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मृत्यु

विजयकान्त द्विवेदी
नई मुंबई (महाराष्ट्र)
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मृत्यु तुम एक भयानक सत्य,
जीवन वाक्यांश में पूर्ण विराम।
परिवर्तन के परिपोषक तुम,
निष्पक्ष मगर हो क्रूर नितान्त॥

बनाकर व्याधि को आधार,
काटती पंच-प्राणों के तार।
काया करती तुम निष्क्रिय,
आत्मा को नहीं सकती मार॥

अमर-अजर शाश्वत चैतन्य,
है आत्मा परम ब्रह्म का अंश।
साँसों की बंधी हुई जो डोर,
उस तक सीमित है तेरा दंश॥

धरा पर घूमती तुम निर्द्वन्द,
सृजन हेतु करती संहार।
बाल युवा हेतु बन विकराल,
जर्र-जर्र जरा हेतु उपहार॥

अनुशासित कर्तव्य परायण-सा,
करती नहीं तनिक विश्राम।
किसी को रजनी दिवस मध्य,
ले जाती किसी को प्रात: शाम॥

अगम अगोचर के हे दूत,
अलक्ष्य,कन्तु वेदनागम्य।
हर्ष-विषाद से तुम निर्लिप्त,
सेवक‌ जगदीश के अनन्य॥

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