भटकी है जिन्दगी
विजयलक्ष्मी विभा इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)********************************************** रोज नयी पीड़ाएँ,रोज नयी त्रासदी,चिन्ता के जंगल में भटकी है जिन्दगी। सिकुड़न के घाव बने,भूखों के पेट परजीने के अर्थ मिटे,किस्मत की स्लेट पर।चेहरों से लोप हुई,आशा की ताजगी…॥ जजवाती अंधड में,अब किसकी खैर हैभाई का भाई से,आखिर तक बैर है।बजती है शाम सुबह,द्वन्दों की दुंदुभी…॥ पहचानी जाय नहीं,शक्ल गुनहगार कीसच हो या … Read more