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आखिर, कब तक!

डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
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महिलाओं की भागीदारी को ठंडी बस्ते में डालकर पुरुषों की भागीदारी पर लक्ष्मण रेखा आखिर क्यों नहीं !, यह सवाल हम सभी के आगे प्रश्न चिन्ह बना हुआ है। वैसे तो भिन्नता भारत के कतरे-कतरे में रक्त की तरह प्रवाह होती है। यहाँ न केवल प्राकृतिक भिन्नता, बल्कि धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक भिन्नताएं भी भरपूर पाई जाती हैं। दूसरी ओर भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य कहकर हर जाति-धर्म के लोगों को समान अधिकार दिया जाता है।
भारत विभिन्नताओं की लंबी-लंबी कतारें पढ़ने वाला, हर क्षेत्र में समानता का डंका पीटने वाला, नर-नारी की समानता की बात आते ही उनके पैर डगमगाने लगते हैं, लड़खड़ाने लगते हैं! ऐसा प्रतीत होता है कि, वह महिलाओं को आगे बढ़ाने की बात कहते तो हैं, लेकिन बारी आने पर उसे अपने से एक कदम पीछे ही देखना ज्यादा पसंद करते हैं।
आज भी हमारे समाज में उसे देवी कहकर पूजा जरूर जाता है, लेकिन आजादी के ७६ साल बाद भी समान अधिकारों की बात आने पर एक नारी को खिलाने, संभालने तक में ही समेट दिया जाता है।
बाबा आम्बेडकर द्वारा लिखे गए भारतीय संविधान में भी समानता, संप्रभुता, भाई-भाई लिखा तो गया, लेकिन वह सिर्फ कागजों तक ही रहा। जो अधिकार महिलाओं को आजादी की संध्या से मिलनी चाहिए थे, वह आज तक कहीं गुम हैं। यह नहीं कहती कि, समाज में महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कोशिशें नहीं की गई, ७६ सालों में ७६०० कानून बने होंगे। महिलाएं आगे भी बढ़ी हैं इसमें भी कोई दो राय नहीं, लेकिन कुछ बुद्धिजीवियों के कारण उन्हें आज भी उनके विकास में समानता का अधिकार नहीं मिल पाया है।
हम देखें, तो कभी बेटी पढ़ाओ-आगे बढ़ाओ, उज्वला योजना, बाल कल्याण योजना और न जाने कितनी ही योजनाएँ बनाई गई, लेकिन सही समानता का अधिकार मिलने में न जाने और कितने वर्ष इंतजार करना पड़ेगा।
भारत विकासशील देश है और विकसित बनाने के लिए हमें पिछड़े वर्ग के लोगों, महिलाओं, आने वाली युवा पीढ़ी को समानता के सूत्र में बांधना होगा। तभी हम एक नए भारत की कल्पना कर सकते हैं। उसके लिए एक बहुत महत्वपूर्ण पहल आज से करीब ३० साल पहले हुई, जो महिला बिल के रूप में सामने आई थी। अथक प्रयासों के बाद भी दुर्भाग्यवश आज भी वह मात्र कागजों तक ही सिमटा है। अखबारों की सुर्खियाँ बनकर लम्बे-लम्बे भाषणों के बाद भी नतीजा हमारे सामने सिर्फ कागजों तक ही है, और न जाने कब तक रहेगा।
पहली बार १२ सितम्बर १९९६ को एच.डी. देवेगौड़ा की सरकार ने महिलाओं के अधिकारों को लेकर थोड़ी सजगता जरूर दिखाई थी, लेकिन उनकी कोशिशें सिर्फ कोशिशों तक ही रह गईं। उसके बाद इंद्र कुमार गुजराल और फिर अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए महिलाओं को समानता का अधिकार दिलाने के लिए भरपूर प्रयास किया और उस बिल को पारित करने के लिए बहुत ही कठोर परिश्रम किया, लेकिन कुछ बुद्धिजीवी नेताओं के किंतु, परंतु, अपितु के चक्रव्यूह में फंस कर इस पर मिट्टी डाल दी गई।
लेकिन हाँ, हम रानी लक्ष्मीबाई, सरोजिनी नायडू, कल्पना चावला जैसी हस्तियों के देश में रहने वाले, उनके बलिदान, उन्हें कंधा से कंधा मिलाकर लड़ते देखने वाली महिला हैं, तो आज पीछे हटकर अपना सम्मान कैसे गंवा सकते थी। यही कारण है कि, महिलाओं ने अपना रुतबा दिखाया और अंतरिक्ष में जाने वाली पहली महिला कल्पना चावला, हवा में गोली दागने से ओलम्पिक खेलों तक में हर जगह अपने साथ पूरे देश का नाम रोशन करने वाली हैं, लेकिन फिर भी आज उसे एक छोटा-सा अधिकार दिलाने में लोगों की स्याही कम पड़ रही है! कभी जातिगत जनसंख्या की वास्तविक संख्या की उपलब्धता नहीं बता कर, तो कभी उसके प्रारूप अथवा कुछ अन्य योजना बनाकर उसे धुंधला कर दिया जाता रहा है।
पर हाँ, जिंदगी की हर गाड़ी तो आगे निकल ही गई, मगर महिलाओं के विकास पर बने इस विधेयक पर मैल की परत चढ़ी की चढ़ी ही रह गई।
आज तक ना जातिगत जनसंख्या की वास्तविक संख्या प्राप्त हुई और ना ही विधेयक कागजों से निकलकर सामने आया, इसके बावजूद महिलाओं ने स्वयं को सही स्थान तक लाने के लिए हर संभव प्रयास किया। हजारों महिलाओं के साथ जानी-मानी सेविका प्रमिला दंडवते ने इसको पारित कराने के लिए एड़ी- चोटी का जोर लगा दिया, वहीं गीता मुखर्जी समिति ने भी प्रयास में कोई कसर नहीं छोड़ी।
१९९६ में उन्होंने सिफारिश की कि, देश के भरपूर विकास के लिए पिछड़े वर्ग की महिलाओं का कानून पारित किया जाए, मगर आज भी हम देश के सदनों के आँकड़ों को देख स्थिति भली-भांति समझ सकते हैं। आज भी लोकसभा में महिलाओं की संख्या मात्र १५ फीसदी (यानी ५४३ में मात्र ७८) और राज्यसभा में मात्र १३ प्रतिशत (मात्र २५) ही है। इससे इतना अनुमान तो अवश्य लगा सकते हैं कि, देवी, माँ, पत्नी, बेटी सब कहा तो जरूर जाता है, पर जब अधिकारों की बात आती है तो पुरूष प्रधान समाज अपने को ऊपर रहने की होड़ में उमड़ जाता है।
हाल के वर्षों में भारत ने आर्थिक, तकनीकी, पर्यावरणीय तरक्की में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहाँ तक कि, राजनीति तथा रणनीति पर भी खुद को बखूबी मजबूत किया है, लेकिन सामाजिक क्षेत्र में आज भी भरपूर विकास संभव नहीं हो पाया है। महिलाओं को, खासकर पिछड़ी जाति के लोगों को समानता का अधिकार मिलना ही चाहिए। सालों बाद भी यही कारण है कि, कानून बनाने की प्रक्रिया में महिलाओं की भावना, सोंच को कोई महत्व नहीं दिया जाता है, महिलाओं को दरकिनार कर दिया जाता है।
हम एक जाति को छोड़कर एक मध्यमवर्गीय परिवार को ही देखें तो पता चलेगा कि, औरतें सुबह से शाम तक पूरा दिन घर का सारा काम करती हैं। पुरुष घर जाकर उसे ‘यू आर दा बॉस’ भी बोल देगा, लेकिन फिर भी उसे परिवार की तरक्की के लिए कोई निर्णय लेना होगा तो उसे लेने के बाद जानकारी दी जाती है। निम्न वर्ग की महिलाओं की दशा तो हम मध्यम वर्ग की कल्पना से ही सकते हैं।
सबको बदलने का एक भरपूर प्रयास कुछ हद तक सही करने के लिए नए संविधान सदन में महिला बिल को ही ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ के रूप में १९ सितम्बर २०२३ को पारित किया गया। उसमें दोनों सदन तथा दिल्ली की विधानसभा में ३३ फीसदी महिलाओं को आरक्षण की बात कही गई है। हालांकि, भारत के कुछ प्रदेशों में कई वर्षों से ५० फीसदी महिलाओं का आरक्षण दिया भी जा चुका है जिनमें केरल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार जैसे राज्य शामिल हैं, लेकिन आज भी भारत के दोनों सदनों में इसे अमल में लाने के लिए वक्त मांगा जा रहा है। आखिर कब तक और इंतजार!
अब जब यह यहाँ तक पहुंच ही गया है, तो यथासंभव प्रयासों के साथ पिछड़ी बहन, माँ को उनकी काबिलियत के अनुसार सम्मान दिलाया जाए। इसे किंतु, परंतु, अपितु के चक्रव्यूह से उठाकर सही स्थान तक पहुंचाया जाए। बुद्धिजीवियों का यह परम कर्तव्य बनता है कि, अब महिलाओं को समानता के अधिकार में बांधा जाए।
सही मायने में तो महिलाओं को ५० प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन फिर भी आज जो बिल पास हो चुका है, उसे विलम्बता के आईने से और धुंधला न होने दें, क्योंकि कहा जाता है-
‘जितने मुँह, उतनी बात।
जितने हाथ, उतने घात॥’

इसलिए, बिल को यथासंभव अमल में लाया जाए और देश को समानता के अधिकार का सही प्रारूप दिया जाए। भारतीय संसद में इस बिल के पास होते ही महिलाओं के चेहरे पर जो चमक और नया जोश आया था, उसे विलम्ब की आंधी से समाप्त नहीं करके जल्दी लागू करने का यथासंभव प्रयास किया जाए।