का सख्त विरोध करते हैं। वे कहते हैं कि मानवीय सम्वेदना ही व्यक्ति को जीने का सही तर्क और तरीका देती है।
धूमिल ने जितना भी लेखन किया है,उसका पूरा लेखा-जोखा ‘मोचीराम’ कविता में है। उनकी कविता में पीड़ा और आक्रोश देखा जा सकता है। आम आदमी का आक्रोश कवि धूमिल की वाणी में घुलता है और शब्द का रूप धारण कर कविताओं के माध्यम से कागजों पर उतरता है। धूमिल ने विधिवत अध्ययन की कमी को जीवन भर झेला कि वामपंथी होने के बावजूद न स्त्रियों को लेकर मर्दवादी सोच से मुक्त हो पाए और न गाँवों व शहरों के बीच पक्षधरता के चुनाव में सम्यक वर्गीय दृष्टि अपना पाए लेकिन खाए-पिए और अघाए लोगों की ‘क्रांतिकारी’ बौद्धिक जुगालियों में गहरा अविश्वास व्यक्त करने में उन्होंने ‘सामान्यीकरण’ और ‘दिशाहीन अंधे गुस्से की पैरोकारी’ जैसे गंभीर आरोप भी झेले। वे प्रायः यह पूछते रहे कि ‘मुश्किलों व संघर्षों से असंग’ लोग क्रांतिकारी कैसे हो सकते हैं?
कवि धूमिल मानते थे कि ‘चंद टुच्ची सुविधाओं के लालची/अपराधियों के संयुक्त परिवार’ के लोग एक दिन खत्म हो जाएंगे और इसी विश्वास के बल से उन्होंने ‘अराजक’ होना कुबूल करके भी निष्ठा का तुक विष्ठा से नहीं भिड़ाया। कविताओं में वर्जित प्रदेशों की खोज करने और छलिया व्यवस्था द्वारा पोषित हर परम्परा,सभ्यता, सुरुचि,शालीनता और भद्रता की ऐसी-तैसी करने को आक्रामक धूमिल ने अपना छायावादी अर्थध्वनि वाला उपनाम भी रख लिया था।
धूमिल ने अपनी छोटी-सी उम्र में ही हिंदी आलोचना की परम्परा से कहानियों की ओर चला आ रहा मुँह घुमाकर कविताओं की ओर कर लेने में सफलता पा ली थी।
कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि वे नामवर सिंह के लठैत की तरह काम करते थे,परन्तु यही कहूंगा कि इसमें इतना ही सही है कि वे नामवर के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते थे। उनके स्वभाव के मद्देनजर ज्यादा सच्ची बात यह है कि जिस भी पल उन्हें लगता कि नामवर उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं,वे उन्हें छोड़ देते और मन में जो आता नामवर को सुना भी देते थे।
धूमिल के जीवनकाल में १९७२ में उनका सिर्फ १ कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था- ‘संसद से सड़क तक।’ उनके निधन के कई बरस बाद ‘कल सुनना मुझे’ छपा और उस पर १९७९ का प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया। बाद में उनका एक और संग्रह छपा ‘सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।’
उनकी सबसे लोकप्रिय कविता में समाज में व्याप्त समस्या की तस्वीर देखी जा सकती है। वे लिखते हैं कि-
‘एक आदमी रोटी बेलता है,
एक आदमी रोटी खाता है,
एक तीसरा आदमी भी है,
जो न रोटी बेलता है,न रोटी खाता है,
वह सिर्फ रोटी से खेलता है।

मैं पूछता हूँ ?
यह तीसरा आदमी कौन है,
और मेरे देश की संसद मौन है…।’
तो अब,जब संसद का मौन कई और दशक लम्बा हो गया है,यह तथ्य और साफ हो गया है कि भारत की विकल्प और विपक्ष दोनों से विरहित जनविरोधी राजनीति का असली प्रतिपक्ष धूमिल की कविताओं में ही बसता है। वे तत्कालीन समाज के सजग प्रहरी हैं। उनकी कविताओं में लोकतंत्र की रक्षा की तड़प रही है। वे उस समय की सत्ता के खिलाफ उस विसंगति को रेखांकित करना चाहते हैं।
हिंदी साहित्य के कई आलोचक यह मानते हैं कि मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद धूमिल हमारे जटिल समय के ताले खोलनेे वाली तीसरी बड़ी आवाज है,जो बम मुक्तिबोध के भीतर कहीं दबा पड़ा है और रघुवीर सहाय के यहां टिकटिक करता नजर आता है,धूमिल की कविता तक आते-आते वह फट पड़ता है।
मुझे तो लगता है कि समाज के हितैषी संघर्ष के कवि धूमिल को यकीनन एक बार फिर नए सिरे से समझे जाने की जरूरत है। यह याद रखते हुए कि कुछ शक्तियों को उन कवि व कविता दोनों से बहुत असुविधा है। धूमिल सच्चे अर्थों में एक जन कवि हैं। उनकी संसद से सड़क तक की कविताएं इस बात की साक्षी है कि धूमिल का कवि संघनित अनुभूतियों का ही कवि नहीं है,बल्कि अनुभूतियों से निकलकर विचारों की यात्रा करना भी उसे प्रिय है। संसद से सड़क तक की कविताएं भावनात्मक रूप से तो पाठक को स्पर्श करती ही हैं,बौद्धिक स्तर पर भी उन्हें प्रेरित करती हैं। भारतीय राजनीति में लोकतंत्र के चरित्र को धूमिल ने अपनी कविता ‘जनतंत्र के सूर्योदय में’ जिस तरह उजागर किया है,वह चकित करता है। उनकी कविताओं में वर्तमान समय के ढेर जरूरी किंतु अनुत्तरित सवाल है।
हर रचनाकार यह जानता है कि खुद से रूबरू होना कितना कठिन होता है,परंतु मोची राम,रामकमल चौधरी के लिए,अकाल दर्शन,गाँव,प्रौढ़ शिक्षा जैसी कई कविताएं धूमिल के गहरे आत्मविश्वास से रूबरू कराती है। कहना न होगा कि जर्जर सामाजिक संरचनाओं और अर्थहीन काव्यशास्त्र को आवेग,साहस,ईमानदारी और रचनात्मक आक्रोश से निरस्त कर देने वाले रचनाकार के रूप में धूमिल अविस्मरणीय है ।
कथ्य और शिल्प देखें तो सुदामा पांडेय ‘ धूमिल’ का शिल्प-विधान और भाषा अपने समकालीन सरोकारों,गंवई सुगंध,ईमानदार व्यक्ति की बगैर लाप-लपेट की एक अनूठी झलक है। इस दृष्टि से उनकी काव्यभाषा सामाजिक संरचना के औचित्य को चुनौती देती है। उनकी नजर में कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है। वे मानते हैं कि ‘ एक सही कविता एक सार्थक व्यक्तव्य होती है।’ वे भाषा लीक की परिपाटी पर चलने वाली भाषा का भ्रम तोड़ना चाहते हैं। वे जनता की यातना और दु:ख से उभरी तेजस्वी भाषा में कविताई करना पसंद करते हैं। वे कहते हैं-आज महत्व शिल्प का नहीं, कथ्य का है,उनका सवाल यह नहीं है कि आपने किस तरह कहा है,सवाल यह है कि आपने क्या कहा है।
धूमिल अपनी कविताओं के जरिए आकाश की बुलंदियां छूते हुए भी अपनी माटी का दर्द नहीं भूलते। उन्हें संसद के साथ अपने खेतों की मेड़, हदबंदी,नीम का पेड़,कौए की कर्कश आवाज,तीरथ पर निकली माँ का चेहरा,बेटी की आँखें और जवान बछड़े की मौत भी याद रहती है। धूमिल ने जिस व्यवस्था पर ७० के दशक में सवाल उठाया था,वो आज भी जस की तस बनी हुई है। सवाल उठाते हुए धूमिल कहते हैं-
‘वह कौन-सा प्रजातांत्रिक नुस्खा है,
कि जिसमें मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों का झोला है,
और ठीक उसी उम्र की,
मेरे पड़ोस की महिला के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।’
उनके काव्य बिंब अपने परवर्ती कवियों से नितांत पृथक हैं। समाज के संपन्न वर्ग के बारे में धूमिल कहते हैं कि-
‘जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए,सबसे भद्दी
गाली है।’
उन्होंने आम जनता की भाषा के शब्दों में विस्फोट की ताकत भरकर उन्हें कविता में स्थान दिया है। धूमिल मानते हैं कि सबके प्रतिरोध का अपना-अपना तरीका होता है। वे कहते हैं कि-
‘जबकि मैं जानता हूँ कि इनकार से भरी हुई एक चीख,
और एक समझदार चुप दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में,चुप और चीख
अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से,
अपना-अपना फर्ज अदा करते हैं।’
यदि किसी साहित्यकार के अवदान को विस्मृत कर दिया जाए तो उसकी कृतियों की पुनर्समीक्षा करनी चाहिए,लेकिन ‘धूमिल’ जैसा कवि जिनकी रचनाएं पूरे देशभर के पाठयक्रम में पढ़ाई जाती हैं, तथा जिनके ऊपर १२५ से भी ज्यादा शोध-कार्य हो चुके हैं और जिनकी पंक्तियों पर स्वनामधन्य ‘बड़े साहित्यकार’ एवं ‘दिग्गज आलोचक’ अपनी दुकान चला रहे हैं,ऐसे समय में जब धूमिल साहित्य के प्रमुख प्रवक्ता माने जाने चाहिए, उन्हें उनकी जयंती पर याद कर निपटाने जैसा आयोजन नहीं होना चाहिए। उन्हें न्याय देने के लिए उनके साहित्य की प्रासंगिकता को समझना चाहिए।
धूमिल आजादी के बाद उस दौर के कवि हैं,जब आजादी से मोहभंग का सिलसिला अपने उफान पर था। ईमानदारी,सच्चाई,भाईचारा,अहिंसा, आजादी आदि अपना अर्थ खो चुके थे। यह वह समय था जब सहानुभूति और प्यार के नाम पर एक आदमी दूसरे को अकेले अंधेरे में ले जाता है और उसकी पीठ पर छुरा मार देता है। सच्चाई एक मूल्य तब बनती है,जब झूठ का बोलबाला हो, अहिंसा मूल्य तब बनती है जब चारों ओर हिंसा की ज्वाला भड़क रही हो,आजादी एक मौलिक मूल्य तब बनती है जब गुलामी की बेड़ियां आजाद होकर खनखना रही हो। इसीलिए असहजता के वातावरण में सहज होना भी कठिन हो गया था। धूमिल का समस्त काव्य संघर्ष सहजता और स्वतंत्रता के लिए किया गया संघर्ष है। वे केवल सहज और स्वतंत्र होना चाहते हैं, ताकि आम को आम और चाकू को चाकू कह सकें,लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं होता। ऐसे ही वातावरण में धूमिल कविता के मैदान में उतरते हैं और तमाम प्रचलित मान्यताओं और परम्पराओं को ध्वस्त कर देते हैं। उनकी कविताओं में उनके समय और समाज की धड़कनों को शब्द बद्ध करने के साथ ही उनका यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया गया है। धूमिल अपनी माँ और चाची की दृष्टि में एक बाघ थे और हिंदी साहित्य के काव्य परिदृश्य में उनकी कविता किसी दहाड़ से कम नहीं है।
धूमिल ने काल्पनिक और व्यक्तिगत भावभूमि को छोड़कर कविता को समसामयिक यथार्थ से जोड़ा। उन्होंने कविता को बिंबों की घटाओं से पूरी तरह निकालकर कविता को अमूर्तन के अंधेरे से उबारा है। एक जगह धूमिल स्वयं लिखते हैं कि-‘भाषा अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही है। कुछ हैं जो भाषा को खा रहे हैं।’ धूमिल ने कविता को एक खास तरह की मुँहफट और खुर्राट ज़बान दी।
सच्चाई यह है कि हर ईमानदार कवि अपनी कविताओं में वर्तमान समय की ढेरों जरूरी विद्रूपताओं को खुलकर कहता और लिखता है। इसीलिए उन पर आरोप है कि विशेष रूप से उनका काव्य नारी के प्रति वितृष्णा से भरा है। ध्यान रहे-यह उनकी सभी कविताओं के साथ जोड़कर न देखें तो न्याय होगा। माँ और पत्नी के प्रति उनका आत्मीय संबंध लाजवाब है। वे अपनी प्रकृति और प्रस्तुति में अद्भुत हैं-धूप माँ की गोद सी गर्म थी। कहकर कवि माँ की महिमा को सिर माथे स्वीकारता है। आज के स्वछन्द समय में प्यार के बारे में लिखते हुए धूमिल यह भी कहते हैं कि-
‘एक सम्पूर्ण स्त्री होने के,
पहले ही गर्भाधान की क्रिया से गुज़रते हुए,
उसने जाना कि प्यार,
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है।’
उनकी कविता और जीवन में जो अराजकता झलकती है,वह दरअसल इस व्यवस्था की दलाली करने वाले दलालों के प्रति गहरे आक्रोश का ही परिणाम है। धूमिल इस दुनिया को खास तौर से इस देश को सम्पन्न, खुशहाल और शोषण मुक्त देखना चाहते हैं इसीलिए उनका आक्रोश अत्यधिक आक्रामक हो उठता है। कहा जा सकता है कि उनकी यह आक्रामक अराजकता ही उनकी कविता की शक्ति है।
दरअसल उनकी कविता नए विम्ब विधान व नए संदर्भों में जनता के संघर्ष के स्वर में स्वर मिलाती है। हिंदी कविता को नए तेवर देने वाले जनकवि धूमिल का योगदान चिरस्मरणीय है। डॉ. बच्चन सिंह ने धूमिल के बारे में कहा है कि-‘वस्तु के बदलाव के साथ धूमिल ने कविता को नई भाषा और नए मुहावरे दिए हैं,जो विपक्ष का पक्ष प्रस्तुत करने में पूर्णतः समर्थ है,क्योंकि बनिया की भाषा तो सहमति की भाषा है।’
यद्यपि शिल्प की तुलना में कथ्य पर धूमिल का आग्रह अधिक है। ऐसा इसलिए है क्योंकि वह यथार्थ को उसके असली या नग्न रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। उनका यही रुझान उनके काव्य शिल्प में भी सामाजिक चेतना का संचार करता है,क्योंकि उनका शिल्प ही उनके कथ्य का संवाहक है।

Leave a Reply