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विश्वगुरु बनने का सुन्दर प्रयास !

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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वैसे हमारा देश लापरवाहियों के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ कोई भी काम नियमानुसार होना, करना कठिन और असंभव है। हमारे यहाँ भाषण में बहुत-कुछ नैतिकता की बातें बोली और बताई जाती हैं, पर वास्तविक धरातल में सच्चाई अलग होती है। अमृत काल के समय यानी ७५ वर्ष स्वतंत्र हुए देश में और नैतिक चरित्रवान वर्तमान सरकार हमेशा ‘गा’ या ‘था’ में जी रही है। पुरानी सरकारों ने ऐसा किया था और हमारी सरकार ऐसा करेगी, यानी कल्पना लोक में।
किसी देश की बुनियाद को कमजोर करना हो तो उसके शैक्षिणिक संस्थानों को इतना पंगु बना दो कि, वे अपने-आप चल न सकें। शिक्षा यानी चाहे बुनियादी हो या व्यवसायिक हो…और मजे की बात यह कि, जो संचालित हैं वे मान्यता विहीन हों तो उन संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों के भविष्य के साथ कितना क्रूर मजाक किया जा रहा है ? क्या उनका भविष्य शिक्षा ग्रहण करने के बाद भिक्षा पाने के योग्य नहीं होगा!
वर्तमान में हमारे देश में १११३ विश्वविद्यालय में से ६९५ और कुल ४३,७९६ महाविद्यालयों में से ३४,७३४ महा. को नेशनल अससेमेंट एन्ड एक्रीडिएशन कौंसिल (नैक) से मान्यता प्राप्त नहीं है। इसका मतलब ६२ फीसदी विवि और ७८ फीसदी महा. तय मानकों पर खरे नहीं हैं, क्योंकि विवि अनुदान आयोग ने उच्च शिक्षा में सुधार के लिए ‘नैक’ से मान्यता लेना अनिवार्य किया हुआ है। इसके तहत ७ मानकों (शिक्षण, अधोसंरचना, नवाचार आदि) का पालन करना अनिवार्य है। शिक्षा संस्थान इन पैमानों पर खरा नहीं उतरता है, तब तक मान्यता नहीं मिलेगी। अब सवाल यह है कि, हमारे देश में मान्यता विहीन शिक्षा संस्थानों से निकलने वाले छात्रों का भविष्य मान्यताविहीन होने से कैसे मान्य-योग्यता धारी कहलाएंगे।
इन छात्रों को जिस अध्ययन के लिए प्रवेश दिया और शुल्क लिया गया, पर उसके बाद उनकी योग्यता ऐसे संदिग्ध होगी, ये कोई सामान्य लापरवाही नहीं है। पहली बात कि शुरूआती दौर में संस्थानों को खोलने की अनुमति किसने दी, और वर्षों तक उनका निरीक्षण और परीक्षण क्यों नहीं किया गया कि वे मान्यता के बिना चल रही हैं। उनके द्वारा करोड़ों छात्रों के साथ खिलवाड़ किया गया और उनके द्वारा दी गई फीस से संस्थानों का स्व-विकास किया गया। बात स्वाभाविक है कि, सर्वोच्च संस्थाओं द्वारा उनका निश्चित सुविधा शुल्क न दिए जाने के कारण मान्यता नहीं मिली। कारण भ्रष्टाचार, जो इन संस्थानों के निरीक्षणों में करोड़ों की राशि का होता ही है।

यह मामला सामान्य न होकर गंभीर है और इस आधार पर हमारे छात्र देश-विदेश में अध्ययन और सेवाओं की पात्रता न होने से अवसाद के साथ आत्महत्या की देहरी पर रहेंगे इन संस्थाओं की मान्यता न होने से हम कैसे विश्व गुरु बन सकेंगे ? हमारे अधिकांश नेता अपढ़, अशिक्षित अयोग्य होते हुए मंत्री बने हैं और वे इन विषयों की गंभीरता से शून्य हैं। नेता हृदयहीन होते हैं और स्वकेन्द्रित के साथ स्वलाभ की ओर अधिक ध्यान देते एवं रखते हैं। इस मामले में सरकार के साथ उच्च संस्थान भी पूर्ण जिम्मेदार हैं। इस प्रकार की लापरवाही कदापि मान्य नहीं है। दोषियों को नियमनुसार दण्डित किया जाना होगा, और भविष्य में इस प्रकार की पुनरावृत्ति न हो, इसके प्रति सचेत होना चाहिए। ऐसे ही सम्बंधित छात्रों को जागरूक होकर डट कर मुकाबला करना चाहिए।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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