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लौट आओ…

नरेंद्र श्रीवास्तव
गाडरवारा( मध्यप्रदेश)
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ये रास्ता,
जो
तुम्हें ले जा रहा है,
नदी से रेत उलीचने।

ये रास्ता,
जो
तुम्हें ले जा रहा है,
टीले से मिट्टी निकालने।

ये रास्ता,
जो
तुम्हें ले जा रहा है,
पहाड़ से खनिज निकालने।

ये रास्ता,
जो
तुम्हें ले जा रहा है,
जंगल से पेड़ काटने।

ये वो रास्ते हैं,
जो
चुरा रहे हैं,
तुम्हारी नींद
तुम्हारा स्वास्थ्य,
तुम्हारी साँसें
तुम्हारा जीवन।

ये भटकाव है,
जहाँ तुम भटक गये हो।

ये रास्ता,
तुम्हें पेट के लिए नहीं
पैसों की तरफ ले जा रहा है।

इस रास्ते की ओर,
जब तुम मुड़े थे
तुम्हें रोकने के लिए,
आवाज देता रहा था एक बुजुर्ग
अखबार में छपी कविता।

तुम इतने जल्दी में थे कि,
तुमने न बुजुर्ग की आवाज सुनी
और न ही अखबार में छपी कविता पढ़ी।

बेखबर…बेपरवाह बढ़ते रहे तुम,
तुमने न नदी के दर्द को जाना
न टीले का,
न पहाड़ का
और न ही जंगल का।

ये बेजान नहीं,
ये उसकी बनाई संरचना है
जिन्होंने तुम्हें बनाया है,
…हमें बनाया है
एक-दूजे के पूरक हैं हम,
जब उनका जीवन नहीं
तो हम भी कैसे रह पायेंगे ?
और तुम भी…?

उन्हें जीने दो,
ताकि हम जी सकें
तुम जी सको’
सभी जी सकें।
इसीलिए,
लौट आओ…लौट आओ…
लौट आओ वत्स॥

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