कुल पृष्ठ दर्शन : 220

You are currently viewing आधुनिक हिन्दी के संरक्षक राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन-प्रो. अमरनाथ

आधुनिक हिन्दी के संरक्षक राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन-प्रो. अमरनाथ

हिन्दी के योद्धा……

भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रणी पंक्ति के नेता राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन का राजनीति में प्रवेश हिन्दी प्रेम के कारण ही हुआ। १७ फ़रवरी १९५१ को मुजफ्फरनगर ‘सुहृद संघ’ के वार्षिकोत्सव के अवसर पर टण्डन जी ने कहा था-“हिन्दी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया,क्योंकि मेरे हृदय पर हिन्दी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया…हिन्दी साहित्य के प्रति मेरे(उसी)प्रेम ने उसके स्वार्थों की रक्षा और उसके विकास के पथ को स्पष्ट करने के लिए मुझे राजनीति में सम्मिलित होने को बाध्य किया।” राजर्षि में बाल्यकाल से ही हिन्दी के प्रति अनुराग था। इस प्रेम को बालकृष्ण भट्ट और मदन मोहन मालवीय ने प्रौढ़ता प्रदान की। १० अक्टूवर १९१० को काशी में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन महामना मालवीय जी की अध्यक्षता में हुआ और टण्डन जी सम्मेलन के मंत्री नियुक्त हुए। तदनन्तर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के माध्यम से हिन्दी की अत्यधिक सेवा की। टण्डन जी ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए हिन्दी विद्यापीठ प्रयाग की स्थापना की। पीठ की स्थापना का उद्देश्य हिन्दी शिक्षा का प्रसार और अंग्रेजी के वर्चस्व को समाप्त करना था। सम्मेलन हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ सम्पन्न करता थाl इन परीक्षाओं से दक्षिण में भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार हुआ। सम्मेलन के इस कार्य का प्रभाव महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भी पड़ा,अनेक महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम को मान्यता मिली। वे जानते थे कि सम्पूर्ण भारत में हिन्दी के प्रसार के लिए अहिन्दी भाषियों का सहयोग अपेक्षित है। शायद उनकी इसी सोच का परिणाम था सम्मेलन में गाँधी का लिया जाना। आगे चलकर ‘हिन्दुस्तानी’ के प्रश्न पर टण्डन जी और महात्मा गाँधी में मतभेद हुआ। गाँधी जी हिन्दुस्तानी के समर्थक थे। उन्होंने गुजरात शिक्षा सम्मेलन(भड़ौच) में अपने भाषण में कहा है,-“ऐसी दलील दी जाती है कि हिन्दी और उर्दू दो अलग-अलग भाषाएं हैं। यह दलील सही नहीं है। उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू दोनों एक ही भाषा बोलते हैं। भेद पढ़े-लिखे लोगों ने डाला है। इसका अर्थ यह है कि हिन्दू शिक्षित वर्ग ने हिन्दी को केवल संस्कृतमय बना दिया है। इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते। लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उर्दू में फारसी भर दी है और उसे हिन्दुओं के समझने के अयोग्य बना दिया है। ये दोनों केवल पंडिताऊ भाषाएं हैं,और उनको जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है(संपूर्ण गाँधी वाँग्मय,खण्ड-१४, प्रकाशन विभाग,भारत सरकार,१९६५, पृष्ठ-२०-२०)।”
इस विषय पर लम्बे समय तक टण्डन जी और महात्मा गाँधी के बीच पत्र व्यवहार होता रहा। टंडन जी हिन्दी के समर्थक थे-अपेक्षाकृत संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के। डॉ. भीमराव आम्बेडकर के अनुसार तो,काँग्रेस की बैठक में होने वाले मतदान में ७८ के मुकाबले ७७ मतों से हिन्दुस्तानी हार गई और वह १ मत सभाध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का था। एक लम्बे विवाद के बाद जब इस प्रश्न पर मतदान हुआ,तो दोनों पक्ष में ७८ मत थे। राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को स्थान १ मत से मिला। यद्यपि इस बारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि,कांग्रेस की जिस बैठक का उल्लेख डॉ. आम्बेडकर ने किया है,वह किस तारीख को और कहाँ हुई थी।
इसके बाद जैसे-जैसे आजादी करीब आती गई,२ राष्ट्रों के सिद्धांत को बल मिलता गया और साम्प्रदायिकता बाढ़ की तरह उफनती गई। जुलाई १९४७ में कांग्रेस ने देश विभाजन को सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया। ऐसी दशा में हिन्दी और हिन्दुस्तानी के मसले को नए ढंग से देखा जाने लगा। नेताओं ने उर्दू को भी विभाजन को बढ़ावा देने वाली भाषा के रूप में देखा और इस तरह हिन्दी और उर्दू को हिन्दू और मुस्लिम से जोड़कर देखने वालों की संख्या बढ़ती गई। अंतत:,गाँधी जी के समन्वय और धर्मनिरपेक्षतावादी दृष्टिकोण के पक्ष में आवाजें मंद पड़ती गईं और १७ जुलाई १९४७ को संविधान सभा के बाहर कांग्रेस की बैठक में हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर मतदान हुआ, जिसमें ३२ के मुकाबले ६३ मतों से हिन्दी की जीत हुई। एक दूसरे मतदान में देवनागरी के पक्ष में ६३ और विरोध में १३ मत पड़े। जाहिर है सन् १९४९ में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया तो भाषा संबंधी इस मुद्दे को ऐतिहासिक परिणति तक पहुँचाने में राजर्षि टण्डन की भूमिका अन्यतम थी।
टंडन जी को गाँधी जी ने २५ मई १९४५ को लिखे अपने पत्र में कहा है,-“मेरे पास उर्दू में खत आते हैं,हिन्दी में आते हैं और गुजराती में। सब पूछते हैं कि,मैं कैसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन में रह सकता हूँ और हिन्दुस्तानी भाषा में भी ? वे कहते हैं,सम्म्लन की दृष्टि में हिन्दी ही राष्ट्रभाषा हो सकती है,जिसमें नागरी लिपि को ही राष्ट्रीय स्थान दिया जाता है। जब मैं सम्मेलन की भाषा और नागरी लिपि को पूरा राष्ट्रीय स्थान नहीं देता हूँ,तब मुझे सम्मेलन में से हट जाना चाहिए..ऐसी दलील मुझे योग्य लगती हैl इस हालत में क्या सम्मेलन से हटना मेरा फर्ज नहीं होता है ? ऐसा करने से लोगों को दुविधा न रहेगी और मुझे पता चलेगा कि मैं कहाँ हूँ।” जवाब में टण्डन जी ने लिखा,-“पूज्य बापूजी,आपका पत्र मुझे मिला। आपको स्वयं हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सदस्य रहते हुए लगभग २७ वर्ष हो गए। इस बीच आपने हिन्दी प्रचार का काम राष्ट्रीयता की दृष्टि से किया। वह सब काम गलत था,ऐसा तो आप नहीं मानते होंगे। राष्ट्रीय दृष्टि से हिन्दी का प्रचार वांछनीय है,यह तो आपका सिद्धांत है ही। आपके नए दृष्टिकोण के अनुसार उर्दू-शिक्षण का भी प्रचार होना चाहिए। यह पहले काम से भिन्न एक नया काम है,जिसका पिछले काम से कोई विरोध नहीं है। सम्मेलन हिन्दी को राष्ट्रभाषा मानता है। उर्दू को वह हिन्दी की एक शैली मानता है,जो विशिष्टजनों में प्रचलित है। स्वयं वह हिन्दी की साधारण शैली में काम करता है,उर्दू शैली का नहीं। आप हिन्दी के साथ उर्दू को भी चलाते हैं। सम्मेलन उसका तनिक भी विरोध नहीं करता, किन्तु राष्ट्रीय कामों में अंग्रेजी को हटाने में वह उसकी सहायता का स्वागत करता है। भेद केवल इतना ही है कि आप दोनों चलाना चाहते हैं। सम्मेलन आरंभ से केवल हिन्दी चलाता आया है। इस दृष्टि से मेरा निवेदन है कि मुझे इस बात का कोई अवसर नहीं लगता कि आप सम्मेलन छोड़ें…मुझे जो बात उचित लगी,ऊपर निवेदन किया किन्तु यदि आप मेरे दृष्टिकोण से सहमत नहीं हैं और आपकी आत्मा यही कहती है कि सम्मेलन से अलग हो जाऊं तो आपके अलग होने की बात पर बहुत खेद होते हुए भी नतमस्तक हो आपके निर्णय को स्वीकार करूंगा।”
गाँधी जी ने टण्डन जी के उक्त पत्र का विस्तार से जवाब दिया। इसके बाद फिर टंडन जी ने लगभग ५ पृष्ठ का पत्र गाँधी जी को लिखा। इस तरह लम्बे पत्राचार के बाद अन्तत: सेवाग्राम से २५ जुलाई १९४५ को गाँधी जी को लिखना पड़ा,-“आपका पत्र मिला। मैंने दो बार पढ़ा। बाद में भाई किशोरीलाल को दिया। वे स्वतंत्र विचारक हैं,आप जानते होंगे। उन्होंने जो लिखा है सो भी भेजता हूँ। मैं तो इतना ही कहूंगा,जहां तक हो सका मैं आपके प्रेम के अधीन रहा हूँ। अब समय गया है कि वही प्रेम मुझे आपसे वियोग कराएगा। मैं अपनी बात नहीं समझा सका हूँ। यही पत्र आप सम्मेलन की स्थाई समिति के पास रखें। मेरा ख्याल है कि सम्मेलन ने मेरी हिन्दी की व्याख्या अपनायी नहीं है। राष्ट्रभाषा की मेरी व्याख्या में हिन्दी और उर्दू लिपि और दोनों शैलियों का ज्ञान आता है। मुझे डर है कि मेरी यह बात सम्मेलन को चुभेगी,इसलिए मेरा इस्तीफा कबूल किया जाए। हिन्दुस्तानी प्रचार सभा का कठिन काम करते हुए मैं हिन्दी की सेवा करूँगा और उर्दू की भी।” और इस तरह हिन्दुस्तानी और हिन्दी के विवाद में महात्मा गाँधी का दशकों पुराना संबंध हिन्दी साहित्य सम्मेलन से टूट गया।
हिन्दी के स्वरूप को लेकर उन दिनों काँग्रेस के भीतर ही २ गुट हो गए-एक गाँधीजी की हिन्दुस्तानी का पक्षधर और दूसरा टण्डन जी की हिन्दी का। राजर्षि टण्डन के संघर्ष का ही परिणाम था कि गाँधी,नेहरू,मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि द्वारा हिन्दुस्तानी के समर्थन के बावजूद काँग्रेस की बैठक में होने वाले मतदान में हिन्दुस्तानी हार गई। इसके बाद जैसे-जैसे आजादी करीब आती गई,दो राष्ट्रों के सिद्धांत को बल मिलता गया। स्वाभाविक था हिन्दी और उर्दू को हिन्दू और मुस्लिम से जोड़कर देखने वालों की संख्या बढ़ती गई। इस बीच देश विभाजित हो चुका था और पाकिस्तान उर्दू को अपनी राष्ट्रभाषा घोषित कर चुका था। जाहिर है सन् १९४९ में ११ से १४ सितंबर तक लगातार चलने वाली बहस के बाद संविधान सभा ने देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया।
प्रसिद्ध साहित्यकार लक्ष्मीनारायण सुधांशु हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रति राजर्षि टण्डन के योगदान का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-‘‘उन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य क्षेत्र में कोई सर्जनात्मक कृति नहीं दी है,कुछ तुकबन्दियों तथा लेखों के अतिरिक्त उन्होंने और कुछ नहीं लिखा,लेकिन उनकी वास्तविक कृति है अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का संगठन। इसके द्वारा उन्होंने हिन्दी साहित्य की परीक्षाओं का जो संचालन किया,उससे साधारण जनता में हिन्दी साहित्य के प्रति अभिरुचि,साहित्य की जानकारी और लोक साहित्य में जागृति की भूमिका बनी। १९१०-१९५० के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के प्रचार- प्रसार का श्रेय टण्डन जी को है। इसीलिए लोग उन्हें राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्राण कहा करते थे।
‘हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों’,‘मातृभाषा की महत्ता’,‘भाषा का सवाल’,‘गौरवशाली हिन्दी’,‘हिन्दी की शक्ति’,‘कवि और दार्शनिक’ आदि विषयों पर टण्डन जी के निबंध प्रकाशित हैं। पुरुषोत्तमदास टण्डन के बहुआयामी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को देखकर उन्हें ‘राजर्षिकी उपाधि से विभूषित किया गया। १५ अप्रैल सन् १९४८ की संध्या बेला में सरयू तट पर वैदिक मंत्रोच्चार के साथ संत देवरहा बाबा ने उन्हें 'राजर्षि की उपाधि से अलंकृत किया। भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोत्तम सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया। हम हिन्दी के लिए किए गए उनके महान योगदान का स्मरण करते हैं,और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

Leave a Reply