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विचार तो वेदवाणी

पंकज त्रिवेदी
सुरेन्द्रनगर(गुजरात)

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पहले प्रहार की कॉलबेल पुकारते मुर्गे की आवाज़ से इंसान जाग जाता है। क्या जागने की यह प्रक्रिया सही अर्थ में होती है ? ईश्वर ने दिन-रात क्यों बनाए हैं ? दिनभर दौड़-धूप करके,मज़दूरी-मेहनत करके परिवार को पालने-पोसने के लिए ही ? और रात थके हुए इंसान के शरीर को आराम देने के लिए ? ऊँघना और जागना यानी क्या ? दिनभर के कार्यों और सामाजिक ज़िम्मेदारियों को देर शाम आराम के पलों में जाँचने के बाद संतोष मिले,तो ही नींद आती है। जिस रात नींद न आए,तो उसके अगले दिन दुबारा सख़्त होकर अपने-आपको जाँचना चाहिए।

तड़के घर के काम में जुटी पत्नी,फूल जैसे हँसती बेटी या अपनी जनता को देखकर मन प्रसन्न हो,तो मानना चाहिए कि हम वाक़ई सुखी हैं। सुखी होने की यह यात्रा सुबह घर से शुरू होती है,और शाम को घर आते ही पूर्ण होती है। घर से निकलते ही किसी पसंदीदा व्यक्ति से मिलना हुआ,तो मन प्रफुल्लित हो जाता है,और अच्छे शगुन होने का आनंद मिलता है। फिर दिन के दौरान मन-हृदय से जो भी कार्य हों,उनमें सफलता,यश-कीर्ति और आत्मसंतोष मिलते हैं। यही ईश्वर का साक्षात्कार है। मानव का मन रहस्यमय है। कब कौन उसे भाए,या न भाए,यह उसके ही हाथ की बात होने के बावजूद हाथों में नहीं रहती। मन तो मछली की तरह चंचल है। किसी भी क्षण वह फिसल जाता है। मन की एकाग्रता और दृढ़ता के साथ किसी अन्य के अभिप्रायों को परखकर सत्य की खोज करने में सफलता प्राप्त करें तो शायद हम जीवन के मार्ग पर सही क़दम चल पाएँगे। कईं बार हमें दूसरों की बातें सुनाने में आनंद आता है। उनकी बातों में से सार-असार को मक्खन के पिंड की तरह निकालने की सजगता कितनी ? हमारा अंधविश्वास,नासमझी और अस्वस्थता मन के गढ़ में बड़ा छेद कर देती है। ऐसे समय में हम अपने ही अस्तित्व को मानो लुप्त होने का अनुभव करने लगते हैं न ? ऐसी स्थिति में आसपास के लोगों पर हमारे संस्कार और सत्य का प्रभाव घटने लगता है,और उसकी आभा में हम क़ैद हो जाते हैं। यह सामान्य लगने वाली घटना एक ही पल में दुर्घटना में तब्दील हो जाती है,जिसका कोई सरल इलाज़ नहीं होता।

दुनिया में ज़्यादा ही बोलने वाले और मौन रहनेवाले लोग चलते हैं। ज़्यादा बोलने वाले इंसान सामान्य रूप से निख़ालिस और भावनाशील होते हैं,वह तब तय होगा,जब उनका एक-एक वाक्य नाभि से निकलता हो। मौन रहकर ज़्यादा सोचने वाले लोगों का गणित सही होता है। वह लोग सिर्फ़ गिनती के लिए नहीं,जीवन जीने में भी गणित का राजनीति-कूटनीतियुक्त उपयोग भी कर लेते हैं। उनके लिए एक-एक शब्द की क़ीमत होती है। ऐसे इंसान सकारात्मक तरीक़े से व्यवहार करें,तो समाजोपयोगी बनते हैं और नकारात्मक बनें तब विनाश का पर्याय बनते हैं। कुछ लोग व्यवहारशील होते हैं,जो समय के अनुसार सावधानी की नीति को अख़्तियार करते हैं। कुछ भोले लोग अपनी मूर्खता को सिद्ध करते हैं। ऐसे इंसान समाज के लिए अल्प नुकसानकारी साबित होते हैं,मगर दूषित तो कतई नहीं। ऐसे इंसान भोलेपन में कोई अच्छा-बुरा काम कर भी दें तो सही हो जाता है। वह भविष्यवेत्ता नहीं होते मगर अपने दिल से पनपे हुए विचार को बिना सोचे प्रकट करने की उन्हें आदत होती है। परिणाम की गंभीरता उसमें नहीं होती है। कई बार किसी के लिए आशीर्वाद या श्राप स्वरूप हुए उच्चारण फ़ायदा या नुकसान करते हैं। फ़ायदा हो जाए तो कहते हैं कि-भगवान का आदमी है और नुकसान हो तो कहते हैं कि उसकी हाय लगी। ऐसी बातों में श्रद्धा और अंधश्रद्धा का टकराव होता है,सत्य-असत्य का और मान-अभिमान का भी टकराव होता है।

कुछ सामान्य-सी लगती बातों से खंडनात्मक या सर्जनात्मक परिणाम मिलते हैं। परिवर्तन अनिवार्य है। वह सहज और सर्व स्वीकृत हो,यह ज़रूरी है। सवाल इतना ही है कि उसमें हम कितने सहज हैं ? स्वीकृति में भी हमें अपनी समझ को जाँचना चाहिए,भेड़ों के प्रवाह की तरह जुड़कर मूर्खता साबित करना बुद्धिमानी नहीं है। संघर्ष किसको पसंद है ? सच मानो तो प्रत्येक इंसान को शांति से जीना है,परिवार-समाज को चाहकर जीना है। तो फिर चारों ओर संघर्ष क्यों हो रहा है ? जवाब ऐसा मिलता है कि मुट्ठीभर लोग धन और सत्ता की भूख और मान-सम्मान और वासना को पाने के लिए छोटे रास्ते से नज़दीकी और खुद को चाहनेवालों का ही पहले भोग लेते हैं। उनके हाथ,पाँव और कंधे का सहारा लेकर उनकी ही खोपड़ी पर बैठकर आधिपत्य के भाव से सभारता प्राप्त करके कहकहा लगाते-दिखते मिलते हैं।

हमारी चेतना और संवेदना दिन-ब-दिन नष्ट होती जाती है,और हमारी चमड़ी ही नहीं, मानसिकता भी खुरदरी हो रही है,जो आसपास के लोगों को खुरच देती है।किसी के दुःख से दु:खी होने की बात समाज के सामने बोलोगे,तो भी लोग तुम्हें पागल कहेंगे। समाज का ऐसा पागलपन स्वीकारने के बाद भी समाज के उत्कर्ष के लिए काम करने वाले बहादुर और सन्नारियाँ आज भी देखने को मिलते हैं,जो बिना स्वार्थ से समाज के लिए समर्पित हैं। इस मायाजाल के बीच निजत्व को ढूँढना पड़ता है। कुछ सेवा करने के लिए पूरा जीवन ख़र्च कर देते हैं,और फिर भी आत्मसंतोष मिला या नहीं,यह प्रश्न सिर्फ़ हमारा नहीं,उनका भी होता है,मगर इस बात को स्वीकार करने की हिम्मत ही कहाँ ?

मुझे एक प्रसंग याद आता है,-महिलाओं के उत्कर्ष के लिए कार्य करने वाली सेवा नामक संस्था को कौन नहीं जानता होगा भला ? इस संस्था में आरोग्य,बीमा,बाला केन्द्र,कागज़-कूड़ा इकठ्ठा करना आदि कई तरह के काम महिलाओं द्वारा किए जाते हैं। यह संस्था महिलाओं की मदद हेतु कई योजनाएँ भी चलाती है,जिसमें से एक बैंक सेवा है। श्रमिक महिलाओं के लिए इस बैंक का उदभव कैसे हुआ,वह रसप्रद बात बताता हूँ।

एक लाख करोड़ रुपये वाली सालों पुरानी बैंक की उगाही हमारे उद्योगपति चुकाते नहीं,फिर भी बैंक को चलाने वाले दिवालिये उद्योगपतियों के लिए धन की थैली खुली कर देते हैं,मगर कमरतोड़ मज़दूरी करनेवाले,पसीना बहाने वाले को कोई दो कौड़ी भी देने को तैयार नहीं होता, तब पुराने कपड़ों के बदले बर्तन बेचने वाली चन्दा बहन व्यथित हो जाती है। वह १९७४ की एक सभा में ज़्यादा ही व्यथित हुईं,वह ईला बहन को कहती है-“बहन,आप हमारी बैंक निकालो न!” तब ईला बहन ने प्रत्युत्तर में कहा था-“बैंक बनाना हमारी क्षमता के बाहर का कार्य है। हम तो ग़रीब हैं।” अब तक दिल की भड़ास निकालती चन्दा की सूझ-बूझ उसे अन्दर से बोलवाती है-“हाँ,ग़रीब तो हैं,मगर हैं कितने सारे!”

श्रमिकों के संगठनों का प्रतिघोष देने वाले ये शब्द सेवा की बैंक बनाने में प्रेरक साबित हुए। इस बैंक के बारे में लिखी गयी अँगरेज़ी पुस्तक ‘वी आर पुअर,बट सो मैनी’ चंदा बहन की देन है।

सामान्य लगती बर्तनवाली इस महिला का छोटा-सा लगता विचार एक क्रान्ति की ज्योत जलाता है और उसमें से महिला उत्कर्ष के लिए राजमार्ग बनाता है। हमने कभी सोचा है कि,हमारे एकमात्र छोटे से काम से,विचार से या व्यवहार से इस समाज का कितना भला और कितना बुरा हो सकता है ? विचार तो वेदवाणी और कु-विचार तो विकार साबित हो सकता है। जिस स्वरूप से वह बाहर आएगा,उसी स्वरूप में उसका परिणाम मिलेगा। सुबह अपने घर के अंदर बिछौने से जागा हुआ इंसान सचमुच नींद उड़ाकर जाग गया,तो समझो कि सिर्फ़ सुबह ही नहीं,उसका जीवन भी सुधर जाता है और ऐसा इन्सान प्रफुल्लित होकर जीता है,एवं समाज को भी प्रसन्नता अर्पित करता है।

 

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