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राजनीति महज ‘भविष्य’ या वैचारिक संघर्ष का मंच ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेस नेता और दल में ब्राह्मण चेहरा रहे जितिन प्रसाद के भाजपा में शामिल होने पर कांगेस नेता शशि थरूर ने एक सवाल उठाया था कि क्या राजनीति विचारविहीन भविष्य (कॅरियर) हो सकती है ? क्या सियासी दल बदलने से व्यक्ति की वैचारिक प्रतिबद्धता भी आईपीएल में दल बदलने वाले क्रिकेटर की तरह हो सकती है? ये सवाल केवल ‍जितिन प्रसाद के कल तक धर्मनिरपेक्षता का गुणगान करते-करते अचानक भगवा खेमे में आकर राष्ट्रवादी हो जाने तक सीमित नहीं है,बल्कि बंगाल में उन टीएमसी नेताओं-कार्यकर्ताओं पर भी लागू होते हैं,जो चुनाव के पहले अपनी मूल पार्टी तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा की पुंगी बजाने लगे और सत्ता न मिली तो वापस दीदी की पालकी उठाने लौटने लगे हैं। यह सवाल उन नवजोत सिद्धुओं,नाना पटोलेओं और उन तमाम दलबदलुओं पर भी लागू होते हैं,जिनके लिए राजनीति केवल सत्ता दोहन का जरिया है। ऐसे लोग सियासी खानाबदोश की तरह कभी भी किसी भी दल में किसी भी विचारधारा के साथ धोखा कर सकते हैं और उसे स्वीकार या खारिज कर सकते हैं। यह कहकर कि पुरानी पार्टी में उनका ‘दम घुट’ रहा था,इसलिए नई में आए। और अब नई पार्टी की हवा में भी उनका ‘दम घुट’ रहा है, इसलिए पुरानी में दम मारने वापस जा रहे हैं। इस दृष्टि से किसी दल में किसी नेता या कार्यकर्ता का ‘दम घुटना’ और दूसरी किसी पार्टी में थोड़े समय के लिए ही सही ताजी हवा खाने को हमें चिकित्सा के बजाए ‘राजनीतिक‍ चिकित्साशास्त्र’ की शब्दावली में समझना होगा। थरूर ने जो सवाल उठाए, उसे और आगे इस बात से बढ़ाया जा सकता है कि अगर राजनीति वैचारिक लड़ाई है तो क्या यह लड़ाई परिवारवाद या वंशवादी तरीके से ज्यादा बेहतर लड़ी जा सकती है या फिर संघर्ष से उभरे एकल चेहरों के मार्फत ज्यादा विश्वसनीय तरीके से लड़ी जा सकती है ? भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में आज हम राजनीतिक संघर्ष की इन दो शैलियों में भी अंदरूनी टकराव देख रहे हैं।
पहले राजनीति को भविष्य मानने की बात-इस संदर्भ में पहला सवाल तो यह कि कोई व्यक्ति राजनीति में क्यों आता है? कौन-सा दबाव या अंत:प्रेरणा उसे ऐसा करने पर विवश करती है ?,क्योंकि राजनीति में प्रवेश या राजनीति करना आजीविका के लिए किए जाने वाले किसी भी उपक्रम से अलग और स्वैच्छिक है। इसका पहला उत्तर तो सत्ता और सामाजिक प्रतिष्ठा की चाह है। दूसरा कुछ अंश समाजसेवा का भी हो सकता है’ लेकिन तीसरा और सबसे अहम मुद्दा किसी राजनीतिक दल की विचारधारा से उसका किसी न किसी रूप में सहमत होना या उसकी तरफ स्वाभाविक झुकाव होता है। वरना वो राजनीतिक दल से सम्बद्ध होने के बजाए अ-राजनीतिक या आध्यात्मिक रहकर भी समाजसेवा कर सकता है। किसी विशिष्ट राजनीतिक‍ विचार के प्रति यह झुकाव या उसे आत्मसात करने के पीछे सम-सामयिक राजनीतिक-सामाजिक परिस्थिति, अंतर्द्वंद्व,पारिवारिक संस्कार या फिर वर्तमान के प्रति आक्रोश के कारण भी हो सकता है।
बहुत से लोग समाज में नेताओं के सामाजिक दबदबे और उनके हमेशा चंपुओं से घिरे रहने को ही असली जलवा मानकर स्वयं भी उसी स्थिति को प्राप्त करने की आकांक्षा से राजनीति में आते हैं, लेकिन किसी विचार को जीवित रखने,उसे आगे बढ़ाने,उसकी रक्षा के लिए जी-जान लगाने,सब कुछ लुटाने का भाव रखने वाले उंगली पर गिनने लायक ही होते हैं,और मलाई खाने के वक्त ऐसे चेहरों को अक्सर पीछे धकेल दिया जाता है,बल्कि आजकल तो इसे राजनीतिक पिछड़ापन ही माना जाता है। लुब्बोलुआब यह कि राजनीति में जाना भी मूलत: वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण ही होता है,न कि केवल किसी तरह सत्ता हासिल करने के मकसद से। स्वतंत्रता आंदोलन भी इसी भाव से प्रेरित हस्तियों ने खड़ा किया,चलाया और अंतत: सफलता प्राप्त की। वैचारिक मतभेद तब भी होते थे,लेकिन अंतरात्मा की सरेआम नीलामी नहीं होती थी,जैसे आज होती है।
आजकल एक तर्क बहुत दिया जाता है कि राजनीति भी अंतत: एक व्यवसाय है। इसकी अपनी नैतिकता और मूल्य हैं,जो ‘व्यवसायिक प्रगति’ की आकांक्षा से जन्मते हैं। इसमें वैचारिक निष्ठा का क्रम बहुत नीचे होता है,जैसे बायोडाटा में यह बहुत संक्षेप में दिया जाता है कि आपने कहां-कहां नौकरी की। महत्वपूर्ण होता है कि आप का अगला ‘उछाल’ कितना और कैसा है ? इसी कड़ी में राजनीति को खानदानी पेशा बताने की वकालत यह कहकर की जाती है कि जब इंजीनियर का बेटा इंजीनियर,वकील का बेटा वकील और कलाकार का बेटा कलाकार हो सकता है तो राजनेता का बेटा राजनेता बने तो गलत क्या है ? यह अर्द्धसत्य है,इसलिए क्योंकि बहुत कम लोग हैं जो पारंपरिक पेशे को ही आगे बढ़ाना चाहते हैं। इसमें स‍माज या व्यवस्‍था परिवर्तन का कोई आग्रह नहीं होता। वह शुद्ध रूप से कारोबार होता है। आर्थिक नफा- नुकसान और गादी चलाते रहना ही उसका पैमाना होता है,लेकिन राजनीतिक विचारधाराएं किसी कारोबार को चलाने या बढ़ाने के लिए नहीं जन्मतीं। वह समूची व्यवस्था और समाज को बदलने का वैचारिक विकल्प प्रस्तुत करती हैं। देश उससे कितना सहमत होता है,यह अलग बात है। अगर होता है तो वह उसी विचार को राजनीतिक दल के रूप में पदोन्नत करता है। सत्ता सौंपता है। मानकर कि दल या दल के नेता सत्ता को बपौती नहीं समझेंगे,बल्कि व्यवस्था संचालन या बदलाव के लिए मिला संवैधानिक दायित्व समझेंगे। अर्थात ‍किसी भी नेता को अपनी वैचारिक निष्ठा को केवल ‘लिव इन रिलेशनशिप’ नहीं मानना चाहिए,पर
आज जो हो रहा है वह वैचारिक निष्ठा की निर्लज्ज नीलामी जैसा है। नेता रहता एक दल में है और मनमाफिक महत्व न मिलने पर दूसरे में जाने के लिए भीतर से तार जोड़े रखता है। जिस दल में रहते हुए वह ‘दिन को दिन’ कहता था, दूसरे दल में जाते ही वह उसी दिन को ‘रात’ कहने में नहीं हिचकता,क्योंकि नेता को चाह भौतिक सुख-साधनों और सत्ता की है। उसके लिए यही राजनीति है और किसी प्रकार से सत्ता के काफिले में शामिल हो जाना ही ‘राजनीतिक मोक्ष’ है। जाहिर है कि यह शुद्ध राजनीतिक भविष्य वाद है,जिसका लक्ष्य केवल आत्म या अपनों का कल्याण है, जबकि ‍वैचारिक लड़ाई में विचार की विजय और उसकी सामाजिक-राजनीतिक प्रतिष्ठापना राजनेता का अंतिम लक्ष्य होती हैं। क्रांतियां इसी अडिग प्रतिबद्धता से जन्म लेती हैं,लेकिन भविष्यवादी राजनेता कोई क्रांति नहीं करते-न कर सकते हैं,सिवाय अपने ही उसूलों की भ्रूण हत्या के। चलती गाड़ी में सवारी की यह मानसिकता किसी भी देश के नैतिक,सामाजिक और राजनीतिक पतन का स्पष्ट संकेत है।
वंशवाद इस पतन की गति और तेज करता है बजाए उसे थामने के। या फिर वह यथास्थिति को बनाए रखने के लिए पूरी ताकत लगा देता है। किसी राजनेता की वैचारिकता के बिकने का सीधा अर्थ उसकी आत्मा के बिकने जैसा है। और आत्माविहीन कोई भविष्य भी वैध कैसे हो सकता है ? जरा सोचें !

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