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चीन एवं चंदे पर ओछी राजनीति

ललित गर्ग
दिल्ली

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गलवान घाटी घटना पर देश में इन दिनों जमकर राजनीति हो रही है,विभिन्न शीर्षस्थ राजनीतिक दल फौज का मनोबल गिराने वाले बयान दे रहे हैं। ऐसा लग रहा है गलवान घाटी में भारत की मुठभेड़ चीन से हुई,लेकिन असली दंगल भाजपा और कांग्रेस के बीच हो रहा है। दोनों दल एक-दूसरे पर इतने जमकर हमले कर रहे हैं कि,जितने भारतीय और चीनी नेताओं ने एक-दूसरे पर नहीं किए होंगे। इन्हीं आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच राजनीतिक दलों को मिलने वाले विदेशी चंदे को लेकर भी गर्मा-गर्म बहस छिड़ी हुई है। कांग्रेसी नेताओं ने प्रधानमंत्री का नया नामकरण करते हुए चीन के आगे घुटने टेकने का आरोप यह कहकर भी जड़ दिया कि ‘पीएम केयर्स फंड’ में भाजपा ने चीनी कम्पनी से ७ करोड़ रु. का दान ले लिया है। इस पर भाजपा और सरकार का भड़कना स्वाभाविक था। उसने अब सोनिया-गांधी परिवार के ३ न्यास पर जांच बिठाते हुए यह आरोप लगाया है कि उन्होंने चीनी सरकार और चीनी दूतावास से करोड़ों रु. स्वीकार किए हैं। इस पर कांग्रेसी नेता भाजपा सरकार पर आरोप लगा रहे हैं कि वह चीन से तो पिट ही गई है लेकिन कांग्रेस पर फिजूल गुर्रा रही है। इस जंग में कांग्रेस यह जानना चाहती है कि पीएम केयर्स फंड में कितना रुपया कहां से आया है,क्यों आया है और उसका क्या इस्तेमाल हुआ है ? इसके अलावा उसने यह मांग भी की है कि भाजपा से जुड़े कई न्यास और संगठनों की जांच करने से मोदी सरकार क्यों बिदक रही है? ऐसा लग रहा है कि अपने दागों को छिपाने के लिये सभी राजनीतिक दल महाभारत तो कर रहे हैं,नया भारत कोई नहीं बना रहा है।
‘कोरोना’ महाव्याधि एवं चीन सहित पड़ोसी देश से जूझ रहे भारत के निर्माण का महायज्ञ आज ‘महाभारत’ बनता जा रहा है,मूल्यों और मानकों की स्थापना का यह उपक्रम किस तरह लोकतंत्र को खोखला करने का माध्यम बनता जा रहा है,यह गहन चिन्ता और चिन्तन का विषय है। विशेषतः देश की सुरक्षा-संरक्षा की बजाय आर्थिक विसंगति व विषमताओं की वकालत करने का राजनीतिक दलों का नंगा नाच अशोभनीय परिदृश्य प्रस्तुत कर रहा है। राजनीतिक दलों की मंशा एवं मनोवृत्ति प्रश्नों से घिरी है,जबकि उनकी निष्पक्षता और पवित्रता को कायम रखकर ही हम लोकतंत्र में नई प्राण ऊर्जा का संचार कर सकेंगे।
राजनेता सत्ता के लिए सब कुछ करने लगा और इसी होड़ में राजनीति के आदर्श ही भूल गया,यही कारण है कि,देश के राजनीतिक दलों विशेषतः कांग्रेस की फिजाओं में आर्थिक विषमताओं और विसंगतियों का जहर घुला हुआ है और कहीं से रोशनी की उम्मीद दिखाई नहीं देती। एक बड़े सवाल का जबाव चाहिए कि इन राजनीतिक दलों में पैसा कहां-कहां से आया है ? वास्तव में राजनीतिक दलों और नेताओं से जुड़े इन सभी न्यास पर कड़ी निगरानी एवं पारदर्शिता जरूरी है। सच्चाई यह है कि बिना भ्रष्टाचार किए राजनीतिक दलों का चलना संभव ही नहीं है,क्योंकि उनकी इतनी फिजूल खर्चियां हैं कि स्वच्छ दान से उनका काम नहीं चल सकता। राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। यह कानूनन अनिवार्य किया जाना चाहिए कि इन न्यासों की आमदनी और खर्च का संपूर्ण विवरण हर साल सार्वजनिक किया जाए और किसी भी न्यास में एक परिवार का एक ही आदमी रखा जाए। राजनीतिक दलों का काम राजनीतिक भ्रष्टाचारियों,अपराध को मंडित करने वालों,कालेधन एवं सत्ता का दुरुपयोग करने वालों के बिना चल ही नहीं सकता,इस विडम्बनापूर्ण सच्चाई को झूठलाना अब जरूरी हो गया है। अन्यथा विकास दुबे जैसे राजनीतिक अपराधी नयी शक्ल में आते रहेंगे।
लोकतन्त्र को मजाक समझने वाले इन नेताओं को तो यह तक पता नहीं कि पिछले सात दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी से जूझ रहे देश के युवकों को क्या चाहिए ? कोरोना से मुक्ति क्यों जरूरी है ? चीन को करारा जबाव देना क्यों जरूरी हो गया था ? ये लोग उस जुल्मी शिक्षा व्यवस्था के बारे में बात करना तक उचित नहीं समझते जिसने गरीब घरों के मेधावी नौजवानों को धन न होने की वजह से उच्च शिक्षा प्राप्त करने से रोक दिया है। ये नेता चिकित्सा व्यवस्था की चरमराती स्थितियों पर मौन धरे हैं।
देश दु:ख,दर्द और संवेदनहीनता के जटिल दौर से रूबरू है,समस्याएं नये-नये मुखौटे ओढ़कर डराती हैं,भयभीत करती हैं। समाज में बहुत कुछ बदला है,मूल्य,विचार,जीवन-शैली,वास्तुशिल्प सबमें परिवर्तन है। मुश्किलें, अड़चनें,तनाव-ठहराव की स्थितियों के बीच हर व्यक्ति अपनी जड़ों से दूर होता जा रहा है। चुनाव प्रक्रिया बहुत खर्चीली होती जा रही है। ईमानदार होना आज अवगुण है। अपराध के खिलाफ कदम उठाना पाप हो गया है। धर्म और अध्यात्म में रुचि लेना साम्प्रदायिक माना जाने लगा है। किसी अनियमितता का पर्दाफाश करना पूर्वाग्रह माना जाता है। सत्य बोलना अहम् पालने की श्रेणी में आता है। साफगोई अव्यावहारिक है। भ्रष्टाचार को प्रश्रय नहीं देना समय को नहीं पहचानना है। देश के शीर्ष राजनीतिक दल आपस में एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की बहसों के परिप्रेक्ष्य में इन और ऐसे बुनियादी सवालों पर चर्चा को जरूरी क्यों नहीं मानता ? आखिर कब तक राजनीतिक स्वार्थों के नाम पर नयी गढ़ी जा रही ये परिभाषाएं समाज और राष्ट्र को वीभत्स दिशाओं में धकेलती रहेगी ? विकास की बजाय थोथे आश्वासनों एवं घोषणाओं की तेज आंधी के नाम पर हमारा देश,हमारा समाज कब तक भुलावे में रहेगा ? विचारणीय यह भी है कि राजनीतिक दलों को दान देनेवाले की पात्रता देखी जाए या नहीं ? कोई अपराधी,कोई स्वार्थी,कोई विरोधी या कोई अनैतिक व्यक्ति आपके राजनीतिक दलों के न्यास में दान दे रहा हो तो उससे दान क्यों लिया जाए ?
यहां नेताओं के नाम उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं न ही राजनीतिक दल,महत्वपूर्ण है यह तथ्य कि इस तरह का कूपमण्डूकी राजनीतिक एवं विपक्षी नेतृत्व कुल मिलाकर देश की राजनीति को छिछला ही बना रहा है। सकारात्मक राजनीति के लिए जिस तरह की नैतिक निष्ठा की आवश्यकता होती है,और इसके लिए राजनेताओं में जिस तरह की परिपक्वता की अपेक्षा होती है,उसका अभाव एक पीड़ादायक स्थिति का ही निर्माण कर रहा है। और हम हैं कि ऐसे नेताओं के निर्माण में लगे हैं।

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