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४ दिन स्वर्ग की सैर

डॉ. प्रताप मोहन ‘भारतीय’
सोलन(हिमाचल प्रदेश)
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आपको आश्चर्य होगा कि, क्या कोई जिंदा व्यक्ति भी
स्वर्ग की सैर कर सकता है ?वैसे तो, कहा जाता है कि स्वर्ग पाने की पहली शर्त है मरना। अर्थात इस लोक से परलोक प्रस्थान करना। जहां मरने की बात आती है, वहाँ आदमी स्वर्ग से मुख मोड़ लेता है, और उसे वर्तमान
जीवन (यानी नरक) अच्छा लगने लगता है।
खैर, अभी मैंने १० से १४
अप्रैल तक ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ के आधुनिक पाठ्यक्रम और ध्यान शिविर
में भाग लिया। यह रोपड़ (पंजाब) जिले के बरदार ग्राम स्थित श्रीधाम इको फार्म में हुआ। यह फार्म हाउस २०० एकड़ में फैला हुआ है, चारों तरफ शिवालिक पहाड़ और हरियाली है। यह जगह
बहुत ही सुन्दर और सभी सुविधाओं से सुसज्जित है। चारों तरफ पेड़-पौधे, हरियाली और मदमस्त हवा हमारा मन मोह लेती है।
सुबह उठते ही चारों तरफ से पक्षियों की आवाजें (मोर, कबूतर, तोता, चिड़िया) आते ही स्वयं ही नींद खुल जाती है। चारों तरफ का वातावरण देखकर ऐसा लगता है,
जैसे हम प्रकृति की गोद में आ गए हों।
प्रतिदिन सुबह साढ़े ५ बजे उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर ७ बजे योग की कक्षा चालू हो जाती थी। इसमें योग, प्राणायाम के
साथ हमसे सुदर्शन क्रिया कराई जाती थी।
इसके पश्चात ९ से साढ़े ९ तक सुबह का नाश्ता करने का समय था। नाश्ते में फल, हल्का खाना और चाय की जगह मधु करी पिलाई जाती थी।
सुबह साढ़े ९ से साढ़े १० तक सेवा का समय था। शिविर में ११-११ व्यक्तियों के ५ समूह बना दिए गए थे। सेवा में सत्संग हाल की सफाई,
बाहर की सफाई, बगीचे
की सफाई एवं शौचालयों और स्नान घरों की सफाई शामिल रही। प्रत्येक समूह को उपरोक्त में से १ सेवा रोज मिलती थी और सभी उसे शिद्दत से करते थे।
साढ़े १० बजे फिर कक्षा चालू हो जाती। इसमें विभिन्न प्रकार की क्रियाएं और ध्यान कराए जाते। इसके अतिरिक्त हमारे जो भी प्रश्न होते, गुरु जी उनका उत्तर देते थे।
दोपहर डेढ़ से ढाई बजे तक भोजन का समय था। भोजन पूर्णतः सात्विक, परन्तु पौष्टिक होता था। भरी गर्मी में लस्सी पीकर मन तृप्त
हो जाता था। २:४५ से फिर कक्षा चालू होती, जो शाम को साढ़े ५ तक चलती थी। इसमें भी ध्यान के बारे में जानकारी दी जाती।
हाँ, दोपहर के भोजन के बाद योग निद्रा का अभ्यास कराया जाता था। जब योग निद्रा से उठते तो मन हल्का और प्रसन्नचित्त हो जाता था।
शाम को साढ़े ५ बजे बिस्कुट और नींबू पानी पीकर भ्रमण के लिए निकल जाते थे। चारों तरफ का जो माहौल था, उसको देखकर मन आनंदित हो जाता था।
विभिन प्रकार के पक्षियों की ध्वनि और कल-कल करती ठंडी हवा को महसूस कर मन खुश हो जाता था।
शाम ७ से साढ़े ७ तक रात्रि भोज होता था। सभी लोग साथ में बैठकर भोजन करते थे। शिविर में २० से ७५ साल तक की उम्र के लोग थे, कोई किसी को नहीं जानता था। सभी अलग-अलग जगह से आए थे, मगर एक परिवार की तरह व्यवहार करते थे।
रात्रि साढ़े ७ से साढ़े ९ तक सत्संग, शब्द और भजन का कार्यक्रम होता था। इसके अलावा गुरु जी हमारे मन की शंकाओं का निवारण करते
थे। यह कार्यक्रम समाप्त होने के बाद हम ऐसा थक जाते थे कि, सोते ही पता नहीं चलता था कि, कब हम नींद की गोद में चले गए।
शिविर की सबसे अहम बात यह थी कि, सभी प्रतिभागियों को सारा समय मौन रहना था। बिलकुल बात नहीं करनी थी। जरूरत पड़ने पर इशारा कर सकते हैं। किसी भी वस्तु से शोर नहीं करना है। दिनभर बोलने वाले व्यक्तियों के लिए मौन रहना एक साधना से कम नहीं था।
कई कार्य एसे होते हैं, जो मौन से ही हो जाते हैं, बोलना नहीं पड़ता। इन ४ दिनों में हमें मौन का महत्व समझ में आ गया। हमने समझ लिया कि, हर वक्त बोलना जरूरी नहीं है। दिनभर में हम जितना बोलते हैं, उसका अगर २० फीसदी ही बोलेंगे तो भी हमारे सारे कार्य आराम से हो सकते हैं।काश! मौन का महत्व हमें पहले पता चलता ?
खैर, अब पछताने से क्या फायदा! जब चिड़िया चुग गई खेत। जब जागो तभी सवेरा।अब हमने यह ठान लिया है कि, जहाँ मौन की जरूरत है, वहाँ मौन ही रहेंगे।
इस शिविर की दूसरी अहम बात थी कि, सभी के मोबाइल और संचार साधन जमा करा लिए गए थे।
मोबाईल होने से व्यक्ति का मन सारा दिन उसी में लगा रहता है, बार-बार घंटी बजती रहती है और व्यक्ति अपने
उद्देश्य से भटक जाता है।
आधुनिक युग में विवाद की
जड़ मोबाइल और बात करना ही है। यदि हम बात नहीं करते हैं तो शांति बनी रहती है। मैंने सारा दिन बिना मोबाइल के मौन व्रत रखकर अपनी जिंदगी को करीब से देखा। हम दुनियाभर की उलझनों और चिंताओं से दूर थे। हम क्या हैं ?, और हमारा इस दुनिया में आने का क्या उद्देश्य है ? हम व्हाट्सएप, फेसबुक और इंस्टाग्राम नामक सभी बीमारियों से दूर थे। केवल अच्छा खाना-पीना, कपड़े पहनना और आराम करना, यह जिंदगी का उद्देश्य नहीं है। आदमी इन्हीं के चक्कर में जिंदगी बिताकर
चला जाता है।
स्वर्ग के बारे में हमने सुना
है, परन्तु देखा नहीं है। यहाँ का वातावरण देखकर ऐसा लग रहा था कि, हम वास्तव में स्वर्ग में आ गए हैं।
‘न तीन में, न तेरह में’ यानी न किसी को पाने की खुशी और न किसी को खोने का गम।देश में चुनाव की गर्मी चल
रही थी, और हम यहाँ शिवालिक की पहाड़ियों में ठंडक महसूस कर रहे थे।
परिवार, समाज सबसे दूर रहकर हम बिल्कुल चिंता मुक्त थे। हमें विश्वास था कि, किसी का कोई अहित नहीं होगा।
यहाँ पर न अख़बार था, न टीवी और तो और मेरा प्रिय पेय चाय भी उपलब्ध नहीं था। ४ दिन कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला।
यहाँ सारा कार्य समयानुसार ही होता था। हमें हर जगह निर्धारित समय से ५ मिनट पहले पहुंचने का आदेश
था। हमने यहाँ समय की महत्ता को समझा और पूरे समय अनुशासन में रहे। चारों दिन हमें स्वयं को देखने और समझने के अलावा कोई कार्य नहीं था। मेरी उम्र ६१ वर्ष है, पर इतने सालों में जितना खुद को महसूस नहीं
कर पाया, वो मैंने ४ दिन में कर लिया।
अभी तक जिंदगी में हमने जो भी कमाया है, उसमें से कोई भी वस्तु हमारे साथ नहीं जाने वाली है। अब हमें ऐसी कमाई करनी है, जो परलोक
में भी हमारे साथ चले। अपना कार्य स्वयं करना, हर मनुष्य में भगवान है, क्षमा करना, अच्छे व्यक्ति की तारीफ करना (चापलूसी नहीं), काम, क्रोध, लोभ और माया भी जीवन के लिए जरूरी है। इसका सदुपयोग करना है।हम अक्सर इसका दुरुपयोग करते हैं। यदि लोभ हमें करना है, तो समाज-सेवा का लोभ रखें। क्रोध भी समय और परिस्थिति के अनुसार करना आवश्यक है। दुनिया को आगे बढ़ाने के लिए काम जरूरी है, और जीवन की
आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए माया भी जरूरी है। हमें प्रत्येक का उपयोग आवश्यकता अनुसार ही
करना है। उसका संचय नहीं करना है।
जिनको हम विकार समझते हैं, वे भी आवश्यक हैं हमारी जिंदगी के लिए। बस उनका समय और परिस्थिति देखकर उपयोग करना है।

इन ४ दिनों में मैंने जिंदा रहकर स्वर्ग की अनुभूति की।जब शिविर खत्म हुआ तो मन को मजा नहीं आ रहा था।कोई भी व्यक्ति स्वर्ग से वापस क्यों जाना चाहेगा ? ये ४ दिन मेरी ज़िंदगी की अमूल्य स्मृतियाँ हैं, जिनको हमेशा संजो कर रखना चाहूंगा।

परिचय-डॉ. प्रताप मोहन का लेखन जगत में ‘भारतीय’ नाम है। १५ जून १९६२ को कटनी (म.प्र.)में अवतरित हुए डॉ. मोहन का वर्तमान में जिला सोलन स्थित चक्का रोड, बद्दी(हि.प्र.)में बसेरा है। आपका स्थाई पता स्थाई पता हिमाचल प्रदेश ही है। सिंधी,हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाले डॉ. मोहन ने बीएससी सहित आर.एम.पी.,एन. डी.,बी.ई.एम.एस.,एम.ए.,एल.एल.बी.,सी. एच.आर.,सी.ए.एफ.ई. तथा एम.पी.ए. की शिक्षा भी प्राप्त की है। कार्य क्षेत्र में दवा व्यवसायी ‘भारतीय’ सामाजिक गतिविधि में सिंधी भाषा-आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति का प्रचार करने सहित थैलेसीमिया बीमारी के प्रति समाज में जागृति फैलाते हैं। इनकी लेखन विधा-क्षणिका,व्यंग्य लेख एवं ग़ज़ल है। कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन जारी है। ‘उजाले की ओर’ व्यंग्य संग्रह)प्रकाशित है। आपको राजस्थान द्वारा ‘काव्य कलपज्ञ’,उ.प्र. द्वारा ‘हिन्दी भूषण श्री’ की उपाधि एवं हि.प्र. से ‘सुमेधा श्री २०१९’ सम्मान दिया गया है। विशेष उपलब्धि-राष्ट्रीय अध्यक्ष(सिंधुडी संस्था)होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-साहित्य का सृजन करना है। इनके लिए पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद एवं प्रेरणापुंज-प्रो. सत्यनारायण अग्रवाल हैं। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“हिंदी को राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मान मिले,हमें ऐसा प्रयास करना चाहिए। नई पीढ़ी को हम हिंदी भाषा का ज्ञान दें, ताकि हिंदी भाषा का समुचित विकास हो सके।”