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स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि को अलविदा नहीं कहा जा सकता

ललित गर्ग
दिल्ली

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विश्व प्रसिद्ध भारत माता मंदिर के संस्थापक,भारतीय अध्यात्म क्षितिज के उज्ज्वल नक्षत्र,निवृत्त शंकराचार्य,पद्मभूषण स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि मंगलवार सुबह हरिद्वार में उनके निवास स्थान राघव कुटीर में ब्रह्मलीन हो गए। उनके देवलोकगमन से भारत के आध्यात्मिक जगत में गहरी रिक्तता बनी है,एवं संत-समुदाय के साथ-साथ असंख्य श्रद्धालुजन शोक मग्न हो गये हैं।
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी की भारत के संतों,महामनीषियों में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। गुणवत्ता एवं जीवन मूल्यों को लोक जीवन में संचारित करने की दृष्टि से उनका विशिष्ट योगदान रहा है। गिरते सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा उनके जीवन का संकल्प था। वे अध्यात्म की सुदृढ़ परम्परा के संवाहक तो थे ही,महान् विचारक एवं राष्ट्रनायक भी थे। उनकी साधना एवं संतता का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति,प्रशंसा या किसी को प्रभावित करना नहीं,अपितु स्वांतसुखाय एवं स्व परकल्याण की भावना रही है। इसी कारण उनके विचार और कार्यक्रम सीमा को लांघकर असीम की ओर गति करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। उन्हें हम धर्मक्रांति एवं समाजक्रांति के सूत्रधार कह सकते हैं। वे समाज सुधारक तो थे ही व्यक्ति-व्यक्ति के उन्नायक भी थे।
एक महान संतपुरुष महामण्डलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी महाराज स्वयं में एक संस्था थे,हरिद्वार में भारतमाता मंदिर के संस्थापक थे। व्यक्ति,समाज और राष्ट्र के नैतिक- आत्मिक उत्थान के लक्ष्य को लेकर वे सक्रिय थे। उन्होंने अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को जिस चैतन्य एवं प्रकाश के साथ जीया है वह भारतीय ऋषि परम्परा के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय है। उन्होंने स्वयं ही प्रेरक जीवन नहीं जिया,बल्कि लोकजीवन को ऊंचा उठाने का जो हिमालयी प्रयत्न किया है वह भी अदभुत एवं आश्चर्यकारी है। अपनी कलात्मक अंगुलियों से उन्होंने नये इतिहासों का सृजन किया है,जिससे भारत की संत परम्परा गौरवान्वित हुई है। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द की अनुकृति के रूप में प्रसिद्धि एवं प्रतिष्ठा पाई।
स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी महाराज का जन्म १९ सितंबर १९३२ को आगरा में हुआ। उनके पिता ने उन्हें सदैव अपने लक्ष्य के प्रति सजग और सक्रिय बने रहने की प्रेरणा दी। महामंडलेश्वर स्वामी वेदव्यासानंदजी महाराज से उन्हें सत्यमित्र ब्रह्मचारी नाम मिला और साधना के विविध सोपान भी प्राप्त हुए। उन्होंने हिंदी और संस्कृत का अध्ययन किया और एमए की उपाधि भी प्राप्त की। उन्होंने हिंदी साहित्य और साहित्य में ‘साहित्य रत्न’ एवं वाराणसी विद्यापीठ से शास्त्रीय की उपाधि प्राप्त की। स्वामी करपात्री जी के निर्देशन में ब्रह्मचारी सत्यमित्र को ज्योतिर्मठ भानपुरा पीठ के शंकराचार्य स्वामी सदानंद गिरिजी महाराज ने संन्यास आश्रम में दीक्षित कर जगदगुरू शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और यहीं से शुरू हुई स्वामी सत्यमित्रानंदजी की देश के ग्राम-ग्राम में दीन-दुखियों,गिरि-आदिवासी-वनवासी की पीड़ा से साक्षात्कार की यात्रा। भानपुरा क्षेत्र में उन्होंने अति निर्धन लोगों के उत्थान की दिशा में अनेक कार्य किए। उन्होंने १९६९ में स्वयं को हिन्दू धर्म के सर्वोच्च पद शंकराचार्य से मुक्त कर गंगा में दंड का विसर्जन कर दिया और तब से वे केवल परिव्राजक संन्यासी के रूप में देश-विदेश में भारतीय संस्कृति व अध्यात्म के प्रचार-प्रसार में संलग्न रहे। पद विसर्जन की यह घटना अनसोचा, अनदेखा,अनपढ़ा कालजयी आलेख बना। पदलिप्सा की अंधी दौड़ में धर्मगुरु भी पीछे नहीं हैं। इसमें उनकी साधना,संयम,त्याग, तपस्या और व्रत सभी कुछ पीछे छूट जाते हैं। ऐसे समय में स्वामीजी द्वारा किया गया पद विसर्जन राजनीति और धर्मनीति की जीवनशैली को नया अंदाज दे गया।
समन्वय-पथ-प्रदर्शक,अध्यात्म-चेतना के प्रतीक,भारतमाता मन्दिर से प्रतिष्ठापक स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी २७ वर्ष की अल्प आयु में ही शंकराचार्य-पद पर अभिषिक्त होने का गौरव प्राप्त हुआ। वे लगातार दीन-दुखी, गिरिवासी,वनवासी,आदिवासी,हरिजनों की सेवा और साम्प्रदायिक मतभेदों को दूर कर समन्वय-भावना का विश्व में प्रसार करने पर उल्लेखनीय सेवाओं के लिए भारत सरकार ने वर्ष २०१५ में उन्हें पदम् भूषण से सम्मानित किया।
स्वामी जी के जीवन की यूँ तो अनेक उपलब्धियां हैं लेकिन उन्होंने धार्मिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय-चेतना के समन्वित दर्शन एवं भारत की विभिन्नता में भी एकता की प्रतीति के लिए पतित-पावनी-भगवती-भागीरथी गंगा के तट पर बहुमंजिला भारतमाता-मन्दिर का निर्माण करवाया है,जो आपके मातृभूमि प्रेम व उत्सर्ग का अद्वितीय उदाहरण है। इस मंदिर का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया। मंदिर में रामायण के दिनों से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक के इतिहास को प्रभावी एवं आकर्षक तरीके से दर्शाया गया है। पहली मंजिल पर भारतमाता की मंदिर है। भारत के विभिन्न धर्मों जैसे-बौद्ध धर्म,जैन धर्म,सिक्ख धर्म सम्मेत विभिन्न धर्मों के महान संतों को चित्रित किया गया है। इस मन्दिर में देश-विदेश के लाखों लोग दर्शन कर अध्यात्म,संस्कृति,राष्ट्र और शिक्षा सम्बन्धी विचारों की चेतना और प्रेरणा प्राप्त कर रहे हैं। हरिद्वार के अतिरिक्त रेणुकूट,जबलपुर,जोधपुर, इन्दौर एवं अहमदाबाद में आपके आश्रम एवं नियमित गतिविधियां संचालित हैं।
स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी पिछले पांच दशकों के दौरान कई देशों की यात्रा कर चुके हैं और कई देशों में बहुत से अनुयायी हैं। वे हिन्दू समाज के पतन से चिंतित थे और इसके लिए वे व्यापक प्रयत्न करते रहे। भारत की संस्कृति को जीवंत करने के लिए उनके प्रयास उल्लेखनीय रहे हैं। पहले धार्मिकता के साथ केवल परलोक का भय जुड़ा था। उन्होंने उसे तोड़कर इहलोक को सुधारने की बात कही है। भारत के गिरते नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों को देखकर उन्होंने एक आवाज उठाई कि जिस देश के लोग धार्मिकता एवं राष्ट्रीयता का दंभ नहीं भरते,वहां अनैतिक स्थितियां होती हैं। उनके विचारों की सार्वभौमिकता का सबसे बड़ा कारण है कि वे गहरे विचारक होते हुए भी किसी विचार से बंधे हुए नहीं थे। उनका आग्रहमुक्त-निद्र्वंद्व मानस कहीं से भी अच्छाई और प्रेरणा ग्रहण कर लेता था। उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा हर सामान्य प्रसंग को भी पैनी दृष्टि से पकड़ने में सक्षम थी। उनके आसपास क्रांति के स्फुलिंग उछलते रहते थे। नया करना उनकी इसी क्रांतिकारिता का प्रतीक है।
स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी निरन्तर एक सक्षम नेतृत्व की आवश्यकता महसूस करते थे। दुशासन नेतृत्व को कैसे बदला जाए इसके उत्तर में वे कहते थे कि आवश्यकता है कि फिर से रामप्रसाद बिस्मिल,अश्फाक उल्ला खां,चंद्रशेखर आजाद,पू. श्री गुरुजी डाॅ.हेडगेवार उत्पन्न हों और ऐसे निश्छल,निष्कलंक एवं क्रांतिकारी व्यक्तित्व लोक-नेतृत्व की पहली पंक्ति में खड़े हों।
स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे,महान साधक थे। लोककल्याण के लिए उनकी जीवनयात्रा चलायमान रही है। मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित यह संतपुरुष स्वामीजी नौ दशक में विकास की अनगिनत उपलब्धियों को सृजित करते हुए देह से विदेह हो गये,लेकिन उनकी शिक्षाएं,कार्यक्रम, योजनाएं,विचार आज न केवल हिन्दू समाज बल्कि राष्ट्रीयता के उज्ज्वल इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन गयी हैं। आपने शिक्षा,साहित्य, शोध,सेवा,संगठन,संस्कृति,साधना सभी के साथ जीवन मूल्यों को तलाशा,उन्हें जीवन-शैली से जोड़ा और इस प्रकार पगडंडी पर भटकते मनुष्य के लिए राजपथ प्रशस्त कर दिया। वे अपने जीवन में कभी कहीं रुके नहीं,झुके नहीं। आज वह दिव्यात्मा ब्रह्मलीन हो गयी,लेकिन ऐसी महान् आत्माओं को कभी अलविदा नहीं कहा जा सकता। स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरिजी अब नहीं रहे,मगर धर्म कहता है कि आत्मा कभी मरती नहीं। इसलिये,इस शाश्वत सत्य का विश्वास लिए हम सदियों जी लेंगे कि गिरिजी अभी यहीं है,हमारे पास।

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