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दादा-पोते का प्यार

डोली शाह
हैलाकंदी (असम)
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मनाली जाकर हनीमून मनाने के बाद घर आकर रेनू बहुत खुश थी, पर अभी मेहंदी के रंग के कुछ महीने ही हुए थे कि, एक तरफ सासू माँ को पोता खिलाने का शौक तो सुमित को पापा बनने का शौक सताने लगा। सुमित के लाख चाहने के बाद भी वह खुद को किसी बच्चे की डोर में नहीं बांधना चाहती थी, पर नियति के खेल को कौन जान सका है ? रेनू के न चाहने पर भी पति-पत्नी की प्रेम क्रीड़ा के फलस्वरूप रेनू गर्भवती हो गई। एक महीना ही बीता था कि, रेनू को पेट दर्द की शिकायत हुई। जांच से पता चला कि, रेनू गर्भ धारण कर चुकी है। यह सुनते ही एक तरफ सुमित को पापा बनने की खुशी, तो दूसरी तरफ दादा को पोते के सुख का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूरे घर में ऐसा माहौल, मानो मनाली ने एक तोहफा दे दिया हो।
अब रेनू पूरे परिवार की लाड़ली बन गई। सुमित भी हरसंभव उसे खुश रखने का प्रयास करता। देखते-देखते ९ महीने हँसते-खेलते बीत गए, लेकिन अंतिम महीने में रेनू की तबीयत कुछ ज्यादा ही बिगड़ने लगी। नर्सिंग होम में पहुंचने पर पता चला कि बच्चे की हालत बहुत ही नाजुक है, उसे आपरेशन कर के फौरन बाहर निकलना होगा। परिस्थितियों को समझते हुए डॉक्टर ने सुमित से माँ और बच्चे में से किसी १ को ही बचा पाने की बात कही। वैसे तो सुमित ने रेनू को ही बचाने की बात कही, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था…। उसकी सारी इच्छाएं अधूरी ही रह गई। रेनू ने बच्चे को जन्म देते ही दुनिया से हमेशा के लिए आँखें बंद कर ली। पूरे परिवार पर कहर टूट पड़ा।
सुमित के लिए अब यह जीवन एक पहाड़ बनकर सामने आ गया। एक तरफ बेटे को पाने की खुशी, तो पत्नी के खोने का गम भी… वह दोनों के बीच उलझ कर रह गया। मनाली और रेनू की यादों से सुसज्जित बच्चे को सभी प्यार से ‘मनु’ कह कर पुकारने लगे। सब उसे बड़े लाड़-प्यार से रखते, लेकिन सुमित घर की जिम्मेदारियों में फंसता ही जा रहा था। वह पूरा दिन अपने दफ्तर के कामों में ही व्यस्त रहता। उसकी व्यस्तता और जिम्मेदारियाँ देख रिश्तेदारों के साथ माता-पिता ने भी दूसरे विवाह की सलाह दी। पिता ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, लेकिन वह यह कहकर ना करता गया कि,
“बाबूजी, मैं अपने लिए पत्नी तो जरूर ले आऊंगा, लेकिन मनु के लिए माँ कहां से लाऊंगा !!”
पिता उसकी भावनाओं को देख अपने अरमानों को ठंडे बस्ते में ही दबा देते। दादी घर की सारी जिम्मेदारी के बाद मनु को खाने-खिलाने से लेकर सभी कार्य करती। उसकी पूरी देखभाल करती। वहीं घुमाने से लेकर विद्यालय की सारी जिम्मेदारी दादा के कंधों पर ही रहती, लेकिन वह करते हुए भी बड़ी खुशी का अनुभव करते। कभी उफ तक नहीं की, मानो उसके साथ उनका बचपन लौट आया हो। आखिर कहा भी तो जाता है, “बेटे से ज्यादा पोता प्यारा होता है”, और मनु तो फिर बिन माँ का लाड़ला था।
मनु के पालन-पोषण की सारी जिम्मेदारी दादी पर थी। प्रात: दूध से लेकर रात्रि भोजन तक सारे काम करती। सुमित इन चीजों से बिल्कुल अनभिज्ञ ही रह जाता। रात्रि को आने पर सिर्फ दो टूक पुचकार कर ही खुद को समेट लेता। मनु भी अब अपनी पढ़ाई, दोस्तों और सोशल मीडिया में उलझ कर अपना अधिकांश समय व्यतीत करने लगा। उसकी बढ़ती उम्र के साथ दादाजी का बुढ़ापा भी करीब आता जा रहा था। अब उनके बुलाने पर भी मनु अनसुनी-सी करता और अपनी ही दुनिया में मस्त रहता। दादाजी अब कुछ बोलने से भी हिचकिचाते। मनु को भी कुछ बताना होता, तो ऊँची आवाज सोचकर नहीं बोलते। उधर, वक्त के साथ दादाजी की तबीयत ज्यादा ही बिगड़ती चली गई। अचानक एक दिन दादाजी ने मनु को पुकारते हुए कहा-“बेटा, जरा अलमारी से मुझे दूसरा गमछा दे देना, कल वाली गीला पड़ा है।”
करीब तीन-चार बार पुकारने पर-“दादाजी, कैसा गमछा चाहिए आपको !!
“बेटा नयी दे दो अलमारी से…”।
मनु ने ज्यों ही गमछा निकाला। नीचे से पुरानी एल्बम तार-तार होकर बिखर गई।
“मनु संभाल कर”-दादाजी ने कहा।
मनु ने गुर्राते हुए कहा,-“कैसे रखते हैं आप लोग!!”
“बेटा, वो एल्बम थोड़ी देर मुझे दे दे…”।
मनु ने पटकते हुए कहा-“लीजिए”।
अचानक वहीं, अलमारी के किनारे एक तस्वीर पर उसकी नजर पड़ी, जिसमें दादाजी मनु को अपने पैरों से चलना सिखा रहे थे। मनु एकटक नजरों से देखता ही रहा। फिर चुप्पी साधे अपने कमरे की ओर चला गया।
मनु कमरे की ओर तो जरूर गया, लेकिन घंटों सोचता रहा,…कैसे-कैसे दिन आते हैं!! दिन बदलते देर नहीं लगती। कभी उन्होंने ही मुझे चलना सिखाया था और आज उन्हें एक पग आगे बढ़ाने के लिए कितना कष्ट हो रहा है। वह भी क्या दिन थे! तब वह कितनी ही बार बुलाते तब मैं जवाब देता, लेकिन वह हमेशा मुझे पुचकार कर कहते-“बेटा !” और आज मैं कितनी बार बोलता हूँ तो वह सुन पाते हैं!! उनके एक जवाब के लिए मुझे कितनी ही देर इंतजार करना पड़ता है। वक्त का यह कैसा खेल है, सोचते-सोचते वह घंटों बैठा रहा।
इतने में दादाजी की एक हल्की-सी ध्वनि पर मनु कमरे की ओर दौड़ा,-“कुछ बोले आप !!”- उसने दादाजी से पूछा।
“हाँ, वह थोड़ा बाहर जाना था!! तुम्हारी दादी नहाने गई है, वह रहती तो…”।
“अरे! दादा जी, कोई बात नहीं, आप यहीं कर लीजिए।मैं हूँ ना, साफ कर दूंगा।” उन्होंने एक करवट ली ही थी कि, पूरा बिस्तर गीला हो गया। वो डरे-सहमे नजरें झुकाए, जैसे बड़े गुनहगार हों!!
तभी मनु ने कहा-“दादाजी आप चिंता न कीजिए, मैं अभी साफ कर दे रहा हूँ!”
“लेकिन, तुम कैसे करोगे!!दादी को आने दो”।
“अरे! दादाजी ,आप इतनी देर गीले में ही रहेंगे क्या!! कोई बात नहीं, मैं साफ करके हाथ धो लूंगा…”।
“आप भी तो मेरे लिए इतना करते थे, ना रात को रात समझते थे, ना दिन को दिन। मेरी एक आवाज पर आप फौरन हाजिर हो जाते थे”।
यह सुन दादाजी के मुँह से निकला-“यह तो मेरा फर्ज था”।
“दादाजी, तो आज यह मेरा फर्ज है !”
इतने में दादी डबडबाई आँखों से कहने लगी-“वाह ! दादा पोते का प्यार। मनु, आज तू ना होता तो हम बिल्कुल अकेले ही रह जाते, तेरे पिता को तो बिल्कुल वक्त ही नहीं मिलता”।
“हाँ दादी, मैं भी देखता हूँ”। मनु के बदले व्यवहार को देख दादाजी बोले-“खुश रहो बेटा!”
इतने में सुमित अंदर प्रवेश कर बोला,-“वाह, क्या बात हो रही है!!”
“तेरी ही बात कर रहे थे, मनु बोल रहा था कि वह तेरे कामों में हाथ बंटायेगा”।
“अरे वाह,”। उसने मनु को शाबाशी देते हुए कहा-“फिर तो मेरी छुट्टी!”
दादा-दादी और पोते का प्यार देख सुमित के साथ सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई।