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चुनावी रथ में ही क्यों सवार जन-हित योजनाएं ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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आजादी के अमृतकाल के पहले लोकसभा एवं ५ राज्यों के विधानसभा चुनाव की आहट अब साफ-साफ सुनाई देे रही है, राज्यों में चुनावी सरगर्मियाँ उग्र हो चुकी है। भारत के सभी राजनीतिक दल अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में आ गए हैं और प्रत्येक प्रमुख दल इसी के अनुरूप बिछ रही चुनावी बिसात में अपनी गोटियाँ सजाने में दिखने लगे हैं। जिन ५ राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें राजस्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बहुत पहले ही विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस ली है, वे हर दिन किसी-न-किसी लुभावनी व जनकल्याणकारी योजना की घोषणा करते हुए दिखाई दे रहे हैं। चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा सहित विभिन्न योजनाओं की तरह अब उन्होंने प्रदेश के २४० राजकीय विद्यालयों को महात्मा गांधी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में रूपांतरित करने का ऐलान किया किया है, लेकिन क्या इन योजनाओं के बल पर वे पुनः सत्ता प्राप्त करने में सफल हो पाएंगे ? असल में गहलोत का मुकाबला इस बार सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से होने जा रहा है। श्री मोदी ने जनता का मानस बदलने के साथ ही गहलोत सरकार के घोटालों को उजागर किया है।
लोक-लुभावन घोषणा एवं मुफ्त की रेवड़ियाँ राजस्थान की तरह ही मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान भी बांट रहे हैं। अभी तो इनके बल पर चुनाव जीते जा सकते हैं, पर उन्हें पूरा करने के लिए दोनों ही प्रांतों की चुनी सरकारों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति उन्हें पूरा करने की अनुमति दे पाएंगी, इसमें संदेह है। जैसी रेवड़ियाँ देने की परम्परा दक्षिण से शुरु हुई थी, वैसी ही अब देश के अन्य प्रांतों में वहां की सरकारें कर रही हैं। हाल में दिल्ली नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने १० गारंटियाँ दी थीं। ये और कुछ नहीं, लोक-लुभावन वादे ही थे, जिन्हें जनकल्याण का नाम दिया गया है। मध्यप्रदेश एवं राजस्थान के मुख्यमंत्री ने चुनाव से ६ महीने पहले ही लोक कल्याणकारी योजनाओं की झड़ी लगा रखी है, जिससे राज्य का चुनावी माहौल और गर्मा रहा है।
निश्चित ही राजस्थान में लोक-लुभावन योजनाओं का जनता को लाभ मिला है, लेकिन मतदाता के मन में ये योजनाएं हैं या और कुछ ? यह वक्त ही बताएगा।
एक बात बहुत स्पष्ट है कि, मतदाता अब ज्यादा जागरूक हुआ है तो श्री गहलोत भी ज्यादा सतर्क, समझदार एवं चालाक हुए हैं। कोई मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लेकर चुनाव जीतने की कोशिश करने में जुटा है तो, कोई गठबंधन को आधार बनाकर जीतने के सपने देख रहा है।
इस बार का विधानसभा चुनाव काफी दिलचस्प एवं चुनौतीपूर्ण होने वाला है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं गृहमंत्री अमित शाह भाजपा की स्थिति को मजबूती देते हुए गहलोत सरकार को पछताड़े में लगे हैं, लेकिन भाजपा की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह अपनी हार के कारणों को बड़ी गहराई से लेते हुए उन कारणों को समझने एवं हार को जीत में बदलने के गणित को बिठाने में माहिर है। गहलोत प्रखर नेता के रूप में न केवल भीतर संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि भाजपा को चुनौती देने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। आज राजस्थान एक ‘आदर्श राज्य’ के रूप में उभरा है या नहीं ? यह देश के सबसे तेजी से आगे बढ़ने वाले राज्यों में से एक है भी या नहीं ?, यह विश्लेषण के विषय हैं। आज देश में राजस्थान की चर्चा सबसे अच्छी सड़कों, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं, सबसे अधिक विश्वविद्यालयों व सबसे आगे बढ़ने वाले राज्य से अधिक गहलोत की योजनाओं के रूप में हो रही है और यह सब योजनाएं चुनावी रथ पर सवार होकर जीत को सुनिश्चित करने की चेष्ठा है।
किसी भी राष्ट्र के जीवन में चुनाव सबसे महत्वपूर्ण घटना होती है। यह एक यज्ञ होता है, लोकतंत्र प्रणाली का सबसे मजबूत पैर होता है। सत्ता के सिंहासन पर अब कोई राजपुरोहित या राजगुरु नहीं बैठता, अपितु जनता अपने हाथों से तिलक लगाकर नायक चुनती है, लेकिन ५ राज्यों में जनता तिलक किसको लगाए, इसके लिए सब तरह के साम-दाम-दंड अपनाए जा रहे हैं। हर राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वायदों एवं घोषणाओं को ही गीता का सार व नीम की पत्ती बता रहे हैं, जो सब समस्याएं मिटा देगी तथा सब रोगों की दवा है, पर ऐसा होता तो आजादी के अमृतकाल तक पहुंच जाने के बाद भी देश एवं प्रदेश गरीबी, महंगाई, भ्रष्टाचार, अफसरशाही, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य समस्याओं से जूझता नहीं दिखाई देता। ऐसी स्थिति में मतदाता अगर बिना विवेक के आँख मूंदकर मत देगा तो परिणाम उस उक्ति को चरितार्थ करेगा कि ‘अगर अंधा अंधे को नेतृत्व देगा तो दोनों खाई में गिरेंगे’, पर एक संदेश इस चुनाव से मिलेगा कि अधिकार प्राप्त एक ही व्यक्ति अगर ठान ले तो अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, स्वास्थ्य आदि समस्याओं पर नकेल डाली जा सकती है, किन्तु देश एवं प्रदेश बनाने तथा विकास की ओर अग्रसर करने की बजाय सभी दल मुफ्त रेवड़ियाँ बांट कर एक अकर्मण्य पीढ़ी को गढ़ने की कुचेष्टा करते हैं या येन-केन-प्रकारेण चुनावी जीत का सेहरा अपने सिर पर बांधना चाहते हैं। कई बार तो ऐसी घोषणाएं भी कर दी जाती हैं, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता। उदाहरणस्वरूप दिल्ली एवं कर्नाटक सरकार ने बिजली मुफ्त देने के वादे को पूरा करने के लिए बिजली महंगी कर दी या नई गलियाँ निकाल ली। इसी तरह पंजाब सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर ‘वैट’ बढ़ा दिया। चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोक-लुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। इस पर रोक नहीं लगी तो, इसके दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ेंगे। जो चुनाव सशक्त एवं आदर्श शासक नायक के चयन का माध्यम होता है, उससे अगर नाकारा, ठग एवं अलोकतांत्रिक नेताओं का चयन होता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं देश की विडम्बना है।

प्रश्न है कि, ऐसी योजनाएं चुनाव के समय ही क्यों लागू की जाती है ? आजादी के अमृतकाल में भी देश का गरीब तबका समुचित शिक्षा से वंचित है। ऐसे वातावरण में सरकारों का ही यह दायित्व बनता है कि, वे समाज के निचले तबकों को ऊपर उठाने के लिए शिक्षा के स्तर से ही ऐसी शुरूआत करें, जिससे गरीब से गरीब का मेधावी बालक भी अपने सपनों को पूरा करके ऊंचे से ऊंचे पद तक अपनी योग्यता के अनुसार पहुंच सके। लोकतन्त्र में यह दायित्व सरकारों का ही होता है कि, वे आम आदमी के जीवन की आवश्यक जरूरतों की पूर्ति करने की व्यवस्था हेतु अनिवार्य आधारभूत ढांचा खड़ा करें।