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प्रकृति का अनमोल उपहार नदी

डॉ. वंदना मिश्र ‘मोहिनी’
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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नदियाँ कभी रुकती नहीं हैं,एक बार कदम आगे बढ़ाती है तो वापस नहीं आती। जहाँ से शुरू होती है,वापस कभी वहाँ नहीं लौटती। नदियाँ,जिंदगी की तरह होती है। रास्ते में आने वाला पत्थर उसका नया रास्ता तय करता है,और वह कभी-कभी तो रास्ते में आने वाले पत्थर को तोड़ आगे बढ़ जाती है। बहुत समानता है,नारीऔर नदी में,शायद इसीलिए नारी को भावनाओं की नदी कहा जाता हैं,क्योंकि वो कितने रिश्तों को अपने अंदर समेट बहती है,इस जीवन रूपी नदी में कितने अवरोध को पार करते हुए।
‘नदी’ शब्द संस्कृत के ‘नद्यः’ से आया है। नदी के साथ मनुष्य का गहरा सम्बंध है। नदियों से केवल फसल ही नहीं उपजाई जाती है,बल्कि वे सभ्यता को जन्म देती हैं,अपितु उसका लालन-पालन भी करती हैं। जैसे नारी सिर्फ भोग करने की वस्तु नहीं,बल्कि सृष्टि की निमार्णकर्ता होती है। इसलिए मनुष्य हमेशा नदी को देवी के रूप में देखता आया है,फिर नारी को क्यों नहीं ? क्यों वो नारी पर अपनी विजय हासिल कर अपने पुरुष होने का दम्भ रखता है।
नारी के बिना मनुष्य जीवन की कल्पना नहीं जा सकती है। हर व्यक्ति स्त्री का अपने-अपने हिसाब से आँकलन करता है। कोई उसे पवित्र मान कर देवी की तरह अपने जीवन में स्थान देता है,तो वहीं कुछ अपवित्र करने से नहीं चूकते।
आध्यात्मिक स्तर पर यह माना जाता है कि पानी की स्वच्छ करने की शक्ति आंतरिक बाधाओं को दूर करने में सहायता करती है। उसी तरह एक नारी में भी ऐसी असीम आंतरिक शक्ति होती है अपने आस-पास की सकारात्मक और नकारात्मक घटनाओं को पहचानने की। जब हम नदी में डुबकी लगाते हैं,तो पानी हमारे नकारात्मक विचारों को अवशोषित कर लेता है। जब ऋषि नदियों के किनारे तपस्या करते हैं,तो नदी उन नकारात्मक विचारों से मुक्त हो जाती है और पानी पवित्र हो जाता है। नारी भी उसी नदी की तरह है,जो इनसे पवित्र मन से जुड़ते हैं,वह उन्हें पवित्र कर देती है। स्त्री और पुरुष नदी के दो किनारे होते हैं,जिनके सहारे जीवनरूपी नदी आगे बहती रहती है।
नदियों से जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक और स्वच्छ जल प्राप्त होता है। यही कारण है कि अधिकांश प्राचीन सभ्यताएं,जनजातियाँ नदियों के समीप ही विकसित हुईं। उसी तरह जैसे परिवार की केन्द्र बिंदु स्त्री होती है। वह संस्कृति की वाहक होती है।
नदियां न केवल जल प्रदान करती है,बल्कि घरेलू एवं औद्योगिक गंदे व अपशिष्ट पानी को अपने साथ बहाकर ले भी जाती है,जैसे स्त्री समाज से गन्दगी को हटाने का कार्य करती है। नदियों पर बांध बनाकर उन्हें बांध दिया जाता है,उसी तरह स्त्री को भी कितनी ही बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है,फिर भी वह सृजन ही करती है,क्योंकि वह सृजन की वाहक है,प्रलय की नहीं।
हमारे भारत देश में नदियों की पूजा करने की परम्परा अर्वाचीन रही है। नदियों को देवी-देवताओं के समक्ष माना जाता रहा है। अनेक नदियों को देवी स्वरूप मानकर उनकी पूजा करना हमारी संस्कृति की ही परम्परा रही है। आज भी लगभग सभी नदियों को माँ के रुप में सम्मान दिया जाता है। गंगा ही नहीं, देश की दूसरी नदियों के प्रति भी हमारे मन में गहरी आस्था है। यह हमारे संस्कार का हिस्सा बन चुका है। देश की दूसरी नदियों को भी हम गंगा से कम महत्वपूर्ण नहीं मानते हैं। ऐसा माना जाता है कि नर्मदा माता को देखने से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। हर नदी की कोई न कोई अपनी गाथा है,तो क्या कोई पुरुष वर्ग नारी को इतनी सहजता से इस रूप में स्वीकार कर पाता है।
हिंदू धर्म में लोग जिस तरह आसमान में सप्त ऋषि के रूप में सात तारों को पूज्य मानते हैं, उसी तरह पृथ्वी पर सात नदियों को पवित्र मानते हैं। जिस प्रकार आसमान में-ऋषि भारद्वाज,ऋषि वशिष्ठ,ऋषि विश्वामित्र,ऋषि गौतम,ऋषि अगत्स्य,ऋषि अत्रि एवं ऋषि जमदग्नि अपने भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए विराजमान हैं,वैसे ही पृथ्वी पर सात नदियां-गंगा,यमुना,सरस्वती,नर्मदा,कावेरी, शिप्रा एवं गोदावरी अपने भक्तों की सुख एवं समृद्धि का प्रतीक मानी जाती हैं। गंगा नदी को स्वर्ग लोक से पृथ्वी पर लाने के लिए राजा भगीरथ द्वारा भगवान महादेव के तप की पौराणिक कथा पूरे देश में लोकप्रिय है।
फिर भी लोग उसे गंदा करने से नहीं चूकते। क्यों उसकी पवित्रता से खेलते हैं,जबकि वो कितना-कुछ सहती हुई अपने जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़ती है। वह जानती है कि उसे एक दिन समुद्र में मिलना है। यही उसकी नियति है,फिर भी वह हार नहीं मानती। वह हद में रह कर लगातार अपने में कितना कुछ समेटे सह जाती है। प्रसाद की कुछ पंक्तियाँ कितनी सार्थक है कि-
‘नारी! तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में।
देवों की विजय,दानवों की,
हारों का होता-युद्ध रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित,
रह नित्य-विरूद्ध रहा।’
पुरुष को अपनी पुरूषवादी सोच से बाहर निकल कर नारी का सम्मान करना सीखना होगा। इसके लिए खुद से संकल्प लेना होगा और स्वयं से किया यह संकल्प हर हाल में निभाना होगा। यही उनकी सच्ची पूजा होगी, चाहे वो फिर नारी हो या नदी। तभी हम प्राकृतिक आपदा या मनुष्य द्वारा पैदा की गई आपदा पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय-डॉ. वंदना मिश्र का वर्तमान और स्थाई निवास मध्यप्रदेश के साहित्यिक जिले इन्दौर में है। उपनाम ‘मोहिनी’ से लेखन में सक्रिय डॉ. मिश्र की जन्म तारीख ४ अक्टूबर १९७२ और जन्म स्थान-भोपाल है। हिंदी का भाषा ज्ञान रखने वाली डॉ. मिश्र ने एम.ए. (हिन्दी),एम.फिल.(हिन्दी)व एम.एड.सहित पी-एच.डी. की शिक्षा ली है। आपका कार्य क्षेत्र-शिक्षण(नौकरी)है। लेखन विधा-कविता, लघुकथा और लेख है। आपकी रचनाओं का प्रकाशन कुछ पत्रिकाओं ओर समाचार पत्र में हुआ है। इनको ‘श्रेष्ठ शिक्षक’ सम्मान मिला है। आप ब्लॉग पर भी लिखती हैं। लेखनी का उद्देश्य-समाज की वर्तमान पृष्ठभूमि पर लिखना और समझना है। अम्रता प्रीतम को पसंदीदा हिन्दी लेखक मानने वाली ‘मोहिनी’ के प्रेरणापुंज-कृष्ण हैं। आपकी विशेषज्ञता-दूसरों को मदद करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“हिन्दी की पताका पूरे विश्व में लहराए।” डॉ. मिश्र का जीवन लक्ष्य-अच्छी पुस्तकें लिखना है।

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