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हिन्दी की अस्मिता पर प्रहार करने वाले हिन्दी के अपने

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
दिल्ली

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यह बहुत बड़ी विडंबना है कि हिन्दी को तोड़ने वालों में हिन्दी के अपने ही लोग हैं।भोजपुरी के कुछ समर्थकों का यह विचार है कि हिन्दी भाषा से अलग होने पर ही भोजपुरी भाषा और संस्कृति का विकास हो पाएगा। वास्तव में यह उनका भ्रम है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं है और यह भी सही है कि बोली की अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता होती है,किंतु वह भाषा की अपेक्षा सीमित हो सकती है। भोजपुरी का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है और इसका अपना क्षेत्र भी रहा है,लेकिन समाज के ऐतिहासिक विकास के साथ-साथ कोई भी बोली भाषा का दर्जा प्राप्त कर सकती है और कोई भी भाषा बोली का। १४वीं शताब्दी से १८वीं तक भाषा के रूप में ब्रज भाषा का विस्तार लगभग पूरे देश में था और इसका साहित्य काफी समृद्ध है। यही बात अवधी,मैथिली,मेवाड़ी(राजस्थानी) आदि भाषाओं पर भी लागू होती है। समय के अंतराल में ये भाषाएँ बोली के रूप में प्रयुक्त होने लगीं।
भाषा कभी-कभी अपनी अस्मिता किसी अन्य भाषा के साथ जोड़ देती है और वह उसकी बोली बन जाती है। मध्यकाल में ब्रज भाषा साहित्यिक संदर्भ में भाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी,किंतु आज खड़ी बोली हिन्दी की आधार भूमि है और ब्रज भाषा हिन्दी की बोली के स्तर पर आ गई है। यही स्थिति राजस्थानी,अवधी,मैथिली और खड़ीबोली पर भी लागू हो सकती है। वस्तुत: जब कोई बोली जातिय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण, राजनीतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण अन्य बोलियों की तुलना में अधिक महत्व प्राप्त कर लेती है तो वह भाषा का रूप ले लेती है। यह बोली अपने व्यवहार-क्षेत्र को पार कर क्षेत्र-निरपेक्ष और सार्वदेशिक हो जाती है। इसका प्रयोग-क्षेत्र बढ़ जाता है और मानकीकरण की प्रक्रिया में उसमें आंतरिक संसक्ति(कोहिज़न) आने लगती है,लेकिन आज के संदर्भ में हिन्दी और उसकी बोलियाँ एक-दूसरे को परिपुष्ट और समृद्ध कर रही हैं। बोलियाँ हिन्दी की समृद्धि में सहयोग दे रही हैं। हिन्दी के विकास में खड़ीबोली के साथ-साथ भोजपुरी,अवधि,मैथिली,राजस्थानी आदि बोलियों का विशेष योगदान है। बोलियों के आधुनिकीकरण और विकास में हिन्दी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। भाषा और बोली का सहसंबंध होता है और इसी कारण भोजपुरी की अस्मिता पर चिंता करना बेमानी है,वरन बहुभाषी देश में इस सहसंबंध से इसका महत्व विशेष रूप से बढ़ जाता है।
यहाँ यह स्पष्ट करना असमीचीन न होगा कि भाषा में ऐतिहासिक परम्परा,जीवंतता, स्वायत्तता और मानकता ये चार लक्षण पाए जाते हैं। बोली में पहले तीन लक्षण तो होते ही हैं,किंतु मानकता लक्षण प्राय: नहीं होता। भाषा अपेक्षाकृत अधिक मानक और आधुनिक होती है जबकि बोली में सापेक्षतया अधिक विकल्प मिलते हैं। इसीलिए,भाषा विभिन्न बोलियों में संपर्क भाषा का काम करती है। इसमें शब्दावली और वाक्य-संरचना में प्राय: एकरूपता मिलती है,जबकि बोलियों में मानकता न होने के कारण प्राय: अनेकरूपता के दर्शन होते है। इसलिए,यह प्रश्न उठ सकता है कि भोजपुरी में दक्षिणी, उत्तरी,पश्चिमी और नागपुरिया भोजपुरी क्षेत्रों में खरवार,शाहबादी,छपरिया,गोरखपुरी, सरवरिया,पूरबी,बनारसी,सदानी आदि विभिन्न रूपों के कारण किसे मानक माना जाए। यह भी उल्लेखनीय है कि आज के भूमंडलीकरण के युग में अंग्रेज़ी और वह भी अमेरिकन अंग्रेज़ी के बाद अन्य भाषाओं की तुलना में हिन्दी आगे है,क्योंकि इसका क्षेत्र विस्तृत है और वह है इसकी मानकता के कारण।
इसमें संदेह नहीं कि भोजपुरी के जनपद में मातृबोली के रूप में भोजपुरी बोलने वालों की संख्या बहुत अधिक है,लेकिन ये लोग हिन्दी का प्रयोग स्वाभाविक रूप से मातृभाषा के रूप में करते हैं। वस्तुत: बहुभाषी भारत में मातृभाषा की संकल्पना एकभाषी स्थिति की संकल्पना से काफी जटिल है। मातृभाषा पालने की भाषा होती है और व्यक्ति का संज्ञानात्मक बोध सबसे पहले इसी भाषा से होता है। दूसरा,उस व्यक्ति की जातिय अस्मिता संस्थागत रूप से जुड़ जाती है जिससे भाषायी चेतना के सहारे वह हम-वे के बोध से बंध जाता है। मातृभाषा की यह संकल्पना एकभाषी स्थिति पर तो लागू होती है,किंतु भारत के बहुभाषी देश होने के कारण यह संकल्पना अलग हो जाती है और वह उस पर पूरी तरह लागू नहीं होती। बहुभाषी भारत में हिन्दी एक ऐसा महा- जनपद है जिसमें व्यक्ति की पालने की भाषा तो भोजपुरी जैसी मातृबोली है किंतु जातिय अस्मिता के लिए वह महाजनपद की भाषा अर्थात हिन्दी से जुड़ जाता है। इसी कारण भारतेन्दु हरिश्चंद्र,देवकीनंदन खत्री,श्यामसुंदर दास,प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद,रामचंद्र शुक्ल, राहुल सांकृत्यायन,पांडेय बेचैन शर्मा उग्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि कई साहित्यकारों की प्रथम भाषा अर्थात मातृबोली भोजपुरी रही,लेकिन उनकी जातिय अस्मिता की भाषा सदैव हिन्दी रही है। इन साहित्यकारों के नाम हिन्दी के महिमा मंडल में ही दिखाई देते हैं।
इसलिए,भारत की एकता एवं अखंडता के तथा भाषायी सौहार्द्र और हिन्दी के विकास पर विचार करते हुए अन्य भाषाओं को संविधान की अनुसूची में रखना भारत राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगा। भारत के सभी साहित्यकारों,भाषाविदों,राष्ट्र-प्रेमियों,हिन्दी प्रेमियों,प्रबुद्ध नागरिकों और भोजपुरी प्रेमियों से निवेदन है कि वे हमारे प्रधानमंत्री,गृह मंत्री,अन्य मंत्रियों,सभी दलों के सांसदों से अपील करें कि वे इस बारे में पुनर्विचार करें, ताकि भारत को इस भाषायी वैमनस्य और कटुता से बचाया जा सके।

परिचय-प्रो.(डॉ.)कृष्ण कुमार गोस्वामी का स्थायी निवास दिल्ली स्थित डॉ. मुखर्जी नगर (किंग्ज़वे कैंप) हैl आपकी शैक्षिक अर्हता-एम.ए.,एम.लिट्.(भाषा विज्ञान),पी-एच.डी. हैl हिन्दी,अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी,संस्कृत और फ्रांसीसी भाषा का ज्ञान रखने वाले डॉ.गोस्वामी की विशेषज्ञता और रुचि के विषय में भाषा विज्ञान,अनुवाद,सिद्धांत और व्यवहार,शैली विज्ञान, कोष विज्ञान और निर्माण,भाषा प्रौद्योगिकी आदि है। आप मानद शैक्षिक कार्य में महासचिव एवं निदेशक सहित अन्य पदों पर अनेक संस्थानों से जुडकर सक्रियता से कार्यरत हैंl कई संस्थाओं में केन्द्र प्रभारी (क्षेत्रीय निदेशक) के रूप में रहने से आपको प्रशासनिक,शैक्षिक प्रशासनऔर वित्तीय मामलों का गहरा अनुभव है। साथ ही हिन्दी के अध्यापन का करीब ३५ साल का अनुभव हैl आपके अधीन शोध निर्देशन में डी. लिट् और १ डी.लिट् शोधार्थी उपाधि प्राप्त,पी-एच.डी. शोध निर्देशन में 5 शोधार्थी उपाधि प्राप्त और एम.फिल. शोध निर्देशन में 7 शोधार्थी उपाधि प्राप्त हैंl २ विश्वविद्यालय में आप बाह्य सह शोध निदेशक हैंl विदेश यात्रा के अंतर्गत नेपाल,अमेरिका, यू.ए.ई.,स्वीडन,डेनमार्क,दक्षिण अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया आदि जा चुके हैंl इन्होंने विदेश में शैक्षिक गतिविधियों के अंतर्गत काठमांडू और भारतीय दूतावास के संयुक्त तत्वावधान में संगोष्ठी में अध्यक्षता (२००३) और आलेख,न्यूयार्क (२००७)में भाग और आलेख प्रस्तुति के साथ ही आस्टिन में भी विशेष व्याख्यान (२००७)दिया। मॉरिशस प्रसारण निगम के प्रसारण स्टेशन पर २ बार इनका साक्षात्कार आ चुका है। हिन्दी शिक्षण के मुद्दों पर चर्चा सहित कई विषयों पर शोध-पत्र वाचन कर चुके डॉ.गोस्वामी की १२ पुस्तकें-समीक्षाएं प्रकाशित हैंl इसमें प्रमुख-शैक्षिक व्याकरण और व्यावहारिक हिन्दी (१९८१), काव्यशास्त्र (१९७१),प्रयोजनकमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी (१९९२)एवं हिन्दी का भाषिक और सामाजिक परिदृश्य (२००९)है,जबकि निर्माणाधीन पुस्तक-`हिन्दी स्वयं शिक्षक` हैl आपने करीब १० पुस्तकें संपादित(जयशंकर प्रसाद मूल्यांकन और मूल्यांकन,साहित्य शिक्षण,भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी आदि) की है तो ६ पुस्तकें सह-संपादित(अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान,अनुवादःसिद्धांत और समस्याएँ,कार्यालयी अनुवाद आदि)करना भी आपके नाम हैl कोष प्रकाशित में-अंग्रेजी-पंजाबी और पंजाबी-अंग्रेजी कोष एवं आलेख अंग्रेजी-हिन्दी शब्दकोष(२०१४)आदि सहित श्रृंखला संपादन-प्रधान संपादक(भाषा और प्रयोजनमूलक हिन्दी पुष्पमाला-५ पुस्तकें प्रकाशित),शोध-पत्र(लगभग २००)प्रकाशित हुए हैंl आप भोपाल,शिमला,लखनऊ से लेकर वर्धा तक विभिन्न विश्वविद्यालयों की कार्य-परिषद में और अध्ययन मंडल के सदस्य भी रहे हैंl ऐसे ही भारत सरकार की सलाहकार समितियों-सदस्य:केन्द्रीय हिन्दी समिति,भारत सरकार (२०१७-२०२०,प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सर्वोच्च समिति),हिन्दी सलाहकार समिति दूरसंचार विभाग,भारत सरकार तथा सदस्य-हिन्दी सलाहकार समिति,सूचना प्रौद्योगिकी विभाग,भारत सरकार से भी जुड़े रहे हैंl आपने कई विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में स्नातक स्तरीय प्रयोजनमूलक हिन्दी से संबंधित पाठ्यक्रम निर्माण का संयोजन भी किया तो व्याकरण निर्माण में विशेषज्ञ भी रहे हैं। निर्माण प्रक्रिया पर आपके कई आलेख प्रकाशित हो चुके हैंl

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