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उधार

मयंक वर्मा ‘निमिशाम्’ 
गाजियाबाद(उत्तर प्रदेश)

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“ठक ठक”
“हाँ कौन ?” ऑफिस के दरवाज़े पर दस्तक सुनकर गुंजन बोली।
“हैलो मैम,मैं गौरव, कॉलेज का ही विद्यार्थी हूँ।”
“तो ? आपको पता नहीं क्या माहौल है। कॉलेज अभी बंद है आप लोगों के लिए।”
“मैम,मेरी बात हुई है प्रोफ़ेसर से,उन्होंने परमिशन दी है। बस लाइब्रेरी में कुछ पढ़ना है। प्रोजेक्ट की तैयारी करनी है।”
गुंजन ने फोन मिलाया,कुछ बात की और पलट कर बोली,-“ठीक है,कुछ करते हैं। आप बैठिए।”
बातचीत और व्यवस्था में समय बीतता जा रहा था। इस कोविड काल में हर चीज़ कितनी मुश्किल लगती है। इंसान इंसान से इस कदर डरता है मानो वो खुद एक वायरस हो।
“आइए,आपका काम हो गया।” कहकर गुंजन आगे-आगे चल दी।
“वो वहां” लाइब्रेरी के कोने में एक कुर्सी की ओर उंगली दिखाकर गुंजन बोली। और बस वहीं से पलट कर चली गई।
इतने इंतज़ार के बाद कुर्सी ऐसी लगी,जैसे चुनाव ही जीत गया था,पर कुर्सी तक जाकर देखा तो धूल भरी,मानो बरसों से राह देख रही थी। कांधे से बैग उतारा और जेब से रुमाल निकाल कर कुर्सी को साफ़ किया,पर बैठते ही किताबें नहीं,खाना दिखने लगा। घड़ी देखी तो पता चला दस से बारह बज गए हैं। अब तक जो लाइब्रेरी के इंतज़ार में था, वहां आते ही अब दिमाग में पिज्जा,बर्गर दौड़ने लगे।
फटाफट जेब से फोन निकाला और एक पिज्जा ऑर्डर करने को ढूंढने लगा। तभी सोचा कि अकेले खाऊंगा तो अच्छा नहीं लगेगा। जब गुंजन जी ने इतनी बातचीत करके मेरे लिए लाइब्रेरी में बैठने की व्यवस्था कराई है तो इतना तो मैं कर ही सकता हूँ कि साथ में खाना ही खा लें। बस फ़िर क्या था,दो पिज्जा ऑर्डर कर दिए।
तभी गुंजन भी वापस आई “हाँ जी, सब ठीक ?”
“जी,सब ठीक। पिज्जा खाएंगी ?”
“नहीं”,बस एक शब्द बोलकर वो वापस मुड़ गई।
ख़ैर,पिज्जा भी आया और गौरव लेकर ऑफिस भी गया।
“अब मैंने दो पिज्जा ऑर्डर कर ही दिए थे। केवल आपके लिए ही नहीं, सारे स्टाफ के लिए भी। अब आ ही गया है तो थोड़ा खा लीजिए।”
“आइए आप सब भी लीजिए।” गुंजन ने बाकी स्टाफ को भी बुलाया। सबने मिलकर खाया। धीरे-धीरे सब एक एक टुकड़ा लेकर चले गए। गौरव वहीं गुंजन के ऑफिस में बैठ कर खा रहा था।
“पता है आज मैं लंच नहीं लाई थी।” खाते-खाते गुंजन बोली।
“वैसे मैंने ऐसा पिज्जा भी कभी नहीं खाया। होस्टल में तो वही हाथ भर का पिज्जा मंगाते हैं पैसे जोड़कर।”
“चलो आज किस्मत में यही था आपकी। भगवान ने मुझे भेजा है।” गौरव हँस कर बोला।
“थैंक यू” उस आवाज़ में अलग कृतज्ञता थी। सुनकर गौरव का मन अचानक आत्मीयता से भर गया।
ऐसा भी क्या था,बस साथ खाना ही तो खाया था। इन्होंने इतना किया मेरे लिए,इतना तो बनता ही था इंसानियत के नाते।
“चलिए वापस से शुरू करता हूँ।” गौरव फिर काम में लग गया। काम भी समाप्त हुआ,सबको धन्यवाद देकर गौरव चला गया,पर गुंजन अपनी ही उधेड़-बुन में लगी थी। सही-गलत,तर्क-वितर्क की दुनिया में देर तक सैर कर आई।
अचानक शाम को गौरव का फोन बजा।
“हैलो,गौरव जी, आप पेटीएम इसी नम्बर पर इस्तेमाल करते हैं ?”
“हाँ जी,पर क्यूं ?” पर फोन कट गया।
१५० रूपए.. एक संदेश और गौरव का मन आक्रोश से भर गया।
गौरव ने गुंजन को फोन मिलाया।
“क्यों ? ये पैसे भेजने का क्या मतलब है ?” गौरव तिलमिला कर बोला।
“गौरव जी,हम किसी का खा नहीं सकते। मैं किसी का उधार नहीं रख सकती। वैसे भी आप तो अनजान हैं।”
गौरव समझ गया,ये दुनियादारी के चक्कर में फंसी है। वो “थैंक यू” कितना सच्चा था और ये १५० रूपए वापस करना कितना बेमानी। वो समझ गया कि गुंजन किस असमंजस से जूझ रही है। उसे पता था कि ये सब बातें बकवास हैं। मैं एक विद्यार्थी और वो प्रबंधन की कर्मचारी। वो लड़की और मैं लड़का। क्या किसी अनुचित सहायता की अपेक्षा तो नहीं मुझे। और हर क्षण न जाने कितने ही अजीबो-गरीब विचार आए।
“मैंने जो किया वो बस इंसानियत के नाते किया था। अकेले खाने से अच्छा था,साथ खा लिया। अगर उधार नहीं रखना था तो एक कॉफ़ी ही पिला देती। बस..पैसे वापस करने की क्या ज़रूरत थी ?”
गौरव की बातें सुनकर शायद गुंजन को कुछ समझ आया-“ठीक है, अगली बार कॉफ़ी मेरी तरफ से।” बोलकर फोन काट दिया।
दिन,हफ्ते और महीना बीत गया। कोरोना का वर्चस्व बढ़ता ही गया,
प्रतिबंध लगते ही गए। कॉलेज में विद्यार्थियों का जाना बंद हो गया। कॉफ़ी तो छोड़ो,मिलना तक असंभव हो गया था।
ऑफिस की मेज़ पर एक सफ़ेद लिफ़ाफा था,नाम पढ़ते ही गुंजन ने हड़बड़ी में लिफ़ाफा खोला..-

श्याम लाल शर्मा,
पिता-गौरव शर्मा
मकान नंबर -…
………………….
………………….

“मैं श्याम लाल शर्मा बड़े दुखद मन से सूचित करना चाहता हूँ कि मेरा सुपुत्र गौरव शर्मा कोरोना ग्रसित था और ४ दिन पहले उसका निधन हो गया। आपसे अनुरोध है कि…” आगे के अक्षर धूमिल से नज़र आने लगे। आँखों में आँसू तो थे पर एक अधूरी तड़प ज़्यादा सता रही थी।
काश…
काश कि…।
कभी-कभी हम दुनियादारी में इतने रम जाते हैं,इंसानियत भूल जाते हैं। यह आवश्यक नहीं कि किस्मत हमें अपनी गलती सुधारने का दूसरा मौका दे। कई बार पहली बार ही अंतिम बार होता है। अब किसका किस पर,किस चीज़ का उधार रहा ? पिज्जा के टुकड़ों का? या १५० रूपए का जो देकर भी बकाया रह गए ? या उस कॉफ़ी का,जो अभी तक पी ही नहीं ? या उस जज़्बे का जो गौरव ने दिखाया ?

परिचय-मयंक वर्मा का वर्तमान निवास नई दिल्ली स्थित वायुसेना बाद (तुगलकाबाद)एवं स्थाई पता मुरादनगर,(ज़िला-गाजियाबाद,उत्तर प्रदेश)है। उपनाम ‘निमिशाम्’ है। १० दिसम्बर १९७९ को मेरठ में आपका जन्म हुआ है। हिंदी व अंग्रेज़ी भाषा जानने वाले श्री वर्मा ने बी. टेक. की शिक्षा प्राप्त की है। नई दिल्ली प्रदेश के मयंक वर्मा का कार्यक्षेत्र-नौकरी(सरकारी) है। इनकी लेखन विधा-कविता है। लेखनी का उद्देश्य-मन के भावों की अभिव्यक्ति है। पसंदीदा हिंदी लेखक व प्रेरणापुंज डॉ. पूजा अलापुरिया(महाराष्ट्र)हैं।

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