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हाँ,बस यही सच

सुलोचना परमार ‘उत्तरांचली
देहरादून( उत्तराखंड)
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प्रकृति को नोंच-नोंच कर,
खा गए जो लाल धरा के।
खुद को माला-माल कर गए,
देखो वो लाल धरा के।

कहीं भूचाल आते हैं,
कहीं पहाड़ दरकते हैं।
उफनती हैं नदियां,
हाँ,बस यही सच है।

‘कोरोना’ की मार पड़ी है,
जब से मेरे देश में मेरे यार।
रिश्ते भी मजबूत हुए हैं,
देखो घर में अबकी बार।

लेकिन अक्ल के अंधों के,
घर में तो कोहराम मचा है।
सता रहे वो एक-दूजे को,
हाँ,बस यही सच है।

‘तालाबंदी’ में घर में सब,
गाड़ियां भी हैं मौन खड़ी।
प्रदूषण आजकल खत्म हुआ,
है ना हो गई बात बड़ी।

नदियां भी निर्मल होकर,
मन्द-मन्द मुस्काती हैं।
इठलाती बल खाती बह रही,
हाँ,बस यही सच है।

नील गगन पे उड़ते पंछी,
शुद्ध हवा अब लेते हैं।
झुंड बनाकर उड़ते जब वो,
सब का मन मोह लेते हैं।

सड़कों को भी चेन मिला कुछ,
गाड़ियों के पहिए थमे हुए।
सभी आराम की मुद्रा में हैं,
हाँ,बस यही सच है॥

परिचय: सुलोचना परमार का साहित्यिक उपनाम ‘उत्तरांचली’ है,जिनका जन्म १२ दिसम्बर १९४६ में श्रीनगर गढ़वाल में हुआ है। आप सेवानिवृत प्रधानाचार्या हैं। उत्तराखंड राज्य के देहरादून की निवासी श्रीमती परमार की शिक्षा स्नातकोत्तर है। आपकी लेखन विधा कविता,गीत, कहानी और ग़ज़ल है। हिंदी से प्रेम रखने वाली `उत्तरांचली` गढ़वाली भाषा में भी सक्रिय लेखन करती हैं। आपकी उपलब्धि में वर्ष २००६ में शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय सम्मान,राज्य स्तर पर सांस्कृतिक सम्मान,महिमा साहित्य रत्न-२०१६ सहित साहित्य भूषण सम्मान तथा विभिन्न श्रवण कैसेट्स में गीत संग्रहित होना है। आपकी रचनाएं कई पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधा में प्रकाशित हुई हैं तो चैनल व आकाशवाणी से भी काव्य पाठ,वार्ता व साक्षात्कार प्रसारित हुए हैं। हिंदी एवं गढ़वाली में आपके ६ काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही कवि सम्मेलनों में राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर शामिल होती रहती हैं। आपका कार्यक्षेत्र अब लेखन व सामाजिक सहभागिता हैL साथ ही सामाजिक गतिविधि में सेवी और साहित्यिक संस्थाओं के साथ जुड़कर कार्यरत हैं।

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