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कांग्रेस:गलत निर्णय और चापलूसी ही टूट का कारण

ललित गर्ग

दिल्ली
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देश की सबसे पुरानी एवं मजबूत कांग्रेस पार्टी बिखर चुकी है। कद्दावर, निष्ठाशील एवं मजबूत जमीनी नेता दल छोड़कर अपनी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी पार्टी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। वह भी तब, जब लोकसभा चुनाव सन्निकट है। यह दलबदल का जैसा सिलसिला चल रहा है, वह इस दल की दयनीय दशा और स्याह भविष्य को ही रेखांकित करता है। हालांकि, भाजपा और कुछ अन्य दलों के चंद नेता कांग्रेस की शरण में भी गए हैं, लेकिन इसकी तुलना में उसके नेताओं के दल छोड़ने की संख्या कहीं अधिक है। प्रश्न है कि, एक लोकतांत्रिक संगठन की यह दुर्दशा एवं रसातल में जाने की स्थितियां क्यों बनी ? इसके कारणों की समीक्षा एवं आत्म-मंथन जरूरी है। कांग्रेस दल लगातार न केवल हार रहा है, बल्कि टूट एवं बिखर रहा है, जनाधार कमजोर हो रहा है। इन बड़े कारणों के बावजूद शीर्ष नेतृत्व ने न इसकी समीक्षा की, न विश्लेषण किया। कांग्रेस पर वंशवाद व पुत्रमोह का ठप्पा लगा हुआ है। दल में आंतरिक प्रजातंत्र नहीं है। शीर्ष नेतृत्व निर्णय लेने में अक्षम है। बहुसंख्यकों के कल्याण की कोई नीति नहीं है। तुष्टिकरण नीति भी उसके लिए घातक साबित हो रही है। आज का कांग्रेसी शीर्ष नेतृत्व साम्प्रदायिक, असामाजिक, स्वार्थी, चाटुकारी एवं देश-विरोधी तत्वों के साथ इस तरह ‘ताना-बाना’ हो गया है कि, उससे निकलना मुश्किल हो गया है। साँप-छछूंदर की स्थिति है, न निगलते बनता है, और न उगलते। कांग्रेस नेतृत्व सत्ता प्राप्ति की खुशफहमी और खोने के खतरे के डर से ग्रस्त है।

नेताओं के कांग्रेस छोड़ने से नेतृत्व को हैरान-परेशान होना चाहिए, लेकिन शायद ही ऐसा हो, क्योंकि राहुल गांधी आम तौर पर ऐसे नेताओं को डरपोक या अवसरवादी करार देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। वह और उनके करीबी यह देखने-समझने के लिए तैयार नहीं कि, आखिर क्या कारण है कि, एक के बाद एक नेता दल छोड़ रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के पोते रवनीत सिंह का भाजपा में जाना इसलिए कांग्रेस के लिए एक बड़ा आघात है, क्योंकि पंजाब उन राज्यों में है, जहां कांग्रेस अपेक्षाकृत मजबूत दिखती है और भाजपा तीसरे-चौथे क्रम के दल के तौर पर देखी जाती है। बात पंजाब ही नहीं, महाराष्ट्र, हिमाचल एवं अन्य प्रांतों की भी ऐसी ही है। इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि, कांग्रेस छोड़ने वालों में कई ऐसे नेता भी हैं, जो गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे, जैसे- अशोक चव्हाण, मिलिंद देवड़ा, सुरेश पचौरी। इसके पहले राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड के सदस्य कहे जाने वाले अधिकांश नेता भी कांग्रेस से विदा ले चुके हैं। कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं में एक बड़ी संख्या उनकी है, जो अपना स्वतंत्र वर्चस्व एवं पहचान रखते हैं। गांधी परिवार के करीबी एवं चाटुकार नेताओं में बहुत कम ऐसे हैं, जो अपने बलबूते चुनाव जीतने की क्षमता रखते हों।
प्रश्न है कि, कांग्रेस की यह दशा क्यों बनी ? देश की विविधता, स्वरूप और संस्कृति को बांधे रखकर चलने वाले अतीत के कांग्रेसी नेता, जिनकी मूर्तियों और चित्रों के सामने हम अपना सिर झुकाते हैं, पुष्प अर्पित करते हैं-वे अज्ञानी नहीं थे। उन्होंने अपने खून-पसीने से ‘भारत-माँ’ के चरण पखारे थे। आज उनकी राष्ट्रीय सोच एवं जनकल्याण की भावना को नकारा जा रहा है, उन्हें ‘अदूरदर्शी’ कहा जा रहा है। कांग्रेस में धीरे-धीरे जमीनी धरातल पर कार्य करने वाले व बड़ी सोच वाले कार्यकर्ता कम हो गए और नेताओं के चापलूस बढ़ गए। ये चापलूस ही आगे बढ़े और टूट का कारण बने हैं। वक्त यह सब कुछ देख रहा है और करारा थप्पड़ भी मार रहा है। कांग्रेस विश्वसनीय और नैतिक नहीं रही तथा सत्ता विश्वास एवं नैतिकता के बिना ठहरती नहीं। शेरनी के दूध के लिए सोने का पात्र चाहिए। कांग्रेस अपना राष्ट्रीय दायित्व एवं सांगठनिक जिम्मेदारी राजनीतिक कौशल एवं नैतिकतापूर्ण ढंग से नहीं निभा रही। अंधेरे को कोसने से बेहतर था कि, कोई तो दल में एक मोमबत्ती जलाता। रोशनी करने की ताकत निस्तेज होने का ही परिणाम है कि, वक्त ने सीख दे दी। राहुल गांधी भले ही यह दिखाएं कि, नेताओं के जाने से दल की सेहत पर फर्क नहीं पड़ता, लेकिन सच तो यह है फर्क पड़ता दिख रहा है। आने वाले लोकसभा चुनाव के परिणाम इस फर्क को और अधिक स्पष्ट कर देंगे। कुछ नेता चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं और कुछ तो प्रत्याशी घोषित होने के बाद अपने कदम पीछे खींच चुके हैं। कांग्रेस भले ही यह दिखा रही हो कि, वह भाजपा का मुकाबला करने मे समर्थ है, लेकिन किसी से छिपा नहीं कि वह अपने नेतृत्व वाले मोर्चे ‘इंडिया महागठबंधन’ को वैसा आकार नहीं दे सकी, जिसकी आशा थी। इसके लिए कांग्रेस अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती। कांग्रेस का क्षरण इसलिए शुभ संकेत नहीं, क्योंकि भाजपा के समक्ष वही सही मायने में एक राष्ट्रीय दल है। लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष भी आवश्यक होता है, लेकिन सत्तापक्ष उसकी मजबूती की चिंता नहीं कर सकता।
पहले कांग्रेस नेताओं के लिए लोककल्याण पहली प्राथमिकता होती थी, लेकिन आज मोदी-विरोध है। मोदी-विरोध के नाम पर वह कभी-कभी राष्ट्र-विरोध करने लगती है, उनकी इस प्राथमिकता में बदलाव आने से भी दल कमजोर हुआ है। इस बात को समझना होगा कि, कोई भी दल बहुसंख्यकों को नाराज करके देश पर राज नहीं कर सकता। राहुल गांधी क्या बोलते हैं, क्या सोचते हैं, कोई स्पष्ट सन्देश ही नहीं मिल पाता। लोग समझते ही नहीं कि, क्या कहा गया है। इसी कारण कई नेता नेपथ्य में चले गए हैं, पर आभास यही दिला रहे हैं कि हम मंच पर हैं। इससे तो कठपुतली अच्छी, जो अपनी तरफ से कुछ नहीं कहती। कठपुतली के अलावा कुछ और होने का वह दावा भी नहीं करती। किसी परिवार में तो यह चल सकता है, लेकिन राष्ट्रीय दल को ऐसे नहीं चलाया जा सकता।
शीर्ष नेतृत्व की गलत सोच, गलत निर्णय, गलत प्रेरणा न केवल दल को, बल्कि राष्ट्र के ताने-बाने को उधेड़ देते हैं, ऐसा ही कांग्रेस में हो रहा है। समूचे देश में कांग्रेस के अपरिपक्व राजनीति एवं कुप्रबंधन के उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसी सूरत में सवाल उठता है कि, २०१९ में ५२ सीट पर सिमट गई कांग्रेस क्या २०२४ में अर्ध-शतक भी लगा पाएगी ? ऐसा लगता है कि, भाजपा के ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ अभियान में कांग्रेस की नीतियाँ एवं नेतृत्व मोह सहयोगी बन रहे हैं।