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पैसे का रंग

रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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पैसा मौत का रूप धर आदमी को लुभा रहा,
दूधवाला दूध में जब केमिकल मिला रहा
सब्जीवाला केमिकल डाल सब्जी को बढ़ा रहा,
देखो पैसे की होड़ में, खाने में जहर भर रहा।

क्या खाकर बनोगे तुम हृष्ट- पुष्ट व स्वस्थ,
दवाई नकली बेच के बन बैठा सिद्धहस्त
दोष देते नेताओं को, खुद को नहीं देखते,
मौका मिले तो लूटने से नहीं किसी को छोड़ते।

नकली खाना, नकली पानी, नकली हवा है बह रही,
बलशाली ताकत देखो हरदम ही निर्बल को दबा रही
सभी चोर है यहाँ बसे, तो किसको दोष हम देते ?
हक हमारा है गाली देना, हम गाली ही हैं देते।

अपनी आवश्यकता को इतना बढ़ा लिया है तुमने,
तभी पैसे की खातिर ही इमान बेच दिया है तुमने
भोले-भाले किसानों को भी तुमने यह रीति सिखाई,
केमिकल की खूबी तो तुमने ही उसको दिखलाई।

जीवन के यह तीन आधार- रोटी, कपड़ा और मकान
रोटी ही शुद्ध नहीं मिले, तब क्या होगा और पकवान
रेत मिलाकर मकान बने, उसका कौन है ठौर ?
जरा बरसात हुई नहीं कि, ढह जाए उसका ठौर।

कपड़ा टेलरिन का पहन, बढ़ा लो तुम चर्म रोग,
हमेशा खुजाते रहो तन, ठिठाई भरा यह रोग
हाय रे नर पैसों की खातिर, क्या-क्या न तुम करते हो ?
अपने चेहरे को देखते नहीं, आइने को दोषी बताते हो।

इतना सब होते हुए भी देख दयालु कितना भगवान,
जीवन अभी भी पल रहा, आता यहाँ नव मेहमान।
इस बाजार भाव में देखो, अच्छा भी है पिस रहा,
क्यों न बुरे हम बनें, जब संसार ही बुरा बन रहा॥