ललित गर्ग
दिल्ली
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५ राज्यों के विधानसभा एवं अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले अनेक प्रशासनिक अधिकारी राजनीति में आने के लिए अपने पदों से इस्तीफा दे रहे हैं। इन प्रशासनिक अधिकारियों को नौकरशाही की तुलना में राजनीति इतनी लुभावनी क्यों लग रही है, क्यों राजनीति के प्रति इनमें आकर्षण बढ़ रहा है ? इन्हीं प्रश्नों के बीच अहम प्रश्न है कि, आईएएस अधिकारी वी.के. पांडियन द्वारा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति एवं मध्यप्रदेश में डिप्टी कलेक्टर निशा बांगरे का इस्तीफा मंजूर होने एवं उनके राजनीतिक दलों से जुड़कर चुनाव लड़ना लोकतंत्र को किस मोड़ पर ले जाएंगे। इनके अतिरिक्त भी अनेक नौकरशाह राजनीति में अपना भविष्य आजमाने को तत्पर हैं। लोकशाही और नौकरशाही निश्चय ही लोकतंत्र के २ प्रमुख स्तम्भ हैं। दोनों के कंधों पर लोकतंत्र की सफलता एवं राष्ट्र- निर्माण की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। देशहित का जज्बा ही दिखाना है तो क्या नौकरशाही में यह संभव नहीं है ? ऐसा प्रतीत होता है कि, विधायिका व कार्यपालिका दोनों का जीवन अनेक विरोधाभासों एवं विसंगतियों से भरा रहता है। इन दोनों की सारी नीतियों, सारे निर्णयों, व्यवहारों और कथनों में गहरा विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित है। यही कारण है कि, सत्य एवं संभावनाएं खोजने से भी नहीं मिलती, इनका व्यवहार दोगला हो गया है। दोहरे मापदण्ड अपनाने से उनकी हर नीति, हर निर्णय समाधानों से ज्यादा समस्याएं पैदा कर रहे हैं। श्री पांडियन और निशा के इन फैसलों से कई सवाल खड़े हुए हैं, जिन पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।
नौकरशाहों की राजनीति की ओर बढ़ने की होड़-सेवा प्रेरित तो कतई नहीं है। यह अधिक से और अधिक पाने की भूख है, जो नौकरशाही की तरह राजनीति को भी अधिक भ्रष्ट ही करेगी। सर्वविदित है कि, देश की प्रशासनिक संस्थाएं किस कदर साख एवं समझ के संकट से जूझ रही हैं ? उन पर राजनीतिक आकाओं के इशारे पर काम करने का आरोप निराधार नहीं है। यह न तो देश के हित में है और न लोकतंत्र के। ऐसे में श्री पांडियन और निशा जैसे उदाहरणों से नौकरशाही की विश्वसनीयता को और खरोंचें आएंगी, राजनीति भी साफ-सुथरी रहने की संभावनाएं धूमिल होगी। इसलिए, देश को सचमुच प्रशासनिक सुधार के साथ उसे मजबूत करने के लिए प्रशासनिक अधिकारी अपने पदों पर रहते हुए देश-निर्माण की जिम्मेदारी निभाएं, यह ज्यादा जरूरी है। हमारा संविधान तय मानदंडों के तहत अपने हरेक नागरिक को अवसर की स्वतंत्रता देता है, और इस लिहाज से अफसरों के राजनीति में आने में कुछ गलत नहीं है, मगर इन दिनों जिस तरह नौकरशाहों में राजनेताओं के कृपापात्र बनने और पुरस्कृत होने की प्रवृत्ति गहराती जा रही है, उसमें तरक्की पसन्द, महत्वाकांक्षी एवं लालची अफसरों की राजनीति में घुसपैठ का मुद्दा अन्य को भी सत्ताधीशों से साठ-गाँठ के लिए प्रेरित करेगा। इससे प्रशासनिक क्षेत्र में अजीब ऊहापोह एवं अस्थिरता बनेगी। जरूरत इस बात की है कि, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका से संविधान ने जो उम्मीदें पाली हैं, उन पर वे खरी उतर सकें और हम आदर्श लोकतंत्र के रूप में दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकें।
मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां उग्रता पर है। इस बार वहां चुनावी घमासान में अपना भविष्य आजमाने वाले अफसरों की सूची पर नजर डालें तो अनेक अफसरों के नाम हैं, जिनके अब सक्रिय रूप से राजनीति में आने की संभावना है। अफसरों का राजनीति से बढ़ रहा मोह कोई नया नहीं है। राज्यों से लेकर केन्द्र की राजनीति में इन प्रशासनिक अधिकारियों का वर्चस्व रहा है और दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इन अधिकारियों के दोनों हाथों में रेवड़ियाँ हैं- पहले नौकरशाह और अब राजनेता के रूप में।
आजादी के अमृतकाल में पहुंचने तक विभिन्न राजनीतिक दलों में ऐसे नौकरशाह रहे हैं, जो उच्च सरकारी पदों को छोड़ उच्च राजनीतिक पदों पर रहे हैं। पूर्व सिविल सेवक भी अब प्रमुख भाजपा की संगठनात्मक भूमिकाओं में कदम रख रहे हैं, जो पहले संवर्ग के लिए आरक्षित थे।
वैसे, यह कोई पहली बार नहीं है कि, प्रशासनिक क्षेत्र के लोग सीधे राजनीति में कूद पड़े हैं। आजादी के वक्त से ही विभिन्न क्षेत्रों के लोग सरकार एवं राजनीति का हिस्सा बनते रहे हैं, और देश-समाज को इसका लाभ भी मिला है, मगर वे अपने क्षेत्र के माहिर लोग होते थे और उन्हें किसी बड़े राजनेता या राजनीतिक दल के करीबी होने मात्र का लाभ नहीं मिल जाता था। बल्कि, उनकी काबिलियत ने सरकारों को बाध्य किया कि वे सरकार में आएं और अपनी प्रतिभा-कौशल का लाभ देश को दें, लेकिन पिछले कुछ दशकों में सत्ताधीशों और नौकरशाहों के गठजोड़ ने न सिर्फ राजनीति को विद्रूप किया है, बल्कि शासन-प्रशासन में भ्रष्टाचार की जड़ें इसके कारण गहरी हुई हैं। ऐसे में नौकरशाह के राजनीति में सक्रिय होने से क्या वर्षों से जनसेवा में जुटे स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ अन्याय नहीं होगा ? क्या यह राजनीति में एक नए तरह के असंतोष एवं विद्रोह को नहीं पनपाएगी ? यदि उन्हें राजनीति में इतनी ही दिलचस्पी थी, तो प्रशासन में इतने वर्ष खर्च क्यों किए ? क्यों नहीं प्रशासन में रहते हुए देश के लिए कुछ अनूठा करके दिखाया। राजनेताओं से भी अधिक अपेक्षाएं नौकरशाहों से की जाती है, यदि वे चाहते तो जनापेक्षाओं पर खरे उतरते, लेकिन उनके द्वारा जनाकांक्षाओं को किनारे किया जाता रहा है और विस्मय है इस बात को लेकर कि, वे चिंतित या शर्मसार भी नजर नहीं आए। जो राजनीतिक शिखर पर हो रहा है, उसी खेल का विस्तार आज हमारे प्रशासन के आस-पास भी दिखाई देता है। उससे भी ज्यादा विस्मय यह है कि दूसरों पर सिद्धांतों से भटकने का आरोप लगा रहे हैं, उन्हीं को गलत बता रहे हैं और नौकरशाह खुद उन्हें जगाने का मुखौटा पहने हाथ जोड़कर सेवक बनने का अभिनय कर रहे हैं।