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विघ्नहर्ता गणेशजी कर्ता-धर्ता एवं संहर्ता

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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श्री गणेश चतुर्थी स्पर्धा विशेष…..

श्रीगणेश जी को विघ्नहर्ता कहा जाता है। इसीलिए किसी शुभकार्य के निमंत्रण में भी पहले गणेश जी की स्तुति की जाती है,ताकि शुभकार्य के संपन्न होने में कोई विघ्न नहीं हो, श्रीगणेश जी विघ्नहर्ता जो हैं।
श्रीगणेश जी को मंगलमूर्ति भी कहा जाता है, तभी उनके नाम से ही शुभ या अच्छा होने का भाव स्वत: जग जाता है।
श्रीगणेश जी की मूर्ति देखने से भी एक आनन्द मिश्रित हास्य का भाव मन में जगता है,क्योंकि देव,मनुष्य आदि से विपरीत उनका सिर हाथी का है और अपने सूंड़ से वे मोदक या लड्डू खाते रहते हैं।
इस विस्मयकारी मूर्ति को देखने से ही इसकी उत्पत्ति की जिज्ञासा होती है,जिस बारे में कई दन्त कथाएँ प्रचलित हैं। उनमें से एक के अनुसार गणेश जी की माँ पार्वतीजी कभी एकान्तवास चाहती थीं,तो अपने पुत्र गणेश को द्वार पर खड़ा कर देती हैं और सख्त आदेश देती हैं कि कोई अंदर नहीं जाने पाए। तभी भगवान शंकर वहाँ आ जाते हैं और अपनी पत्नी पार्वतीजी से मिलने अंदर जाना चाहते हैं,पर कर्तव्य-पालन में दृढ़ गणेशजी शिवजी को नहीं जाने देते हैं। शिवजी को यह मालूम नहीं था कि गणेश पार्वती-पुत्र,और इस तरह वे उनके भी पुत्र हैं। अत: एक पति को अपनी पत्नी से मिलने जाने पर रोकने से वे अति क्रुद्ध हो जाते हैं और फलत: दोनों में भयानक युद्ध हो जाता है। परिणाम स्वरूप शिवजी अपने त्रिशूल से गणेशजी का सिर काट कर दूर फेंक देते हैं,फिर पार्वती से मिलने जाते हैं और गणेश से युद्ध की बात बताते हैं तो पार्वतीजी पुत्र के मारे जाने पर दु:ख-शोक से रोने लगती हैं। वे बताती हैं कि गणेश उनका ही पुत्र है तथा गणेश की माँग करने लगती हैं,लेकिन गणेश का तो सिर भी उन्होंने कहीं फेंक दिया था,जो नहीं मिला। तब शिवजी ने कहा कि कोई बच्चा जो उत्तर सिर कर सोया हो ओर माँ की पीठ की तरफ सोया हो,उसका सिर काटकर ले आएं,ताकि उसका सिर गणेश के धड़ पर लगाकर उसे जोड़कर वे जिला(जिंदा)सकें। शिवजी के गणों ने इसकी खोज की,पर कोई मनुष्य का बच्चा पा न सके,केवल हाथी का एक बच्चा इस हालत में मिला,जिसका सिर वे काटकर ले आए। शिवजी ने उन दोनों को मिलाकर जोड़ दिया और गणेशजी हाथी का सिर लगा हुआ होने पर जी उठे। वही गणेश जी आज तक पूजे जा रहे हैं।

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि,जब आज कोई भी धड़ और सिर को जोड़कर मृत को जिला नहीं सकता है,तो उस समय शिवजी वह पद्धति अपनाकर कैसे जिला दिए ? यही बताता है उस समय शल्यक्रिया चिकित्सा कितनी उन्नत थी,जिसकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

एक बार देवों में प्रतियोगिता हुई कि जो तीनों लोकों की परिक्रमा कर सबसे पहले आ जाएगा,वही प्रथम पूजित होगा। सभी देव परिक्रमा पर निकल गए,पर गणेशजी ने अपने मूषक वाहन पर ही बैठकर माता-पिता पार्वती और शिव की ही तीन बार परिक्रमा कर ली और व्यक्त कर दिया कि उन्होंने तीनों लोकों की परिक्रमा कर ली,क्योंकि किसी के मता-पिता ही उसके तीनों लोक हैं। गणेशजी की इस बुद्धिमत्ता पूर्ण बात को सभी देवों ने सही माना और गणेश जी को प्रथम पूज्य मान लिया।

गणेश जी विघ्नहर्ता हैं,क्योंकि वेदों में ‘गणानांत्वा गणपतिं हवामहे’ से गणेश जी की वंदना की जाती है,जो मंङ्गलमूर्ति और विघ्नविनाशक हैं। उसी शास्वत दिव्य परम्परा का पालन करते हुए ‘वन्दे वाणीविनायकौ’ से श्री रामचरितमानस का प्रारंभ तुलसीदास जी ने किया।
श्री गणपति स्तवन को तुलसीदास जी ने ‘विनय’ पत्रिका की प्रथम रचना में ही गणेश-स्तुति के रूप में रखा है,जो है-

‘गाइये गणपति जग वंदन। संकर-सुवन भवानी नंदन॥
सिद्धि सदन गज-वदन विनायक। कृपा-सिंधु, सुंदर,सब-लायक॥
मोदक प्रिय,मुद-मंगल-दाता। विद्या-वारिधि, बुद्धि-विधाता॥
मांगत तुलसीदास कर जोरे। बसहिं रामसिय मानस मोरे॥’

वैदिक वंदन में गणेशजी के बारे में कहा गया है-
‘नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम्।
न ऋते त्वत् क्रियते किं चनारे महामर्कं मघवङि्चत्रमर्च॥’ (ऋग्वेद १०/११२/९)
अर्थात्,’हे गणपति! आप अपने भक्तजनों के मध्य प्रतिष्ठित हों। त्रिकालदर्शी ऋषिरूप कवियों में श्रेष्ठ! आप सत्कर्मों के पूरक हैं। आपकी आराधना के बिना दूर या समीप में स्थित किसी भी कार्य का शुभारम्भ नहीं होता। हे सम्पत्ति एवं ऐशवर्य के अधिपति! आप मेरी इस श्रद्धायुक्त पूजा-अर्चना को, अभीष्ट फल को देने वाले यज्ञ के रूप में सम्पन्न होने-हेतु वर प्रदान करें।’
प्रथमपूज्य गणेश
जैसे एक ब्रह्म ही सर्वोपरि हैं और एक ब्रह्म के होते हुए भी ब्रह्मा,विष्णु,महेश की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं,उसी प्रकार गणेश जी की भी स्थिति है। समस्त देवताओं में गणेश ही एक ऐसे देवता हैं,जिनका समस्त शुभ कार्यों के प्रारंभ में सर्वप्रथम पूजन किया जाता है। इनकी पूजा किए बिना किसी भी शास्त्रीय तथा लौकिक शुभकर्म का प्रारंभ नहीं होता। उन्हें पूज्य वैदिक देवता मानकर ही उनका प्रत्येक शुभ कार्य में पूजन के समय सर्वप्रथम स्मरण करते हुए कहा जाता है-
‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे।’
अर्थात्,’हे गणेश! तुम्हीं समस्त देवगणों में एकमात्र गणपति (गणों के पति)हो,प्रिय विषयों के अधिपति होने से प्रियपति हो और ऋद्धि-सिद्धि एवं निधियों के अधिष्ठाता होने से निधिपति हो;अत: हम भक्तगण तुम्हारा नाम-स्मरण,नामोच्चारण और आराधन करते हैं।’

प्रमाणों से स्पष्ट है कि समस्त शास्त्रों में गणेशजी का विशिष्ट रूप में वर्णन है। अत: गणेशजी वैदिक देवता हैं,यह निर्विवाद है।उसी प्रकार वे अनादिसिद्ध,आदिदेव, आदिपूज्य और आदि-उपास्य हैं।
‘गणेशतापिन्युपनिषद्’ के ‘गणेशो वै ब्रह्म’ के कारण ही उन्हें कर्ता,धर्ता एवं संहर्ता तथा विघ्नहर्ता कहा गया है।
गणेशजी जीवात्मा के अधिपति हैं। विष्णु: द्वारा उनको ‘सर्वदेवरूप’ कहा गया है। अतएव गणेशजी सभी के वन्दनीय एवं पूजनीय हैं।

प्राणीमात्र का मङ्गल करना उनका प्रमुख कार्य है,अत: वे मंगलमूर्ति कहे जाते हैं।
मनुष्यमात्र को आत्मकल्याणार्थ ऋद्धि-सिद्धि-नवनिधिदाता मङ्गलमूर्ति गणेशजीका सर्वदा समाराधन करना चाहिए।

इस बात का उल्लेख होता है कि अनेक हिंदू परिवार कार्यों के शुभारंभ के समय गणेश अर्चना करते हैं। प्रार्थना के तत्संबंधित छंद प्रायः वैवाहिक निमंत्रण-पत्रों तथा अन्य स्थलों पर अंकित देखने को मिलते हैं। कुछ-एक छंदों को आपने भी देखा होगा। योगेन्द्र जोशी आदि विद्वानों द्वारा उदधृत कुछ मंत्रों को देखें-
‘अभिप्रेतार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः।
सर्वविघ्नच्छिदे तस्मै गणाधिपतये नम:॥’
अर्थात् मन से विचारित (मनोवांछित) कार्य की सफलता के निमित्त जिन गणेशजी का पूजन देवताओं एवं असुरों राक्षसों द्वारा किया जाता है,सभी विघ्नों के छेदन करने वाले उन विघ्न-विनाशक गणाधिपति (गणेश) देव को मैं नमन करता हूँ। गणेश (गण+ईश) को भगवान् शिव के गणों (अनुचरोंं) का अधिपति या स्वामी कहा जाता है ।
जिस प्रकार सूर्य अंधकार को दूर भगाता है वैसे ही जिसके चरण-कमलों का स्मरण विघ्नों के समूह का नाश करता है,हाथी के मुख वाले ऐसे देव (गणेश) की जय हो। वासरमणि का अर्थ दिन की मणि अथवा सूर्य माना जा सकता है।

गणेश-स्तुति के अनेक छंद धार्मिक पुस्तकों में उपलब्ध हैं,किंतु ये अधिक प्रचलित हैं।
‘एकदन्तं महाकायं …’ एवं अन्य छंद
अधिकांश हिंदू परिवारों में गणेश वंदना का बड़ा महत्व है। गणेशजी को विघ्नहर्ता माना जाता है,उनकी प्रार्थना की जाती है,ताकि वांछित कार्य बिना बाधाओं के संपन्न हों। जन्मदिन मनाने अथवा गृहप्रवेश करने जैसे अवसरों पर भी गणेश-अर्चना के छंद निमंत्रण-पत्रों पर अंकित किए जाते हैं,किंतु यह अभी आम प्रचलन में नहीं आया है।

गणेशजी को वक्रतुण्ड पुकारा गया है। तुण्ड का सामान्य अर्थ मुख या चोंच होता है,किंतु यह हाथी की सूंड को भी व्यक्त करता है। गणेश यानी टेढ़ी-मेढ़ी सूंड वाले। उनका पेट या तोंद फूलकर बढ़ा हुआ,अथवा भारी-भरकम है,अतः वे महाकाय-स्थूल देह वाले हैं। उनकी चमक करोड़ों सूर्यों के समान है। यह कथन अतिशयोक्ति से भरा है। प्रार्थनाकर्ता का तात्पर्य है कि वे अत्यंत तेजवान् हैं। निर्विघ्न शब्द प्रायः विशेषण के तौर पर प्रयुक्त होता है,किंतु यहां यह संज्ञा के रूप में है,जिसका अर्थ है विघ्न-बाधाओं का अभाव। तदनुसार निहितार्थ निकलता है सभी कार्यों में ‘विघ्न-बाधाओं का अभाव’ रहे ऐसी कृपा करो,अर्थात् विघ्न-बाधाएं न हों ।
इस छंद का भी उपयोग कर सकते हैं-

‘विनायक नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय।
अविघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥’

प्रथम पूज्य होने के रहते भी श्रीगणेशजी की पूजा मंदिर बनाकर नहीं होती थी,तो महाराष्ट्र के वीर स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणेश पूजा पर बल दिया और मुंबई का सिद्धि विनायक मंदिर,जो १८०१ में बना है,महाराष्ट्र,भारत का ही नहीं जगत् विख्यात हो गया।

प्रत्येक वर्ष श्रावण शुक्ल चतुर्थी और भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी (संकष्टी चतुर्थी) का नाम गणेश चतुर्थी दिया गया है और उस दिन गणेश-पूजा धूम-धाम से की जाती है। शिवपुराण में बताया गया है कि प्राचीन समय में भादौ मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि पर गणेशजी का जन्म हुआ था। इस वजह से चतुर्थी तिथि पर गणेशजी के लिए विशेष पूजा-पाठ किया जाता है। जिनके जीवन का ही पुनर्जन्म विघ्न से हुआ,जो असामान्य परिस्थितियों का सामना करते हुए भी परम् पूज्य हो गए,ऐसे कर्ता,धर्ता एवं संहर्ता और विघ्नहर्ता गणेशजी के जीवन से कौन सीख नहीं लेगा,और अपना आराध्य नहीं मानेगा ?

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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