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पुलिस प्राथमिकी की यह ‘जंगलगी’ भाषा तो बदलें…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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“डीओ साहिब,

मजरूब गंगेश जेरे इलाज मिला,जिससे पूछताछ अमल में लाई,जिसने अपना बयान दर्ज कराया वो बाला हालात से मुलाहजा एमएलसी से सरेदस्त सूरत जुर्म दफा ३०७ का सरजद होना पाया जाता है। लिहाजा तहरीर हजा बगर्ज कायमी मुकदमा दर्ज करके इत्तिला दी जावे।”

(अर्थ:डीओ साहब,गंगेश नामक व्यक्ति ने अपनी शिकायत दर्ज कराई,जिसमें उसने एमएलसी के खिलाफ धारा ३०७ के तहत मुकदमा दर्ज कराया। शिकायत की पूरी जानकारी मैं आपको डाक द्वारा भेज रहा हूँ।)

ये उस भाषा का एक नमूना है,जिसमें दिल्ली पुलिस लोगों की प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज करती है। ऐसी भाषा जो न तो ठीक से प्राथमिकी दर्ज करने वाले पुलिसकर्मियों को समझ आती है,और न ही शिकायतकर्ता के। दिल्ली उच्च न्यायालय (हाईकोर्ट)ने इसी संदर्भ में दायर एक याचिका पर अहम निर्देश दिया है। न्यायालय ने दिल्ली पुलिस को निर्देश दिया है कि थाने में दर्ज प्राथमिकी में उर्दू- फारसी के मुश्किल शब्दों के बजाए आसान भाषा का प्रयोग किया जाए। न्यायालय ने यह निर्देश दिल्ली प्रदेश के १० अलग-अलग थानों में दर्ज १०० प्राथमिकी देखने के बाद दिया। दिल्ली उच्च न्यायालय के चीफ जस्टिस डी.एन. पटेल और जस्टिस सी. हरिशंकर की पीठ ने कहा कि,प्राथमिकी लिखते वक्त पुलिसकर्मी कई बार मुश्किल शब्दों के तकनीकी अर्थ को पूरी तरह से समझे बिना ही प्रयोग करते हैं,जो कि नहीं होना चाहिए। इस मामले में उच्च न्यायालय के समक्ष जनहित याचिका अभिभाषक विशाल गोयल ने लगाई थी। उनका कहना था कि,पुलिस प्राथमिकी में इस्तेमाल होने वाले उर्दू और फारसी के कई शब्द आम लोगों की समझ में नहीं आते हैं। श्री गोयल ने अदालत से मांग की थी कि,कम से कम ऐसे शब्दों को प्राथमिकी से बाहर रखा जाए। जिन शब्दों का मतलब आम लोगों को पता ही नहीं है तो,इनके इस्तेमाल का कोई औचित्य नहीं है।

उच्च न्यायालय को दिल्ली पुलिस की प्राथमिकी में इ्स्तेमाल होने वाले ३८३ ऐसे उर्दू-फारसी के शब्दों की सूची मय हिंदी अनुवाद के सौंपी गई,जिनका आम बोलचाल में इस्तेमाल अब नहीं होता,लेकिन पुलिस रिपोर्ट में होता है। मसलन-फर्द मकबूजगी यानी जब्ती ज्ञापन,बजर्ग कायमी मौका यानी जैसा हो,वैसा ही दृश्य,दीगर नकूलात यानी अन्य प्रतियां,अरसाल यानी भेजना,बदस्त आरिंदा यानी इस पुलिसकर्मी के हाथों

,तहरीर की मौसूलगी यानी शिकायत प्राप्त होना,जाय वाकया यानी घटनास्थल,तारीख वाकया यानी घटना दिनांक आदि। अदालत ने कहा कि किसी भी मामले की जांच के लिए प्राथमिकी महत्वपूर्ण होती है। यह ऐसी भाषा में होनी चाहिए,जो सबकी समझ में आ सके।

पुलिस कार्यवाही में उर्दू-फारसी और अरबी मिश्रित हिंदी का प्रयोग मुख्‍यत: उन राज्यों की समस्या है,जहां आजादी के पहले सरकारी काम- काज उर्दू और फारसी में हुआ करता था। इन राज्यों में उत्तर प्रदेश,

दिल्ली,पंजाब और‍ बिहार आदि शामिल हैं। हालांकि,तब यह भाषा अगम्य इसलिए नहीं रही होगी,क्योंकि उर्दू,फारसी लिखने-पढ़ने की भाषा भी थी। पढ़े-लिखे कम ही होते थे,

लेकिन जितने भी थे,वो यह भाषा समझते थे। देश में अंगरेजी राज आने के बाद १८६० में भारतीय दंड संहिता लागू की गई। कहते हैं कि नए कानून के तहत पहली प्राथमिकी दिल्ली के सदर थाने में ३१ जनवरी १८६१ को दर्ज हुई। इसकी भाषा लगभग वैसी ही थी,जैसा कि शुरू में उदाहरण दिया गया है,पर अब इन सभी प्रदेशों में शिक्षा का माध्यम और बोलचाल की भाषा हिंदी ही है। इसके बाद भी पुलिस और सरकारी तंत्र की भाषा में कोई खास बदलाव नहीं हुआ है। वहां अभी भी प्राथमिकी को तहरीर कहा जाता है।

अगर मध्यप्रदेश जैसे हिंदीभाषी राज्यों की बात करें तो,यहां पुलिस प्राथमिकी और सरकारी कामकाज भी भाषा अब हिंदी हो चुकी है। यहां पुलिस प्राथमिकी की भाषा में वैसी उर्दू-फारसी हावी नहीं है,जैसे दिल्ली, उत्तरप्रदेश आदि में है। फिर भी पुलिसिया भाषा में कई ऐसे शब्द हैं,जो आम बोलचाल से बाहर हो चुके हैं। मसलन-मौत के लिए `मर्ग` का प्रयोग ही किया जाता है। लापता के लिए `गुमशुदगी` या फिर जहर खिलाने को `जहरखुरानी`,`नकबजनी` आदि। आमतौर पर पुलिस प्राथमिकी की भाषा ऐसी होती है कि आम लोगों को आसानी से समझ न आए। राजस्व अभिलेख में खसरा खतौनी की शब्दावली देखें तो यही लगता है कि आप मुगलों के जमाने में जी रहे हैं। इसमें सुधार करने की गंभीर कोशिशें नहीं की गई हैं।

हालांकि,अदालत के निर्देश का अर्थ यह भी नहीं है कि,आम बोलचाल से तमाम उर्दू-फारसी या अरबी के शब्द पूरी तरह हटा दिए जाएं। ऐसा करना व्यावहािरक भी नहीं है, क्योंकि कई शब्द ऐसे हैं,जो हिंदी में घुल-मिल चुके हैं। मसलन इत्तिला,गफलत,जुर्म,

तफ्‍तीश आदि,किन्तु उर्दू और फारसी के कठिन और क्लिष्ट शब्दों के स्थान पर हिंदी और अंगरेजी के सरल और हर किसी को समझ आने वाले शब्दों का इस्तेमाल ज्यादा उचित और प्रासंगिक है।

यहां सवाल यह है कि तंत्र बदल जाता है,लोग बदल जाते हैं,लेकिन सरकारी व्यवस्था की भाषा अमूमन वही क्यों रहती है ? उसमें समयानुकूल बदलाव की जहमत कोई क्यों नहीं उठाना चाहता ? जो चल रहा है,सो चलने क्यों दिया जाता है ? हैरानी की बात यह है कि जब २१वीं सदी में हिंदी का स्वरूप भी काफी कुछ बदल रहा है,तब दिल्ली व उत्तरप्रदेश में पुलिस कार्रवाई की भाषा १९वीं सदी में ही क्यों अटकी हुई है ? और जब शिकायत की यह भाषा है,तो निदान की भाषा क्या होती होगी,सोचा जा सकता है। एक दलील यह है कि अमूमन आला पुलिस अफसर नए रंगरूटों को यही सलाह देते हैं कि,प्राथमिकी की भाषा को बदलने के बजाए जो चल रहा है,उसी को अपनाने में ऊर्जा खर्च करें। भाषा को अद्यतन(बदलाव या अपडेट) करने के पचड़े में कौन पड़े ? ऐसे में नए पुलिसकर्मी,जो स्वयं भी इस भाषा से अनभिज्ञ होते हैं,उसी रिवायत को आगे बढ़ाते रहते हैं,जो बरसों से चलती आ रही है।

यहां मुददा केवल पुलिस कार्रवाई में ऐसी भाषा के इस्तेमाल का है,जो हर किसी की आसानी से समझ आ सके। न्यायालय का आशय भी यही है,पर इसी के साथ हमें उस अदालती‍ हिंदी के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए,जिसे समझने के लिए भी वकील की ही जरूरत पड़ती है। हिंदी को उर्दू-फारसी समेत कई भाषाओं के शब्द विरासत में मिले हैं। उनकी अपनी अहमियत है,लेकिन पुलिस और सरकारी काम-काज की भाषा वही होनी चाहिए,जिसे हर कोई समझ सके। सहज समझ आने वाली‍ हिंदी को अपनाने के साथ साथ इस बात की सावधानी भी जरूरी है कि कहीं वह इतनी संस्कृत निष्ठ या अंग्रेजी मिश्रित भी न हो जाए कि उसे समझने के लिए भी `शब्दकोश` लेकर बैठना पड़े। पुलिस प्राथमिकी और विवेचना की भाषा को बोधगम्य बनाने के पीछे उद्देश्य इतना ही है कि,वक्त के साथ चलें। पुलिस अपना पुलिसियापन न बदले,तो कम से कम प्राथ‍िमकी की ‘जंग लगी’ भाषा तो बदल ही दें।

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