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कभी मेला करता रहा होगा गुफ्तगू…

डॉ.नीलम कौर
उदयपुर (राजस्थान)
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रातों को सपनों में मेरे,
गाँव कहीं इक आता है…
जहाँ ‘कभी यादों का मेला रहा होगा।’

सूना-सूना-सा घट का पनघट,
सूनी मन की चारदीवारी
धड़कनों का जमघट लगता था,
जिनसे ‘मैं गुफ्तगू करता था।’

हर रात चाँदनी की चादर
ताने,
तारों का मेला लगता था
बदली झूला बनती थी,
चाँद व्यापारी बनकर आता
बैठ वहीं पर फिर रजनी से,
‘गुफ्तगू’ करता था।

होगी वहीं कहीं मेरी भी कोई कजरी गुजरिया,
जिसके संग हमने भी झूला
झूला था
गलबहियाँ डाले पूरा मेला घूमा था।

बिजुरी की पैंजनिया देकर,
बूंद हटाने के बहाने
चुपके से लब उसके चूम लेता था,
थकान मिटाने के बहाने
एकांत वृक्ष की टेक लगाकर’
‘गुफ्तगू करता था।’

रोम-रोम हाट सजाए,
रग-रग संगीत बजाए
रुहों का इक रुहानी,
आलम होगा
जहाँ कभी ‘यादों का मेला लगता होगा।’

उमर बीत गई,सावन बीते,
हम गांवों की रहगुज़र बिसर गए
जबसे तन शहरी हो गया,
हम यादों के मेले बिसरे।

बस अब यादों में ही,
वो सपने सूने रह गये
बस धुँधली-सी यादों में,
एक सपना दिखता है…
के वो सपनों में ‘लगते थे यादों के मेले॥’

परिचय – डॉ.नीलम कौर राजस्थान राज्य के उदयपुर में रहती हैं। ७ दिसम्बर १९५८ आपकी जन्म तारीख तथा जन्म स्थान उदयपुर (राजस्थान)ही है। आपका उपनाम ‘नील’ है। हिन्दी में आपने पी-एच.डी. करके अजमेर शिक्षा विभाग को कार्यक्षेत्र बना रखा है। आपका निवास स्थल अजमेर स्थित जौंस गंज है।  सामाजिक रुप से भा.वि.परिषद में सक्रिय और अध्यक्ष पद का दायित्व भार निभा रही हैं। अन्य सामाजिक संस्थाओं में भी जुड़ाव व सदस्यता है। आपकी विधा-अतुकांत कविता,अकविता,आशुकाव्य और उन्मुक्त आदि है। आपके अनुसार जब मन के भाव अक्षरों के मोती बन जाते हैं,तब शब्द-शब्द बना धड़कनों की डोर में पिरोना और भावनाओं के ज्वार को शब्दों में प्रवाह करना ही लिखने क उद्देश्य है।

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