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हे भारत! जागो!

डॉ. प्रभु चौधरी
उज्जैन(मध्यप्रदेश)

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१२ जनवरी स्वामी विवेकानंद जयंती विशेष…………..
कुछ लोग कह सकते हैं कि अब तो वेदान्त का यह ज्ञान सम्पूर्ण विश्व के सभी लोगों को पहले ही उपलब्ध हो चुका है। तो अब,भारत की भूमिका किस प्रकार की है ? संक्षेप में कहा जाए तो कोई पूछ सकता है,-“क्या भारत की आवश्यकता है ?‘‘ इसका उत्तर
है-‘हाँ!‘ क्योंकि,आध्यात्मिकता कोई सूचना नहीं है,वह बौद्धिक विश्वास भी नहीं है,वह है ‘होना और बनना।’ इस एकत्व को जीवन में क्रियान्वित करना होगा,पारिवारिक, सामाजिक आदि व्यवस्थाओं में उसका क्रियान्वयन वर्तमान समय के अनुकूल पुनर्परिभाषित और पुनर्निधारित करना होगा। दर्शन निरन्तर रहेगा,विचाराधीन समय के अनुकूल और मूल्यों एवं दर्शन को अभिव्यक्त करने में समर्थ पद्धतियों के माध्यम से इन मूल्यों को अभिव्यक्त करना होगा। यह वह कार्य है,जो भारत को करना है। मानवता के हित के लिये यह कार्य भरत और केवल भारत ही कर सकता है। अपने ऋषियों के
ज्ञान के पुनः उपयोग पर सबका ध्यान संकेन्द्रित करने वाले इस युग के प्रथम व्यक्ति थे,स्वामी विवेकानन्द! इस विषय पर भगिनी निवेदिता सुन्दर ढंग से लिखती है-“यदि हिन्दू धर्म के दूत के रूप में उनका कुछ अपना होता,तो स्वामी विवेकानन्द जो कुछ थे,उससे कम सिद्ध हुए होते। गीता के कृष्ण की भांति, बुद्ध की भांति,शंकराचार्य की भांति, भारतीय चिंतन के अन्य प्रत्येक महान विचारक की भांति, उनके वाक्य भी वेदों और उपनिषदों के उद्धरणों से परिपूर्ण है। भारत के पास जो अपनी ही निधियां सुरक्षित है। भारत के ही प्रति मात्र उद्घाटक और भाष्यकार के रूप में स्वामीजी का महत्व है। यदि वे कभी जन्म ही न लेते,तो भी जिन सत्यों का उपदेश उन्होंने किया,वे वैसे सत्य बने रहते। यही नहीं,वे सत्य उतने ही प्रमाणित भी बने रहते।
अंतर केवल होता,उनकी प्राप्ति की कठिनाई में,उनकी अभिव्यक्ति में, आधुनिक स्पष्टता और तीक्ष्णता के अभाव में और पारस्परिक सामंजस्य एवं एकता की हानि में। यदि वे न
होते,तो आज सहस्त्रों लोगों को जीवनदायी संदेश प्रदान करने वे ग्रन्थ पंडितों के विवाद के विषय ही बने रह जाते। उन्होंने एक पंडित की भांति नहीं,एक अधिकारी व्यक्ति की भांति उपदेश दिया,क्योंकि जिस सत्यानुभूति का उपदेश उन्होंने किया,उनकी गहराइयों में वे स्वयं ही गोता लगा चुके थे और रामानुज की भांति उसके रहस्यों को चांडाल,जाति बहिष्कृत और विदेशियों को बतलाने के निमित्त ही वे वहाँ से लौटे थे।
ऐसा नहीं है कि,स्वामी विवेकानंद केवल वह दोहरा रहे थे जो वेदान्त में है। सत्य तो यह है कि श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द ने तब तक पहचाने गए सभी अंतर्विरोध दूर कर दिए थे। भगिनी निवेदिता इसे स्पष्ट करती हुई आगे कहती है कि-”
किन्तु फिर भी यह कथन कि उनके उपदेशों में कुछ नवीनता नहीं है,पूर्णतः सत्य नहीं है।”
“यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये स्वामी विवेकानन्द ही थे,जिन्होंने अद्वैत दर्शन के श्रेष्ठत्व की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्धैत में यह अनुभूति समाविष्ट है,जिसमें सब एक है,जो एकमेवाद्वितीय है,पर साथ-साथ उन्होंने हिन्दू धर्म में यह सिद्धान्त भी संयोजित किया कि द्वैत,विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं,जिनमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है। यह एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर है,जिनमें अंतिम अद्वैत ही लक्ष्य है। यह एक और भी महान तथा अधिक सरल,इस सिद्धान्त का अंग है कि अनेक और एक, विभिन्न समयों पर विभिन्न वृतियों में मन के द्वारा देखे जाने वाला एक ही तत्व है,
अथवा जैसा श्रीरामकृष्ण ने उसी सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया है,-“ईश्वर साकार और निराकार दोनों ही है। ईश्वर वह भी है,जिसमें साकार और निराकार दोनों ही समाविष्ट है।
यही-वह वस्तु है,जो हमारे गुरूदेव के जीवन को सर्वोच्य महत्व प्रदान करती- है,क्योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं,भूत और भविष्य के भी संगम-बिन्दु बन जाते हैं। यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य है,तो केवल उपासना के विविध प्रकार नहीं, वरन् सामान्य रूप से कर्म के भी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार,सर्जन के सभी प्रकार भी,सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं।अतः लौकिक और धार्मिक में अब आगे और कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही कठोर न्याय है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना। स्वामी विवेकानन्द की यही अनुभूति है, जिसने उन्हें उस कर्म का महान उपदेष्टा सिद्ध किया,जो ज्ञान-भक्ति से अलग नहीं,वरन् उन्हें अभिव्यक्त करने वाला है। उनके लिये कारखाना,अध्ययन कक्ष,खेत और क्रीड़ भूमि आदि भगवान के साक्षात्कार के वैसे ही उत्तम
और योग्य स्थान हैं,जैसे साधु की कुटी या मन्दिर का द्वार। उनके लिए मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा,पौरूष तथा श्रद्धा,सच्चे नैतिक बल और आध्यात्मिकता में कोई अन्तर नहीं है। एक दृष्टि से उनकी सम्पूर्ण वाणी को इसी केन्द्रीय दृढ़ आस्था के भाष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक बार उन्होंने कहा था,-“कला,विज्ञान एवं धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के त्रिविध माध्यम हैं,लेकिन इसे समझने के लिए निश्चय ही हमें अद्धैत का सिद्धान्त चाहिए।”
अपनी आध्यात्मिक परम्परा को पुनर्प्राप्त करना,स्वयं के पुननिर्माण के लिए उसे क्रियान्वित करना और विश्व के समक्ष उसे व्यवहारिक स्वरूप में प्रस्तुत करना,किन्तु सैकड़ों वर्षों से भारत गहन निद्रा में होने से,इस भारत को जगाने के लिए स्वामी विवेकानन्द ने शंखनाद किया था। अपनी अन्तर्निहित शक्ति के साथ,हे भारत! जागो!!
‘देवनिर्मितम् देशम्,ऋषिनिर्मितम् राष्ट्रम्‘ भारत की भूमि का निर्माण देवताओं द्वारा और भारतीय राष्ट्र का निर्माण ऋषियों द्वारा किया गया है। यह भारतभूमि कितनी सुन्दर है। सभी तरह की ऋतुएँ,अत्यधिक जैव-विविधता,भरपूर सूर्यप्रकाश और वर्षा, खनिजों की भरपूर सम्पदा-क्या नहीं है। अनेक वरदान। इस भूमि में ऋषियों ने अपनी तपस्या से हमें,मानव को दिव्य ऊँचाई तक पहुंचाने वाली जीवन पद्धति एवं जीवनदृष्टि प्रदान की। हमें किस बात का अभाव है ?, फिर भी हम शक्ति के पुजारी,रोते हुए दुर्बल बच्चे बने बैठे है । स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे-‘‘एक ऊँचा आदर्श रहना अलग बात है और उस आदर्श को अपने व्यवहारिक जीवन में लाना अलग बात है।‘‘
सदियों से हम बेसुध पड़े हुए थे,यही बात थी। वे हमें अपनी अन्तर्निहित शक्ति के साथ जगाना चाहते थे।
मानों विगत एक हजार वर्ष से हमारे जातिय जीवन का यही एकमात्र लक्ष्य था कि किस प्रकार हम अपने को दुर्बल से दुर्बलतर बना सकेंगे। अन्त में हम वास्तव में हर एक के पैर के पास
रेंगनेवाले ऐसे केंचुओं के समान हो गये हैं, इस समय जो चाहे वही हमको कुचल सकता है। हे बन्धुगण,तुम्हारी और मेरी नसों में एक ही रक्त प्रवाहित हो रहा है,तुम्हारा जीवन-मरण मेरा भी जीवन-मरण है। मैं तुमसे पूर्वोक्त कारणों से कहता हूँ कि हमको शक्ति,केवल शक्ति ही चाहिए। और उपनिषद् शक्ति की विशाल खान है। उपनिषदों में ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि समस्त संसार को तेजस्वी बना सकते है। उनके द्वारा समस्त पुनरूज्जीवित,सशक्त और वीर्यसम्पन्न हो सकता है। समस्त जातियों को,सकल मतों को भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के दुर्बल,दुःखी पददलित लोगों को स्वयं अपने पैरों खड़े होकर मुक्त होने के लिये वे उच्च स्वर में उद्घोष कर रहे। मुक्ति अथवा स्वाधीनता-दैहिक स्वाधीनता,मानसिक,स्वाधीनता,आध्यात्मिक स्वाधीनता यही उपनिषदों के मूल मंत्र है। अपने स्नायु बलवान बनाओ। आज हमें जिसकी आवश्यकता है,वह है-लोहे के पुठ्ठे और फौलाद के स्नायु। हम लोग बहुत दिन रो चुके। अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सके। हमें ऐसे सिद्धांतों की जरूरत है,जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए,जो हमें मनुष्य बना सके और यह रही सत्य की कसौटी-जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो,उसमें जीवन-शक्ति नहीं है,वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है और अपने उपनिषदों का-उस बलप्रद,आलोकप्रद, दिव्यदर्शन शास्त्र का-आश्रय ग्रहण करो। उपनिषद का सत्य तुम्हारे सामने है। इनका अवलम्बन करो,इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो। बस देखोगे! भारत का उद्धार निश्चित है।
अपनी अन्तर्निहित शक्ति के साथ जागने का अर्थ है,स्वयं के प्रति विश्वास, भारत में विश्वास,जैसा कि स्वामी विवेकानन्द में हमें दिखाई दिया था। जब भारत अंग्रेजों के अधीन था,जब वह अज्ञान और दरिद्रता में लौट रहा था,आत्मविश्वास शून्य बन कर पश्चिम की नकल कर रहा था। ऐसे समय में, क्या हम सोच सकते हैं कि,स्वामी विवेकानन्द ने कहा कि,-“भारत के पास विश्व को देने के लिए एक सन्देश है। उन्होंने एक तेजस्वी भारत उभरता हुआ देखा था। ऐसा,
आत्मविश्वास हम सबमें,हमारी मातृभूमि में होना चाहिए।

परिचय-डॉ.प्रभु चौधरी का निवास जिला उज्जैन स्थित महिदपुर रोड पर है। डॉ. चौधरी का जन्म १९६२ में १ अगस्त को उज्जैन में हुआ है। इनकी शिक्षा-हिन्दी और संस्कृत में पी-एच.डी. है। हिन्दी सहित अंग्रेजी संस्कृत,गुजराती तथा बंगला भाषा भी जानने वाले प्रभु जी की ४ प्रकाशित हो चुकी है। आप एक संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं,जो शिक्षकों तथा हिंदी के लिए कार्यरत है। साथ ही राष्ट्रीय कई संस्थाओं में उपाध्यक्ष,सम्पादक सदस्य(नई दिल्ली) और प्रदेश संयोजक हैं। आपको सम्मान के रूप में-साहित्य शिरोमणि,विद्या सागर एवं विद्या वाचस्पति,आदर्श शिक्षक(राज्य स्तरीय),राजभाषा गौरव(दिल्ली),हिन्दी सेवी सम्मान(बैंगलोर),हिन्दी भूषण सम्मान उपाधि,भाषा भूषण सम्मान,तुलसी सम्मान (भोपाल),कादम्बरी सम्मान तथा स्व. हरिकृष्ण त्रिपाठी कादम्बरी सम्मान(जबलपुर) है। प्रकाशन में आपके नाम-राष्ट्रभाषा संचेतना (निबंध संग्रह-२०१७),हिन्दी:जन भाषा से विश्व भाषा की राह पर(२०१७) प्रमुख है। कई अन्तरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों मेंआपकी समन्वयक के रूप में सहभागिता रही है। आपकी लेखन विधा मूलतः आलेख हैl राजभाषा,राष्ट्रभाषा,देवनागरी लिपि तथा सम-सामयिक विषयों एवं महापुरूषों के बारे में लगभग ३००० लेख प्रकाशित हुए हैंl डॉ.चौधरी की लेखनी का उद्देश्य हिंदी भाषा की बढ़ोतरी करना हैl

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