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अब विरोधी दल क्या करें ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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इस चुनाव के परिणाम आने के बाद देश के विरोधी दलों की हवा निकली हुई-सी क्यों लग रही है ? चुनाव के पहले वे एकजुट न हो सके तो चुनाव के बाद क्या वे एकजुट हो सकेंगे ? उन्हें हताशा और निराशा के गर्त में गिरने से बचना चाहिए। यदि वे भारतीय लोकतंत्र से सचमुच प्यार करते हैं तो उन्हें कमर कसकर फिर खड़े होना चाहिए। इस समय सारे विरोधी सांसदों की संख्या २०० के आस-पास है। सत्तारुढ़ भाजपा गठबंधन की संख्या ३५० के आस-पास है,लेकिन जरा याद करें कि अकेली सत्तारुढ़ कांग्रेस के पास कभी ४१०,कभी ३६१ और कभी ३५२ सांसद भी रहे हैं। विपक्षी सांसदों की संख्या अब से भी बहुत कम रही है लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी। वे मानते थे कि मोटर कार जितने ज्यादा हाॅर्स पावर की हो,उसका ब्रेक भी उतना ही तगड़ा होना चाहिए लेकिन ब्रेक कार के एंजिन जितना बड़ा तो नहीं हो सकता,वह तो छोटा ही होगा। विपक्ष इस बार संख्या में थोड़ा छोटा है तो क्या हुआ ? उसकी जिम्मेदारी पहले से भी ज्यादा है। १९६२ और १९६७ में संयुक्त सोश्यलिस्ट पार्टी के पांच-छह सांसद ही नेहरु और इंदिरा सरकार का दम फुलाने के लिए काफी होते थे। उनके सदन में पांव रखते ही प्रधानमंत्रियों के चेहरों की रंगत बदलने लगती थी। यह ठीक है कि सभी विपक्षी सांसद सत्ता-विरोधी नहीं होते। कुछ विपक्षी दल तो ऐसे हैं,जो अभी तक अलग-थलग बैठे थे,वे भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल हो जाएंगे लेकिन जो अब भी विरोध में हैं,उन्हें तुरंत अपनी एक बैठक बुलानी चाहिए और अपना एक ढीला-ढाला महासंघ खड़ा करना चाहिए। पहले जो महागठबंधन बनता उसका एकमात्र आधार सत्ता प्राप्ति होती लेकिन अब जो बने,उसका आधार एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम हो। ऐसा कार्यक्रम,जिसे लागू करवाने के लिए संसद में और उसके बाहर जबर्दस्त दबाव बनाया जाए। ऐसा कार्यक्रम बनवाने के लिए पहले तो खुद नेताओं को गंभीरतापूर्वक पढ़ाई-लिखाई करनी होगी और फिर विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा करना होगा। सरकार जहां भी गलती करती दिखे,उसकी जमकर खिंचाई करने की क्षमता विपक्ष में होनी चाहिए। सिर्फ आँख मारने और झप्पी मारने से काम नहीं चलेगा। यह कहना भी बेमतलब है कि भाजपा के साथ कांग्रेस की लड़ाई वैचारिक है। यदि यह वैचारिक होती तो कांग्रेस के नेताओं को मोदी की तरह नौटंकियां नहीं करनी पड़तीं। उन्होंने जनेऊधारी और पूजा-पाठी होने का नाटक क्यों किया ? अब प्रांतीय नेताओं को यह भी समझ में आ गया होगा कि जात और संप्रदाय की नाव उन्हें पार नहीं लगा सकतीं। अब देश के हर दल को जनता की समस्याओं के व्यावहारिक हल खोजने होंगे और उनकी हार-जीत के आधार वे ही बनेंगे। ये व्यावहारिक हल तात्कालिक और दूरगामी,दोनों होना चाहिए। भारतीय समाज में मूलभूत सुधार सिर्फ कानून के जरिए नहीं हो सकता। हमारे राजनीतिक दल सिर्फ सरकार बनाने में अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं। वोट और नोट ही उनके लिए ब्रह्म है। जन-सेवा और समाज सुधार तो उनके लिए सिर्फ माया है। वे गांधी की कांग्रेस, लोहिया की संसोपा,विनोबा के सर्वोदय और गोलवलकर के संघ की तरह जन-जागरण और जन-आंदोलन में भी रुचि लें,यह बहुत जरुरी है।

परिचय-डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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