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भारत की सेतु `हिन्दी` विश्वभाषा की ओर अग्रसर

डॉ. प्रभु चौधरी
उज्जैन(मध्यप्रदेश)

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सन् १९७५ में हुए प्रथम हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी को राष्ट्रसंघ की भाषा बनाने का प्रस्ताव पारित हुआ था,जो कार्य आज तक सम्पन्न नहीं हो पाया,किन्तु इसके अनवरत प्रयास से आशा है कि शीघ्र ही हमें सफलता मिलेगी। विश्व हिन्दी सम्मेलनों के प्रयास से ही महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी है और माॅरीशस में विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना भी हो चुकी है। विश्व में हिन्दी के प्रति चेतना बढ़ी है,भारत विश्व में अन्य देशों के लिए हिन्दी के माध्यम से सेतु बन सकता है,बन रहा है। विश्व हिन्दी सम्मेलनों से हिन्दी के प्रति चेतना भारत में भी थोड़ी बहुत बढ़ी है। क्या हिन्दी भारत की सेतु बन सकती है ? जिस ढंग से शासन हिन्दी की उपेक्षा कर रहा है,लगता नहीं है। विश्व हिन्दी सम्मेलनों के आयोजनों का सिलसिला राष्ट्रभाषा प्रचार समिति(वर्धा) ने भारत शासन के सहयोग से प्रारम्भ किया है। समिति हिन्दी के प्रचार का कार्य बड़ी निष्ठापूर्वक कर रही है। इसके बावजूद आज जिस तेजी से अंग्रेजी का प्रभुत्व भारत में बढ़ रहा है,भारतीय भाषाओं का महत्व उतनी तेजी से कम हो रहा है। अंग्रेजी के महत्व के बढ़ने का प्रमुख कारण उसका मलाईवाली रोजी-रोटी से अनिवार्य रूप से जुड़े होना है,शेष कारण जैसे कि उसका कम्प्यूटर भाषा होना,उसका कथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय होना बहुत गौण कारण है। कम्प्यूटर का तो भारत की एक प्रतिशत से भी कम जनता उपयोग करती है और दशमलव एक प्रतिशत से भी कम लोग विदेश जाने की शक्ति रखते हैं। अर्थात् यह कारण तो अंग्रेजी की गुलामी करने वालो पर ही लागू होते हैं। न्यूयार्क में आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का समापन जुलाई २००७ के मध्य हुआ है,यह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण घटना है। यह विचारणीय हो सकता है कि क्या यह उतना उपयोगी है,जितना इस पर खर्च होता है तथा जितनी इससे अपेक्षा की जाती है। विश्व हिन्दी सम्मेलन की शक्ति केवल जनतांत्रिक मनोबल की शक्ति है,यह उसकी सीमा भी है और शक्ति भी। इसमें प्रगति होती है किन्तु धीरे-धीरे ही हो सकती है। और अंग्रेजी का महत्व कौन बढ़ा रहे हैं ? शासन में नौकरी करने वाले औपनिवेशक परम्परा पर चल रहे हैं। कौन बदले शासकीय कार्यों की पद्धति और क्यों बदले। शासकों को तो लाभ ही लाभ हैं। इस जनतंत्र में जनता,जो असली शासक है और जो अंग्रेजी जानती ही नहीं,उन पर निगरानी नहीं रख सकती वे तो मनचाही करते हैं और उनके बच्चों को लाभ है। अंग्रेजीदा लोगों की नजर में यदि अंग्रेजी भाषा पश्चिम की भोगवादी संस्कृति ला रही है,तो अच्छा ही है। यदि मानवीयता कम हो रही है तो हो,वे तो सुरक्षित हैं।
भारत में अंग्रेजी भाषा में जीवन जीने के बहुत नुकसान हैं। एक तो उपर लिखा गया है कि पश्चिमी भोगवाद हमारी मानवीयता को कम कर रहा है। पश्चिम तो कानून व्यवस्था करना जानता है और उसकी संस्कृति का आधार भी वही है। भारत में हम पड़ोसियों की,आमजन की,और जरूरत पड़ने पर पंचायत की सदभा वना पर रहते आए हैं,जो सबकी लुप्त हो रही है। दूसरा बड़ा नुकसान यह है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हमें ९५ से ९८ प्रतिशत जनता का लाभ ही नहीं मिलता,क्योंकि अंग्रेजी जानने वालों की संख्या तो २ से बढ़कर अभी ५ प्रतिशत हुई है। वैसे यह २ प्रतिशत संख्या भी बहुत कम नहीं है। इजरायल की कुल आबादी हमारी आबादी की एक प्रतिशत से भी बहुत कम है और उनका अस्तित्व भी १९४८ में आया,पर वे हमसे विज्ञान में आगे हो गए हैं। हम लगभग १७० वर्ष से अंग्रेजी पढ़ रहे हैं। इजरायल अपनी पूरी शिक्षा ‘हिबू्र’ में देता है,जबकि हिबू्र १९४८ के पहले किसी भी देश की भाषा नहीं थी और न उसमें तब तक विज्ञान लिखा गया था। विज्ञान जानने वालों की संख्या में भारत इजरायलियों की अपेक्षा बहुत अधिक है,तब क्या कारण है कि वे हमसे आगे हैं ? आविष्कार और रचनात्मक कार्य हृदय की भाषा में होते हैं,न कि रोजी वाली भाषा में और यूनेस्को के अनुसार बच्चों को मातृशक्ति में शिक्षा न देना उनके मानवाधिकारों का हनन है। आज हिन्दी राष्ट्रभाषा होते हुए भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। हिन्दी के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा अंग्रेजी है। एक और हमारे शिक्षाशास्त्री विद्वानों की मान्यता रही है कि व्यक्ति अपने जन्म से ही एक विशेष भाषा विरासत के रूप में प्राप्त कर लेता है, क्योंकि उसे अपने परिवार की ही भाषा को सीखना होता है। किसी देश की सभ्यता तथा संस्कृति के प्रतीक स्वरूप अन्य बातों की ओर भी हमारा ध्यान जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भाषा के प्रबल महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। अंग्रेजों के भारत को छोड़कर चले जाने के बाद राजकीय कामकाज भारतीय भाषा में किये जाने की आवश्यकता महसूस की गई। इस पर विचार करने के लिए संविधान सभा की बैठक आयोजित की गई,जिसमें हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया क्योंकि भारत में हिन्दी बोलने वालों की संख्या अन्य भाषा-भाषियों से अधिक है। संविधान सभा में हिन्दी के साथ अंग्रेजी को भी कामकाज के लिए शामिल कर लिया गया,पर राजनीतिज्ञों ने हिन्दी को प्रांतीय भाषा के विरूद्ध खड़ा कर दिया,जिससे हिन्दी के विरूद्ध अन्य भाषा-भाषी खड़े होने लगे,जबकि हिन्दी की होड़ केवल अंग्रेजी से हो रही है,अन्य किसी प्रांतीय भाषा से नहीं।
संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को बिठाने का सबसे ज्यादा विरोध हमारे नौकरशाह करेंगे। संयुक्त राष्ट्र का सारा कामकाज हमारे नौकरशाह संभालते हैं। नेताओं की भूमिका १ प्रतिशत भी नहीं होती। हमारे सारे भाषण पहले से लिखे हुए और छापे हुए रहते हैं। यदि संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी मान्य हो गई तो हमारे नौकरशाहों के प्राण पखेरू उड़ जाएँगे। वे क्या करेंगे ? कैसे वे हिन्दी में बोलेंगे और कैसे वे अपने और हम लोगों के भाषण हिन्दी में लिखेंगे ? यहाँ विदेश मंत्रालय में वे एक शब्द भी हिन्दी का प्रयोग नहीं करते। वहाँ संयुक्त राष्ट्र में वे शत-प्रतिशत हिन्दी कैसे चलाएंगे ? इसलिये हिन्दी को लेकर प्रस्ताव पारित होते रहेंगे लेकिन संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी आसानी से बैठ नहीं पाएगी ? संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को बिठाने का प्रस्ताव प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में पारित हुआ था,लेकिन हुआ क्या ? कुछ नहीं।
वर्ष २००८ को संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘भाषाओं का अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष’ घोषित किया है। यदि इस अभियान में हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की अधिकारिक भाषा के रूप में प्रवेश दिलाना है तो विदेश मंत्रालय के साथ ही हमारे दूतावासों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी। विश्व के विभिन्न देशों के दूतावास अपनी राष्ट्रभाषा में पारंगत होने के साथ ही संबंधित देश की भाषा का ज्ञान प्राप्त करने में भी नहीं हिचकते हैं, किन्तु यह विडम्बना ही है कि हमारे देश के अधिकांश दूतावासों के कर्मचारी न तो अपनी राष्ट्रभाषा की परवाह करते हैं,न ही संबंधित देश की भाषा की। हमारे दूतावासों में अंग्रेजी का ही बोलबाला रहता है।
१९७७ में जब अटलबिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे,तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए राजभाषा हिन्दी में भाषण दिया था,जिससे सारा देश गौरवान्वित हुआ था। भारतीय जनता की ओर से उन्हें काफी प्रशंसा मिली थी। तब वे फूले नहीं समाए थे। अटलजी के प्रधानमंत्री बनने पर सारा देश यह आस लगाए बैठा था कि अब हमारी राष्ट्रीय गौरव राजभाषा हिन्दी,जो अब तक अपेक्षित रहती आई है,उसे पूरे राष्ट्र में स्थापित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे,लेकिन कांग्रेस शासन की तरह अटल सरकार भी सफल रही । २००७ में न्यूयार्क में आठवे विश्व हिन्दी सम्मेलन में संकल्प लिया गया कि हिन्दी को विश्वभाषा का दर्जा दिलाया जाएगा। अपने देश में हिन्दी को अभी तक राष्ट्रभाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है तो विश्व भाषा बनने का प्रयास कब तक सफल होगा।
हिन्दी में विश्वभाषा बनने की शक्ति है, किन्तु हम इसे अंग्रेजी के प्रति मोह के कारण ईमानदारी से भारत की राजभाषा और संपर्क भाषा भी नहीं बना रहे हैं। इस समय विश्व में हिंदी जानने-समझने वालों की संख्या सबसे अधिक है,यद्यपि अंग्रेजीभक्त अंग्रेजी को ही यह स्थान दे रहे हैं। अगले ५-१० वर्षो में भारत में और इसलिए विश्व में भी अंग्रेजी(जो शायद ही कामचलाऊ भी हो) जानने वालों की संख्या विश्व में राष्ट्रभाषाएँ हिंग्लिश, तिमिंग्लिश,तेलुगिंग्लिश आदि-आदि होगी और संस्कृति निठारी संस्कृति होगी। विश्व के देशों में भारत तभी हिन्दी का सेतु हो सकता है,जब भारत में प्रदेश के बीच हिन्दी सेतु बने।
विश्वभाषा हिन्दी के संबंध में यह एक विचित्र तथ्य है कि उसने अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जितनी प्रगति की है,उतनी ही राष्ट्रीय स्तर पर नहीं कर पाई। इसका ज्वलंत प्रमाण यही है कि हिन्दी विश्व भाषा तो सरलता से बन गई किन्तु देश की राष्ट्रभाषा का वास्तविक दर्जा नहीं पा सकी। यह विश्वभाषा हिंदी भारत में भी अपना स्थान प्राप्त करके रहेगी। चाहे उसकी प्रगति के मार्ग में कितने ही रोड़े क्यों न अटकाए जाएँ। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जब हम गुलाम थे तब हमारी भाषा आजाद थी और जब हम आजाद हुए तब हमारी भाषा गुलाम हो गई। इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि हम तो विदेशी ताकत के गुलाम थे लेकिन हमारी भाषा हिंदी देशी ताकत की गुलाम थी। हमारे ही नेताओं, नौकरशाहों और तकनीकीशाहों ने इसके पैरों में बेड़ियां डाल रखी है, ताकि यह तेजी से आगे न बढ़ सके,पर उनका यह प्रयास बाढ़ में आई नदी को बांधने जैसा है। वह समय दूर नहीं,जब हिंदी इस बेड़ी और बांध को तोड़कर आगे निकल जाएगी। यह इसलिए होगा क्योंकि प्रजातंत्र में जनता स्वामी होती है मंत्री,नौकरशाह तथा तकनीकीशाह नौकर लेकिन उंचे पदों पर प्रतिष्ठित होकर अहंकार के नशे में चूर ये लोग स्वयं को मालिक और जनता को नौकर समझकर अपनी मरजी उस पर लाद रहे हैं,लेकिन यह स्थिति अधिक समय तक रहने वाली नहीं है। निम्नांकित शक्तियां और परिस्थितियां राष्ट्रभाषा हिंदी के पक्ष में वातावरण निर्मित कर रही है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कुछ दिन पूर्व घोषणा की है कि भारत सरकार हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिये संकल्पित है,लेकिन इसमें केवल प्रारंभिक तीन वर्ष में 30 मिलियन डालर का खर्च मात्र नहीं उठाना है,बल्कि ३ मानवीय शर्तों का भी पालन करना है-हमारे राजनेता और राजनायिक देश-विदेश में हिन्दी का उपयोग करें,हमारे दूतावास हिंदी में काम करें एवं हमें संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के सामान्य बहुमत का समर्थन प्राप्त हो। पहली दो शर्तों की पूर्ति के लिए कठोर निर्णय लेने होंगे। सारे विश्व में हिंदी दिवस मनाया जाना भी हिंदी के विश्वभाषा होने का प्रमाण है। विज्ञान, विधा और तकनीकि शब्दों के शब्दकोश तैयार हो चुके हैं। ऐसी दशा में उच्चस्तरीय विज्ञान, विधि और तकनीकी शिक्षा कभी भी हिंदी में प्रारंभ की जा सकती है। हिंदी प्रदेशों के राज्यपाल उच्च न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश आदि राज्यों ने ऐसा किया है। संसदीय राजभााषा समिति ने उच्च न्यायालयों एवं उच्चतम न्यायालयों में काम हिंदी में प्रारंभ करने का प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा है। केन्द्रीय राजभाषा कार्यान्वयन समिति,संसदीय राजभाषा समिति,विभागीय राजभाषा कार्यान्वयन समिति,नगर राजभाषा बनाने हेतु उसके प्रचार-प्रसार में जोर शोर से लगी हुई है। इसके अतिरिक्त देशभर में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियां भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में लगी हुई है। इनमें गैर हिंदी क्षेत्र की समितियों का कार्य अधिक व्यवस्थित एवं सराहनीय रहा है। हिंदी की श्रीवृद्धि में क्षेत्रीय भाषाओं का योगदान भी कम नहीं है। क्षेत्रीय भाषाओं से हिंदी में और हिंदी से क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद भी हिंदी की श्रीवृद्धि में सहयोगी है। इसमें और अधिक समन्वय की आवश्यकता है।
हवाई जहाजों में भी अब अंग्रेजी के साथ हिंदी का प्रयोग और प्रभाव बढ़ रहा है। उपरोक्त कारणों से वह दिन बहुत दूर नहीं जब विश्वभाषा हिन्दी देश में अपना स्थान प्राप्त करके रहेगी।

परिचय-डॉ.प्रभु चौधरी का निवास जिला उज्जैन स्थित महिदपुर रोड पर है। डॉ. चौधरी का जन्म १९६२ में १ अगस्त को उज्जैन में हुआ है। इनकी शिक्षा-हिन्दी और संस्कृत में पी-एच.डी. है। हिन्दी सहित अंग्रेजी संस्कृत,गुजराती तथा बंगला भाषा भी जानने वाले प्रभु जी की ४ प्रकाशित हो चुकी है। आप एक संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं,जो शिक्षकों तथा हिंदी के लिए कार्यरत है। साथ ही राष्ट्रीय कई संस्थाओं में उपाध्यक्ष,सम्पादक सदस्य(नई दिल्ली) और प्रदेश संयोजक हैं। आपको सम्मान के रूप में-साहित्य शिरोमणि,विद्या सागर एवं विद्या वाचस्पति,आदर्श शिक्षक(राज्य स्तरीय),राजभाषा गौरव(दिल्ली),हिन्दी सेवी सम्मान(बैंगलोर),हिन्दी भूषण सम्मान उपाधि,भाषा भूषण सम्मान,तुलसी सम्मान (भोपाल),कादम्बरी सम्मान तथा स्व. हरिकृष्ण त्रिपाठी कादम्बरी सम्मान(जबलपुर) है। प्रकाशन में आपके नाम-राष्ट्रभाषा संचेतना (निबंध संग्रह-२०१७),हिन्दी:जन भाषा से विश्व भाषा की राह पर(२०१७) प्रमुख है। कई अन्तरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों मेंआपकी समन्वयक के रूप में सहभागिता रही है। आपकी लेखन विधा मूलतः आलेख हैl राजभाषा,राष्ट्रभाषा,देवनागरी लिपि तथा सम-सामयिक विषयों एवं महापुरूषों के बारे में लगभग ३००० लेख प्रकाशित हुए हैंl डॉ.चौधरी की लेखनी का उद्देश्य हिंदी भाषा की बढ़ोतरी करना हैl

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