दिल्ली
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नागरिकता संशोधन अधिनियम…
संसद में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम अर्थात सीएए (२०१९) पारित होने के लगभग ४ वर्ष के इंतजार के बाद केंद्र सरकार ने इसे लोकसभा चुनाव से पूर्व देश भर में लागू करके न केवल अपने राजनीतिक आलोचकों को अचंभित किया है, बल्कि देश अपने लोगों की न्यायपूर्ण नागरिकता सुनिश्चित करने की जरूरी दिशा में बढ़ चला है। यह कानून भारत की नागरिकता को संतुलित, औचित्यपूर्ण एवं समतामूलक बनाने की दिशा में साहसिक कदम है। इस नए कानून का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान जैसे देशों से आने वाले मुस्लिमों को अब भारत में सहजता से नागरिकता नहीं मिलेगी, जबकि इन देशों से आने वाले हिंदू, सिख, ईसाई व अन्य धर्म के लोगों को सहजता से नागरिकता हासिल हो जाएगी। कानून के तहत पात्र लोग नागरिकता के लिए ऑनलाइन आवेदन कर सकेंगे। गौर करने की बात है कि, पिछले दिनों से विपक्षी दलों के अनेक नेता सीएए को लागू करने का विरोध करते हुए एक वर्ग-विशेष के लोगों को अपने पक्ष में करने की कुचेष्टा कर रहे हैं, जबकि भाजपा सरकार एवं उससे जुड़ा शीर्ष नेतृत्व इसे लागू होने का संकेत दे रहे थे। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जो कहा, उसे कर दिखाया है। चुनाव की घोषणा के ठीक पहले सरकार ने अपना एक वादा पूरा कर दिया है। अब इसे लागू करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से एक सार्थक पहल का सूत्रपात किया है। केंद्र सरकार ने इस कार्य को अंजाम देकर एक तरह से अपना ही अधूरा काम पूरा किया है, एक समयोचित कदम उठाया है। यह पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं बंगलादेश से आए हिंदू, सिख, ईसाई व अन्य धर्म के लोगों के लिए एक नए सूरज का उदय है। आगामी चुनाव एक तरह से सीएए पर जनमत संग्रह जैसा होगा। यहां यह याद करने की बात है कि, सीएए लागू करने का वादा पिछले लोकसभा चुनाव और पश्चिम बंगाल में २०२१ के विधानसभा चुनाव में भाजपा की ओर से उठाया गया प्रमुख मुद्दा था और इससे भाजपा को चुनाव में बहुत फायदा भी हुआ था। सीएए के सन्दर्भ में राजनीति से अलग होकर सोचना ज्यादा जरूरी है। जो मजबूर लोग पाकिस्तान या बांग्लादेश से भारत में आए हुए हैं, उनकी समस्याओं का समाधान देश के लिए प्राथमिकता होनी ही चाहिए। भूलना नहीं चाहिए, नागरिकता का तार्किक व मानवीय दृष्टिकोण इस देश की ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की संस्कृति का अंग है।
सीएए के कारण भले ही तथाकथित अराष्ट्रवादी ताकतें एवं विपक्षी दल हिंसा एवं अराजकता का माहौल बना सकते हैं, लेकिन यह कानून एक आदर्श नागरिकता कानून है, लम्बे समय से इस कानून की जरूरत को महसूस करते हुए अनेक नागरिक घुटन एवं असंतुलित नागरिकता कानून के दंश को भोग रहे थे। व्यक्ति जिस समाज में जीता है, उसकी व्यवस्थाओं, नीतियों और परम्पराओं में जब घुटन का अनुभव करता है तो वह किसी नए मार्ग का अनुसरण करता है। आज आजादी के बाद की राजनीतिक विसंगतियों से पनपी ऐसी ही घुटन से नागरिकों को बाहर निकालने के प्रयत्न वर्तमान सरकार द्वारा हो रहे हैं।
सीएए को लेकर मुस्लिम समाज को भ्रमित करने की साजिश हुई है और चुनावी माहौल में यह और तीव्रता से होने की संभावना है। राजनीतिक लोग सीएए को मुस्लिम विरोधी बताने में लगे हुए हैं। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि जिस कानून का किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं, उसे लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में लोगों को सड़कों पर उतार दिया गया या फिर से उतारने के स्वर गूंजने लगे हैं। यह साजिश जिस किसी ने भी रची हो, लोगों और खासकर मुस्लिम समाज को भड़काने का काम अनेक विपक्षी दलों ने किया। इनमें कांग्रेस सरीखे वे दल भी थे, जो एक समय इस कानून में वैसे ही संशोधन करने की मांग कर रहे थे, जैसे किए गए। राजनीतिक दलों के साथ वामपंथी बुद्धिजीवियों ने भी यह भ्रम फैलाया कि, सीएए कुछ लोगों की नागरिकता छीनने का काम कर सकता है, जबकि यह नागरिकता देने के लिए है।
सीएए का विरोध करने वाले राजनेताओं एवं उनके उकसाए लोगों को देश से जैसे कोई मतलब नहीं, इन्हें सिर्फ अपना जनाधार चाहिए, मत चाहिए। इन कानूनों में किसी के अहित की बात नहीं है, बल्कि जिनका अहित हुआ है, उनका हित निहित है, फिर क्यों बवाल है ? पहले किसी भी गलत बात के लिए ”विदेशी हाथ“ का बहाना बना दिया जाता था। अब कौन-सा हाथ है ? आश्चर्य की बात यह कि, जब सीएए-एनआरसी को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ तो एक सुर में कहा गया कि, यह कांग्रेस ही है जो लोगों को भड़का रही है। यानी यह तो तय है कि, कांग्रेस की उपस्थिति देशभर में है और उसका असर जनता के एक बड़े तबके पर है। इस बात को स्वीकारते हुए कांग्रेस की ताकत को अनदेखा करना राजनीति अपरिपक्वता को ही दर्शाता है। कांग्रेस अपनी जमीन मजबूत कर रही है, धीरे-धीरे वह अपनी खोई प्रतिष्ठा एवं जनाधार को हासिल करने में लगी है। इन स्थितियों को पाने के लिए वह सभी हदें पार कर रही है। एक तर्क यह भी है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में नागरिकता का फैसला किसी की आस्था के आधार पर नहीं होना चाहिए। बहरहाल, अपने देश में धर्म की राजनीति नई नहीं है, इसके पक्ष और विपक्ष में लगभग हर दल राजनीतिक लाभ लेना चाहता है।
इतनी देरी से इस कानून को लागू करने का एक कारण उसका बड़े पैमाने पर विरोध किया जाना दिखता है, जबकि इस कानून का किसी भी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं। वास्तव में यह नागरिकता छीनने का नहीं, बल्कि देने का कानून है।