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भारतीय भाषाओं के अमर सेनानी ‘डॉ. वैदिक’

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
मुम्बई(महाराष्ट्र)
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१४ मार्च-पुण्य तिथि विशेष….

डॉ. वेद प्रताप वैदिक के व्यक्तित्व के अनेक महत्वपूर्ण पहलू हैं। वे हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी व रूसी आदि अनेक भाषाओं के जानकार थे। वे विशेषकर दक्षिण एशिया की विदेश नीति के विशेषज्ञ और भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष थे। वे विश्व स्तर के कूटनीतिज्ञ थे, जिनका विभिन्न देशों के राष्ट्रीय अध्यक्षों व नेताओं से निरंतर संपर्क बना रहा। वे विदेश नीति के विभिन्न मामलों में पर्दे के पीछे से तत्कालीन सरकारों का सहयोग भी करते रहे। वे वरिष्ठ पत्रकार थे, प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया की हिंदी संवाद सेवा ‘भाषा’ के प्रमुख रहे। वे निर्भीक और बेबाक वक्ता थे एवं बड़े से बड़े नेता के सम्मुख भी निर्भीक होकर अपनी बात रखते थे। मुझे लगता है कि, इन सबसे बढ़कर भी उनका अगर कोई कार्य था तो वह था भारतीय भाषाओं को व्यवहार और व्यापार में, शिक्षा और रोजगार में, शासन-प्रशासन और न्याय आदि में भारतीय भाषाओं को स्थापित करने का। इसके लिए उन्होंने विद्यार्थी-काल से जीवन के अंतिम क्षणों तक निरंतर संघर्ष किया और आवाज उठाई।
विद्यार्थी-काल में जब उन्होंने अपना शोध ग्रंथ हिंदी में ही प्रस्तुत करने की जिद की तो मामला संसद में गूंजा और आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा। वे बड़े से बड़े मंचों पर भी भारतीय भाषाओं की बात करने से न चूकते थे। बताते हैं कि, जब अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बने, तब प्रधानमंत्री कार्यालय में एक कार्यक्रम में उन्होंने बड़ी ही बेबाकी से हिंदी की बात को रखते हुए कहा ‘माननीय वाजपेयी जी, आपको प्रधानमंत्री किसने बनाया ? आपको प्रधानमंत्री बनाया है हिंदी ने।’ उपस्थित सभी लोग उनकी इस बेबाकी और निर्भीकता पर हैरान थे। उन्होंने प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ भारतीय भाषाओं के आंदोलन को चलाया। अनकी पुस्तक ‘अंग्रेजी हटाओ क्यों और कैसे’ बहुत चर्चित रही। अगर मामला हिंदी और भारतीय भाषाओं का हो, तो वे अपनी तमाम व्यवस्तताओं के बावजूद कार्यक्रमों में अवश्य पहुंचते थे। ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ और जनता की आवाज फाउंडेशन द्वारा जब जंतर-मंतर पर जनभाषा में न्याय, शिक्षा, रोजगार और भारत के नाम को लेकर धरना दिया गया तो खराब मौसम के बावजूद भी वे पहुंचे और सम्मेलन की आवाज में अपनी आवाज़ मिलाई थी।
वैदिक जी बोलियों के नाम पर हिंदी को बांटने के भी विरोधी थे। मुझे याद है कि, एक बार वे मुम्बई आए हुए थे। हम दोनों संविधान सभा के सदस्य और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सेठ गोविंद दास की वयोवृद्ध बेटी पद्मा से मिलने के लिए कार्यालय में गए। वहाँ उन्होंने वैदिक जी से कहा कि, वे राजस्थानी को अष्टम अनुसूची में स्थान दिलवाने में मदद करें। तब वैदिक जी ने बड़ी ही विनम्रता और बेबाकी के साथ कहा, ‘बहन जी, मैं तो स्वयं इसका प्रबल विरोधी हूँ। यदि इस प्रकार हिंदी की बोलियों को अलग कर दिया गया तो फिर देश में हिंदी बचेगी कहाँ ? देश में हिंदी भाषी कौन होगा ?’ उन्होंने वैदिक जी की बात को ध्यान से सुना और समझा।
वैदिक जी अक्सर कहा करते थे कि, ‘स्वयं को हिंदीसेवी कहने वाले हिंदी के ज्यादातर साहित्यकार अपनी रचनाओं को लेकर आत्ममुग्ध रहते हैं और पुरस्कारों व सम्मानों की उठा-पटक में लगे रहते हैं। वे हिंदी के प्रचार- प्रसार के लिए न तो कुछ करते हैं, न ही उसके संघर्ष के साथ खड़े होते हैं। अगर सभी लोग मिलकर अपनी भाषाओं के पक्ष में खड़े हों, तो भारतीय भाषाओं का एक बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा हो सकता है।’

मुझे लगता है स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय भाषाओं का इतना बड़ा सेनानी दूसरा कोई नहीं हुआ! जब-जब भारतीय भाषाओं की अस्मिता और उन्हें बचाने-बढ़ाने की बात होगी, तो सबसे पहले डॉ. वैदिक का नाम आएगा। ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ भारतीय भाषाओं के अमर सेनानी डॉ. वैदिक को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन करता है।