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दादी का संदूक!

डॉ.सत्यवान सौरभ
हिसार (हरियाणा)
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स्याही-कलम-दवात से,सजने थे जो हाथ।
कूड़ा-करकट बीनते,नाप रहें फुटपाथ॥

बैठे-बैठे जब कभी,आता बचपन याद।
मन चंचल करने लगे,परियों से संवाद॥

मुझको भाते आज भी,बचपन के वो गीत।
लोरी गाती मात की,अजब-निराली प्रीत॥

मूक हुई किलकारियां,चुप बच्चों की रेल।
गूगल में अब खो गए,बचपन के सब खेल॥

छीन लिए हैं फ़ोन ने,बचपन के सब चाव।
दादी बैठी देखती,पीढ़ी में बदलाव॥

बचपन में भी खूब थे,कैसे-कैसे खेल।
नाव चलाते रेत में,उड़ती नभ में रेल॥

यादों में बसता अभी,बचपन का वो गाँव।
कच्चे घर का आँगना,और नीम की छाँव॥

लौटा बरसों बाद मैं,उस बचपन के गाँव।
नहीं बची थी अब जहां,बूढ़ी पीपल छाँव॥

नहीं रही मैदान में,बच्चों की वो भीड़।
लगे गेम आकाश से,फ़ोन बने हैं नीड़॥

धूल आजकल चाटता,दादी का संदूक।
बच्चों को अच्छी लगे,अब घर में बन्दूक॥

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