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पंजाब:केजरीवाल ने पैर क्यों खींचे ?

राकेश सैन
जालंधर(पंजाब)
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सांसद भगवंत मान को पंजाब में आम आदमी पार्टी का मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित किए जाने के बाद राजनीतिक गलियारों में प्रश्न पूछा जा रहा है कि पार्टी के सर्वेसर्वा दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने इस राज्य में अपने पैर पीछे क्यों खींच लिए ? पिछले ३-४ महीनों से पंजाब की दीवारें इस नारे के साथ पाट दी गईं कि ‘इक मौका-केजरीवाल नूं’,तो यकायक नया नारा क्यों दे दिया कि ‘इक मौका-भगवंत मान नूं ?’
पंजाब की राजनीतिक परिस्थितियों का सिंहावलोकन करने पर सामने आएगा कि राज्य में आआप की लोकप्रियता का खजाना सिकुड़ता-सा नजर आ रहा है। पिछले विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी पंजाब में आन्धी की तरह आई। राज्य के बड़े राजनीतिक चेहरों के साथ-साथ दूसरे दलों के असन्तुष्टों,युवाओं,विदेशों में बड़ी संख्या में रह रहे अनिवासी भारतीयों,यहां तक कि बुद्धिजीवी वर्ग ने भी दिल्ली की इस सनसनी को हाथों-हाथ लिया। विगत चुनावों में तत्कालीन अकाली दल बादल और भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ वाली सरकार के खिलाफ जनाक्रोश भी काफी था,जिसके चलते लग रहा था कि आआप बाजी मार जाएगी। श्री केजरीवाल भी दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य को छोड़ पंजाब जैसे पूर्ण प्रान्त को अपनी राजनीति का केन्द्र बनाने को लालायित दिखे। इस दावे का आधार भी था क्योंकि, २०१४ के लोकसभा चुनाव में पंजाब से आआप के ४ सांसदों ने पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई,परन्तु इस सारी कवायद का परिणाम निकला वही ढाक के तीन पात। राज्य की ११७ विधानसभा सीटों में १०० का दावा करने वाली पार्टी को मात्र २० सीटों पर संतोष करना पड़ा।
पंजाब में पिछले ५ सालों में आआप की राजनीतिक ताकत कमजोर हुई है। विगत विधानसभा चुनाव के बाद बड़े-बड़े चेहरे पार्टी को छोड़ गए। इस दौरान राज्य में हुए आधा दर्जन विधानसभा उपचुनावों में पार्टी के उम्मीदवार जमानतें तक नहीं बचा पाए। २०१९ के लोकसभा चुनाव में लोकसभा सांसदों की संख्या ४ से घट कर केवल १ रह गई और श्री मान ही पार्टी की थोड़ी बहुत इज्जत बचा पाए। ग्रामीण व निकाय चुनावों में भी पार्टी फिसड्डी रही। केवल इतना ही नहीं,पार्टी के २० विधायकों में भी पार्टी नेतृत्व को लेकर असन्तोष पनपने लगा और ५ साल में आधा दर्जन विधायक आम आदमी पार्टी को छोड़ गए। केवल इतना ही नहीं,कुछ दिन पहले पार्टी के उम्मीदवार ने ही पार्टी छोड़ दी। देश के इतिहास में शायद यह पहली बार सुनने को मिला कि किसी उम्मीदवार ने भाग-दौड़ करके किसी पार्टी की टिकट प्राप्त की हो और मतदान की तारीख की घोषणा होते ही पार्टी छोड़ दी हो। यह सब पार्टी की गिरती साख की निशानियाँ बताई जा रही हैं।
अब पंजाब को एक बार फिर जीतने की मंशा से निकले श्री केजरीवाल ने रैलियां,रोड-शो और विभिन्न वर्गों के साथ बैठकें करनी शुरू कर दीं, परन्तु ये उनके पिछले कार्यक्रमों के मुकाबले फीके दिखे। शायद यही कारण है कि श्री केजरीवाल ने अब अपने पैर खींच कर श्री मान को आगे कर दिया है।
श्री मान को मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित करने के लिए चाहे श्री केजरीवाल ने चिर-परिचित राजनीतिक नाटक किया और लोकमत से नाम घोषित करने का दावा किया,परन्तु वे इस मोर्चे पर भी गच्चा खा गए। उन्होने स्वयं स्वीकार कर लिया कि पंजाब में पार्टी की ताकत पहले जैसी नहीं रही। पंजाब में इस बार विधानसभा चुनाव में ५ पार्टियों की लड़ाई है। हाल के दिनों में आआप की लोकप्रियता कम हुई है क्योंकि भगवंत मान को मुख्यमन्त्री बनाने के लिए केवल २१ लाख लोगों ने मत डाले,जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी के लिए ३६.६२ लाख लोगों ने मतदान किया था। श्री मान को २१ लाख लोगों द्वारा पसन्द किए जाने का आँकड़ा भी खुद श्री केजरीवाल का ही है,किसी निष्पक्ष एजेंसी का नहीं। अगर इसको सही भी मान लें तो इसमें वर्गीकरण किया जाना सम्भव नहीं कि फोन के माध्यम से अपना मत रखने वाले लोग पंजाब के ही थे,या दूसरे राज्य के भी।
श्री केजरीवाल चाहे श्री मान को अपनी व लोगों की पसन्द बता रहे हैं,परन्तु सच्चाई अलग ही है। मान न मान,श्री केजरीवाल की मजबूरी बन गए थे। किसी बड़े चेहरे की तलाश में पूरी जोड़-तोड़ के बाद ही अन्त में श्री मान को मुख्यमन्त्री का चेहरा बनाया गया। पंजाब का मुख्यमन्त्री बनने की इच्छा दिल्ली वाले नेताओं की भी रही,लेकिन पंजाबी किसी बाहरी नेता को स्वीकार नहीं करते। इसलिए यह विकल्प पिट गया।
कहीं चोकोणीय तो कहीं पांच कोणीय चुनाव होने के कारण पंजाब की राजनीति प्याज के छिलके जैसी होती जा रही है,जिसमें कोई दल छाती ठोक कर अपनी जीत का दावा नहीं कर सकता। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के अलावा, भाजपा से नाता तोड़ कर अकाली दल और बीएसपी गठबन्धन मैदान में है। पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री कै. अमरिन्दर सिंह ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबन्धन किया है। इतना ही नहीं,किसान आन्दोलन में शामिल रहे 22 संगठन भी संयुक्त समाज मोर्चा के मंच पर चुनाव लड़ रहा है। ऐसी अनिश्चितता के दौर में केजरीवाल ने अपना राजनीतिक भविष्य दांव पर लगाना उचित नहीं समझा और पंजाब से अपने पैर वापिस खींच लिए।

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