नताशा गिरी ‘शिखा’
मुंबई(महाराष्ट्र)
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विश्व धरा दिवस स्पर्धा विशेष………
मौत का कैसा समां,दिखा रहा है क्यूँ ख़ुदा,
प्रकृति के नजारे,क्यूँ कुपित लगे हैं सारे।
बादल गरज रहे हैं,कहीं प्यासी तड़पती धरती,
बिलख रहे हैं मासूम यहाँ पे,वहां पे बाढ़ आई।
तबाही का खेल खेले,लाशों के ढेर इतने,
दफनाने को जगह नहीं,सर छुपाने को घर नहीं।
कम्पित हुई जो धरती,मौत का पैगाम लाईं,
दफन हो गये कहाँ वो,इसका पता नहीं पाईं।
रूह भटक रही है,अब तक राह ताक रहा है,
लल्ला रो रहा है,माँ का आँचल है छूटा।
पेट में आग लगी है,खून से लथपथ है रोटी।
छीन के खा रहा है,वो देखो अपने बच्चों के मुख से।
माना नादान हैं हम,होती हमसे खता है,
न कर्मों की हमारी,दे इतनी दर्दनाक सजा तू।
हाँ,माना नादान हैं हम,होती रही हमसे खता है भौतिक सुखों के कारण,
करते रहे प्रकृति का क्षरण,नहीं कर पाए ऊर्जा संरक्षण।
करते रहे पर्यावरण से छेड़खानी,न जाने कितनी कर ली मनमानी,
जंगलों को काट डाला,नदियों को ‘बाँध’ डाला।
कारखानों के धुएं से,हमने ही किया है,वायु को विषैला,जल को किया जहरीला।
न जाने कितने जीव किए विलोपन,ऐसे ज़िया जीवन,जीवन भर रहा प्रलोभन।
आभास है हमको,भूल गए हम बचपन की हर एक पाठशाला,
पृथ्वी के अस्तित्व को ख़तरे में है हमने ही डाला।
प्रकृति के उपहारों को,ऐसे न नज़रंदाज़ करो मेरे भाई,
ये जो अपने पे आई,हमें अंदाज़ा न होगा कि हम भी नज़र आएंगे या नहीं॥
परिचय-नताशा गिरी का साहित्यिक उपनाम ‘शिखा’ है। १५ अगस्त १९८६ को ज्ञानपुर भदोही(उत्तर प्रदेश)में जन्मीं नताशा गिरी का वर्तमान में नालासोपारा पश्चिम,पालघर(मुंबई)में स्थाई बसेरा है। हिन्दी-अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाली महाराष्ट्र राज्य वासी शिखा की शिक्षा-स्नातकोत्तर एवं कार्यक्षेत्र-चिकित्सा प्रतिनिधि है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत लोगों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की भलाई के लिए निःशुल्क शिविर लगाती हैं।
लेखन विधा-कविता है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-जनजागृति,आदर्श विचारों को बढ़ावा देना,अच्छाई अनुसरण करना और लोगों से करवाना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद और प्रेरणापुंज भी यही हैं। विशेषज्ञता-निर्भीकता और आत्म स्वाभिमानी होना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-“अखण्डता को एकता के सूत्र में पिरोने का यही सबसे सही प्रयास है। हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा घोषित किया जाए,और विविधता को समाप्त किया जाए।”