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यादें तुम्हारी रुलाती है…

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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मेरे गेहे की अटूट थी तुम लड़ियाँ,
फिर भी न जाने क्यों तुम टूट गई ?
बाबा, भैया, ओ मेरी प्यारी बहना!
मेरे भाग्य की शायद ये चूक रही।

तुम थे जब तक निश्चिंत रहा मैं,
अपनों का सिर पर हाथ जो था
आंधी-तूफ़ान से भिड़ लेता तब,
संग स्नेहिल तुम्हारा साथ जो था।

आज दायित्व के बोझ तले,
जिंदगी नाकों चने चबाती है
जब थे तुम तब कदर न जानी,
बस, अब यादें तुम्हारी रुलाती है।

आज न तुम हो साथ निभाने को,
न खुद में अब वह हिम्मत रही
आज बिखरते हर रिश्ते-नाते,
रिश्तों की कहां अब कीमत रही ?

जब होता हूँ अकेला जन भीड़ में,
मन होता विकल तब जज्बाती है
जूझ-जूझ पड़ जाता हूँ अकेला,
बस, तब यादें तुम्हारी रुलाती है।

मेरे सुख-दु:ख को बांटने वाला,
आज अपना कोई संगी न साथी है
जब आती है सुख-दु:ख की घड़ियाँ,
तब यादें, तुम्हारी बहुत-सी आती है।

क्यों होती न मयस्सर दवा यहाँ ?
लाईलाज से इन कुछ रोगों की,
खुदा न जाने क्यों नहीं सुनता है ?
आवाज, धरती के आर्त लोगों की।

साठ के बाबा, छत्तीस के भैया,
बयालीस की बहना जा बसी
भैया-बहना कैंसर से गुजरे,
बाबा को ले डूबी दमकसी।

न जाने क्यों जाने के बाद ?
सब रिश्ते समझ में आते हैं।
अपने हो जैसे भी हैं अपने,
लोग करते महज बस बातें हैं।

जन्म-मरण की जंजीरों से जकड़े,
जीवन को जज्बात जब रुलाते हैं।
चौतरफा मार जब मुकद्दर दे दे,
रिश्ते-नाते तब समझ आते हैं॥