संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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शाम होने को आई और,
सूरज भी पश्चिम की तरफ़
झुकता चला जा रहा,
अंधेरा होने के पहले ही
अंधेरे का अहसास हो रहा।
काले घनघोर बादल छाए,
ऐसे बिजली कड़क रही
जैसे टार्च की चमकती,
रोशनी में कोई जल्दबाजी में
कुछ ढूंढ रहा हो अचानक।
बादलों की रज़ाई ने,
सारे आसमाँ को ढक लिया
बादलों के लिए आदेश,
मिलते ही वे बड़े बेसब्री से
कूच करने लगे धरती की ओर।
बादलों को पहले से ही,
बताया गया था कि
कहाँ बरसना है कहाँ नहीं,
पेड़-पौधे वृक्ष जंगल झाड़ी
वहीं पर बरसने लगे बस।
जलधाराएँ भी स्वच्छंद,
करने लगी मनमानी
खेलने लगी अठखेलियाँ,
हवाओं के साथ
पेड़-पौधे वृक्ष जंगल झाड़ी,
झूमने लगे मस्त भिगोकर
अंग-प्रत्यंग उत्साहित होकर।
प्यास से व्याकुल प्यासी धरती,
बारिश की पहली बूँद गिरते ही
भिगोकर हो रोमांचित,
छोड़ने लगी तप्त श्वाँस
उसकी साँसों की गंध
अब हवा में फैलने लगी है।
हवा भी मदमस्त होकर,
घूम रही आवारा की तरह
देर तक बादल, बिजली,
हवा और बारिश इनका
खेल चलता रहेगा।
और वहीं दूसरी तरफ,
पेड़-पौधे वृक्ष जंगल झाड़ी
हो जाएँगे समाधिस्थ।
पहली बारिश का
आंनद लेते-लेते…॥